बुधवार, 21 मई 2008

आवरण



संपादकीय

औषधि परीक्षण में पारदर्शिता का सवाल
पिछले दिनों एक अध्ययन की खबर ने औषधि अनुसंधान के क्षेत्र में हलचल पैदा कर दी । यह अध्ययन दवाइयों के परीक्षणों को लेकर था । मीडिया ने इस अध्ययन को अपनी चिर-परिचित सनसनीखेज शैली में प्रस्तुत किया । यह कहा गया कि उक्त अध्ययन से पता चला है कि दवाइयां असरदार नहीं होती । अलबत्ता, यह अध्ययन कहीं अधिक गंभीर मुद्दे उठाता है । इस अध्ययन को करने वाले शोधकर्ता पिछले वर्षो में किए गए दवा परीक्षणों के आंकड़ों का विश्लेषण करना चाहते थे । वे यह देखना चाहते थे कि दवाइयों के परीक्षणों के आंकड़े उनकी प्रभाविता के बारे में क्या कहते हैं । उन्होंने कुछ दवाइयों को चुना था । अंतत: शोधकर्ताआें को यू.एस. खाद्य व औषधि प्रशासन से यह जानकारी सूचना के अधिकार का उपयोग करके प्राप्त् करनी पड़ी थी । यह अपने आप में चिंता का विषय है । जब यह जानकारी प्राप्त् हुई, जो काफी आधी-अधूरी थी । इन गुमशुदा आंकड़ों के चलते उन्हें अपना अध्ययन सीमित करना पड़ा था । बहरहाल, जो आंकड़े प्राप्त् हुए, उनसे पता चला है कि दवाइयों के कई क्लिनिकल परीक्षण शुरू तो किए जाते हैं, मगर नकारात्मक परिणाम मिलने पर उन्हें प्रकाशित ही नहीं किया जाता । परिणाम यह होता है कि दवाई को मंजूरी दिलवाने के लिए मात्र सकारात्मक परिणाम ही प्रस्तुत किए जाते हैं । इससे औषधि विज्ञान का काफी नुकसान होता है और दवाइयों का सही आकलन भी नहीं हो पाता । यह मांग काफी समय से की जाती रही है कि सारे क्लिनिकल परीक्षण के आंकड़े प्रकाशित किए जाएं मगर ऐसा होता नहीं है । इसे सुनिश्चित करने के उपाय कुछ हद तक ही सफलहुए हैं । जैसे चिकित्सा पत्रिकाआें के संपादकोंकी एक अंतर्राष्ट्रीय समिति ने यह मांग की थी कि शोधकर्ता सारे क्लिनिकल परीक्षणों का ब्यौरा अनिवार्य रूप से रजिस्टर में दर्ज करें । इसके बाद एक महीने में यू.एस. नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ हेल्थ में दर्ज क्लिनिकल परीक्षणों की संख्या लगभग दुगुनी हो गई थी । इसी प्रकार से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी समस्त क्लिनिकल परीक्षणों का पंजीकरण `वैज्ञानिक व नैतिक दायित्व' घोषित किया है । इन प्रयासों के बावजूद स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है । आज भी क्लिनिकल परीक्षण पर शोध करने वालों को खोज-खोज कर ऐसे परीक्षणों के आंकड़े इकट्ठे करने पड़ते हैं । उपरोक्त सीमित सफलता के मद्दे नजर अब यह मांग उठ रही है कि यह भी अनिवार्य होना चाहिए कि सारे क्लिनिकल परीक्षणों के परिणाम भी प्रकाशित हों ।

प्रसंगवश

रंग क्यों बदलता है गिरगिट
कई बार प्रकृति की किसी बात की वजह इतनी स्पष्ट रूप से `समझ' में आती है कि हम उस पर दोबारा विचार करने की जरूरत तक नहीं समझते । आम तौर पर जीव-जंतुआें के व्यवहार के बारे में ऐसा ही होता है । जैसे गिरगिट का रंग बदलना । सब लोग फौरन सहमत हो जाते हैं कि गिरगिट अपने परिवेश में घुल-मिल जाने और छिपने के लिए रंग बदलता है । जैसे परिवेश में वह बैठा होगा, वैसा ही उसका रंग हो जाएगा । यह हमें इतना `स्पष्ट' लगता है कि न तो हम अवलोकन की कोई जरूरत समझते हैं, न ही इस `कारण' की जांच पड़ता की । अरस्तू का विचार था कि गिरगिट डर के मारे रंग बदलता है और हम मानते हैं कि वह परिवेश में घुल-मिल जाने यानी कैमोफ्लाज के लिए ऐसा करता है । बहरहाल, हाल में दक्षिण अफ्रीका के गिरगिटोंपर किए गए प्रयोग एकदम उल्टी कहानी कहते हैं । दक्षिण अफ्रीका में बौने गिरगिट की १४ प्रजातियां पाई जाती हैं । इनमें कई उप-प्रजातियां भी हैं । इन सब में रंग बदलने की अदभुत क्षमता पाई जाती है । वैसे इनकी इस क्षमता में काफी विविधता है । ये गिरगिट विभिन्न परिवेश में रहते हैं । कुछ घास के मैदानों में तो कुछ बरसाती जंगलों में । ये अपने बाजू की चमड़ी का रंग बदलते हैं जिसके अलग-अलग कारण होते हैं । जैसे कुछ नर गिरगिट मादा को इशारा करने के लिए रंग बदलते हैं, तो कुछ गिरगिट अपनी आक्रामकता को प्रदर्शित करने के लिए । सवाल यह है कि रंग परिवर्तन का प्रमुख कारण क्या है - छिपना या ज्यादा नजर आना ? ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न विश्वविद्यालय के डेवी स्टुअर्ट फॉक्स और अदनान मौसाल्ली ने २१ अलग-अलग उप-प्रजातियों के नर गिरगिटों का अध्ययन किया । अध्ययन के लिए उन्होंने इन अलग-अलग समूहों के नरों की भिड़ंत करवाई । उन्होंने यह भी ध्यान दिया कि प्रत्येक गिरगिट किस परिवेश में रहता है और रंग बदलने में किस तरह के रंग अपनाता है । देखा गया कि जो गिरगिट ज्यादा रंग-बिरंगे विविधतापूर्ण परिवेश से आए थे उनमें रंग परिवर्तन में बहुत विविधता नहीं थी । यदि वे इन रंगों का उपयोग परिवेश में छिपने के लिए करते होते, तो उनमें रंग परिवर्तन में भी काफी विविधता होनी चाहिए थी । यह भी देखा गया कि सबसे ज्यादा रंग परिवर्तन करने वाली प्रजातियां परिवेश में घुलने-मिलने की बजाय ज्यादा अलग नजर आती है । तो इन अवलोकनों के आधार पर समूह का निष्कर्ष है कि गिरगिट रंग परिवर्तन का उपयोग सिर्फ छिपने के लिए नहीं करते । कभी-कभी रंग परिवर्तन परिवेश से अलग दिखने के लिए भी किया जाता है । ***

१ मई दिवस पर विशेष

इतिहास बनते मेहनतकश
अनिल त्रिवेदी
एक मई याने दुनियां के मेहनकशों का दिन । इस दिन दुनियाभर के मेहनतकशों की एकजुटता और सवालों को लेकर कई कार्यक्रम आयोजित होते हैं । मनुष्यों द्वारा निर्मित इस दुनिया में मेहनतकश और दिमागकश लोगों के श्रम और विचार का संयुक्त योगदान है । मेहनतकश लोगों ने दिमागकश लोगों के विचारों एवं सपनों को सजीव करने में अपना खून-पसीना बहाया है । यह दुनिया यदि केवल दिमागकशों की ही होती तो यह केवल सपनों के उड़ान की दुनिया होती । चीन में विश्व की सबसे लम्बी दीवार को साकार रूप देना हो या ताजमहल जैसी आश्चर्यजनक इमारत का निर्माण हो, दोनों ही दिमागकश और मेहनतकश के अरमान और कर्म के खूबसूरत गठबंधन का ही नतीजा है । प्रत्येक प्राणी ऊर्जा का अद्भुत स्त्रोत है । मनुष्य को छोड़ प्राणी जगत के अन्य प्राणियों का जीवन स्वयं की ऊर्जा पर ही चलता है । दिमागकश मानव ने दिमाग के बल पर बहुत सारे अन्य प्राणियों की शक्ति को भी अपने सपनों को पूरा करने में निरंतर इस्तेमाल किया है। पशु की ऊर्जा का इस्तेमाल दिमागकश इंसान ने अपने कार्यो को पूरा करने में किया है । पशु और इंसान की सम्मिलित मेहनत या ऊर्जा से ही प्रारंभ हुआ है मनुष्य और बड़ी मशीनों के गठबंधन का दौर । इस दौर में दिमागकशों ने ऐसी विशालकाय मशीनों का निर्माण कर दिया जिससे एक इंसान बिजली या पेट्रोल की ऊर्जा का इस्तेमाल कर अनेक मेहनतकशों का काम एक मशीन से करवा लेता है । दिमागकशों के इस नये अविष्कार से दुनिया में तेजी से काम करवा लेने का दौर प्रारंभ हुआ । मेहनत के विनियोग से चलती आयी दुनिया में अब ऐसा परिदृश्य आम होता जा रहा है कि जिन्होंने सदियों से अपने शरीर की ऊर्जा से कुशलता के साथ जिंदगी का संचालन किया, वे आज की दुनिया में अकुशल मजदूर हो गये । जिन्होंने कभी शरीर की ऊर्जा का विनियोग देश और दुनिया के निर्माण में नहीं किया वे अपने दिमागों से निकली विशालकाय मशीनों और टेक्नालॉजी के बल पर दुनिया के सिरमौर बनते जा रहे हैं । आज की विकसित दुनिया में मेहनतकश इंसान धरती पर बोझ लगने लगा है । प्रारंभ से ही मानव का मस्तिष्क मनुष्य की शक्ति या ऊर्जा को और ज्यादा तेजस्वी और शक्तिसम्पन्न बनाने में ही चला । इसका नतीजा यह हुआ कि सारे बुनियादी आविष्कार मनुष्य के दिमाग ने इस सिद्धांत पर किए कि एक मनुष्य दो-चार मनुष्यों की ऊर्जा के बराबर काम कर सके । प्रारंभिक दौर में काम करने वाले मनुष्यों की मेहनत की प्रतिष्ठा दुनियाभर में बहुत बढ़ी और जो भी शक्ति सम्पन्न बनने का सपना देखता था उसने ऐसे मेहनती इंसानों या उनकी शक्ति को अपने वश में करने में अपने दिमाग का इस्तेमाल प्रारंभ किया । मनुष्य ने ऐसे औजारों का निर्माण भी कर लिया जिसमें पशु की ऊर्जा मिलकर औजार की शक्ति भी जुड़ जाए। इसके परिणामस्वरूप कई नए उपकरण जैसे हल, बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, चड़स आदि प्रचलन में आए । साथ ही मनुष्य का दिमागी अर्थशास्त्र इन्हीं संसाधनों तथा मनुष्य और पशु की शक्ति के चारों ओर चलने लगा । राज्य और साम्राज्य की शक्ति मनुष्यों के लवाजमें और पशु की शक्ति के ईद गिर्द केंद्रित हो गई । युद्ध शास्त्र की संरचना में भी हाथी और घोड़े की संख्या ताकत का प्रतीक बनी । मनुष्य को अपनी सामूहिक संग्रह शक्ति पर अभिमान होने लगा और राज्य का शक्ति केन्द्र के रूप में उदय होने लगा । इसी के साथ एक ऐसी नस्ल विकसित हुई जिससे दुनिया के सारे मेहनतकश, दिमागकशों की सोच की सत्ता के गुलाम हो गए। अपनी अक्ल के बल पर ही मनुष्य को गुलाम बनाने, मनुष्य द्वारा मनुष्य पर अन्याय करने और लूटने का एक ऐसा लम्बा सिलसिला चला, जो आज तक अपने भयावह रूप में कायम है । दुनिया का इतिहास दिमागकशों द्वारा मेहनतकशों को सृजन और संहार की प्रवृत्तियों में निरंतर खपाते रहने का इतिहास है । प्रारंभ से ही मनुष्य ने केवलअपनी जिंदगी को चलाने के लिए ही मेहनत की है । केवल अपने लिए जीते रहने की ऊब से जो विचार चला उसने मनुष्य को और अधिक शक्तिशाली बनाने का मार्ग प्रशस्त किया और पूरी दुनिया की राजनीति और अर्थशास्त्र मेहनतकशों के हाथ से निकालकर दिमागकशों की गुलाम बन गई। आज की आधुनिक और विकसित दुनिया मेहनतकशों के पसीने के बल पर नहीं दिमागकशों के पैसे के खेल पर नाचने, इतराने वाली दुनिया बनती जा रही है एवं शरीर की ऊर्जा के बल पर जीवन जीने की कला इतिहास की वस्तु बनती जा रही है । हाथ से काम करने वाले लोग उपहास या लाचारी के पर्याय बनते जा रहे हैं । घर-परिवार से लेकर समाज-सरकार में मेहनतकशों को बोझ और दिमागकशों को सिरमौर मानने का नया उषाकाल आ गया है । इससे एक ऐसी दुनिया निर्मित हो रही है जिसमें इंसान को इंसान की जरूरत हैं । दुनिया में सर्वाधिक मनुष्य केन्द्रित रोजगार पैदा करने वाला हंसिया और हथौड़ा अब तेजी से इतिहास की वस्तु बनता जा रहा है । हाथकरघा तो अतीत की बात हो गई है। कपड़ा मिलें भी मनुष्य मशीन सहयोग के बजाए स्वचालित टेक्नालॉजी की गुलाम हो गई हैं । उत्पादन की समस्त प्रक्रियाआें में मनुष्य की ऊर्जा का स्थान विशाल मशीनों ने हथिया लिया है । ऐसे में मेहनत का अवमूल्यन तो होगा ही और मेहनतकश की मेहनत के गीत कौन गायेगा ? आज हमने उधार की और हर क्षण खर्चीली ऊर्जा से ऐसी दुनिया रच ली है कि हम घर से बाहर निकलते ही खुद की ऊर्जा से चलने में स्वयं को लाचार पाते हैं । हित चिंतक लोग कुशलक्षेम के स्थान पर पूछने लगते हैं क्यों गाड़ी कहां गई ? आज पैदल कैसे? पैदल चलना एक अजूबा बनता जा रहा है । दुनिया का सारा ज्ञान एक छोटी चिप में समा गया है । कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी ने दिमाग को एक ऐसा साधन दे दिया है कि स्मरण और विस्मरण का अध्याय ही मनुष्य के मतिष्क से समाप्त् होता जा रहा है । आज के मनुष्य की ऊर्जा और दिमाग दोनों पर यंत्रों का गहरा प्रभाव कायम हो चुका है । उसका रचना संसार सृजन और संहार की ऐसी मशीनों की रचना कर चुका है कि जिसे मनुष्य समाज की जरूरत ही नहीं है । दिमागकश मनुष्यों ने मेहनतकश मनुष्यों की ऊर्जा को लाचार कर मनुष्य की प्राकृतिक सक्रियता को नष्ट कर दिया है और अब दिमाग को आराम देने वाली नई टेक्नालॉजी ने मनुष्य के दिमाग की प्राकृतिक तेजस्विता को श्रीहीन करने का पूरा इंतजाम कर दिया है । मूलत: मेहनतकश मनुष्यों को दिमागकश मनुष्यों ने आरामतलबी मशीनकश मनुष्य में बदल दिया है । दुनियाभर का मनुष्य मशीनकश आराममय जीवन बिताने में मगन है । उसे न तो दुनिया के मजदूरों की चिंता है और न ही मनुष्य जीवन की जीवन्तता की । मशीनों चलती रहें और वह पड़ा रहे यही जीवन का आनंद हो गया है । मनुष्य के जीवन के संगीत को छीनकर, कान फोडू डी.जे. की धुन पर, मशीन के नशे की ताल पर उसे उछलने कूदने वाले ऐसे समाज में बदल दिया है जिसे मनुष्य की ऊर्जा की जरूरत नहीं है । इसलिए आज के यंत्रीकृत समाज में दुनिया के मजदूरों एक हो की आवाज और लड़ाई इतिहास की बात हो गई है । मशीनों के बाजार ने दुनिया की गतिविधियों को बहुत तेज और मनुष्य की जिंदगी को मशीनों की कठपुतली बना डाला है और कठपुतली कभी भी सवाल नहीं करती हैं। इस परिदृश्य में एक मई इतिहास बनते मेहनतकशों की मेहनत को याद करने का रस्मी दिन बनकर रह गया है । आज उधार की ऊर्जा से यंत्र समाज तो दिनरात चल रहा है पर मनुष्य ऊर्जा आरामकश समाज में विलीन हो गई है । ऐसा उबासी लेता समाज मेहनत के संगीत के लिए स्मरणीय `मई दिवस' को यदि याद भी कर लेता है तो क्या वह वर्तमान यंत्रीकृत समाज की एक उपलब्धि नहीं मानी जाएगी ?***

२ सामयिक

अब क्यों नहीं बौराता वसन्त ?

डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल

यजुर्वेद (१३/२५) में चैत्र और वैशाख के दो माह को वसन्त बतलाया गया है । इन दोनों महीनों को क्रमश: मधुमास और माधववास भी कहा है - `मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृत ।' किन्तु सृष्टि की प्रकृति में वसंत अपनी निर्धारित तिथि से ४० दिन पूर्व ही आ जाता है तभी तो यह ऋृतुराज कहलाता है । धरा धाम पर वसन्तागमन चैत्र कृष्ण प्रथमा के स्थान पर माघ शुक्ल पंचमी को ही हो जाता है । जिसे वसन्त पंचमी कहा जाता है । इस दिन वाग्देवी सरस्वती का विधिवत पूजन होता है । यजुर्वेद (१३/२७-२९) में यह भी कहा गया है कि वसन्त ऋतु में मधुर वायु ऐसे प्रवाहित होती है जैसे जल की धारा रूप सलिलाएं कोमल कांत गति से धरती पर मचलती हुई समुद्र की ओर चलती है । औषधियाँ वनस्पतियाँ, दिन और रात, सूर्य एवं द्युलोक सभी सुखकारक होते हैं । कहने का भाव यह है कि वसन्त हमारी वैदिक परम्परा से जुड़ा हुआ उत्सव है जिसमें जीवन स्पंदन का उत्स है (उत् =ऊपर की ओर, सव = बहना) वसन्त केवल एक बदली हुई ऋतु का नाम नहीं है । वह कंपकंपाती सर्दी के बाद केवल गुनगुनी धूप का ही मौसम नहीं है वरन् पल्लव हीन पेड़ों पर कोमल पत्तियों का, खिलते-मुस्कराते और अंगड़ाई भरते फूलों का, आम के पेड़ों पर बौरों के लगने का, मदमाती मस्त हवाआें के बहने का और कोयल के कूकने का मौसम है । जाड़े की जड़ता भरी ठिठुरन के खात्मे के बाद प्रकृति स्वयं सजती-सवरती है । इसीलिए तो अपनी यांत्रिक जिन्दगी जीते हुए भी हम वसन्त का स्वागत उत्सुकता से करना चाहते हैं । वसन्त की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है - ``मासानां मार्ग शीर्षो%स्मि ऋृतूनां कुसुमाकर:'' (गीता १०/३५) अर्थात ऋृतुआें में मैं श्रेष्ठ कुसुमाकर अर्थात् वसन्त हँू । ऋृतवद्ध रूपमती षडऋतु दर्शना प्रकृति में पर्वोत्सव परम्पराएं है हमारे सभी क्रियाकलाप ऋृतुचक्र पर आधारित हैं । यूं तो सभी ऋतुआें का अपना विशिष्ट एवं चिरंतन महत्व है किन्तु वसन्त ऋृतु के आते ही पेड़-पौधे सुवासित फूलों से लद जाते हैं, सरोवर कमल दलों से सज जाते हैं । रमणियाँ प्रेम में पग जाती हैं, वायु सुगन्धित हो जाती है । संध्या काल सुहाता और लुभाता है । प्रकृति का जर्रा-जर्रा सुन्दरता से भर जाता है । महाकवि कालिदास ने लिखा है - ``दु्रमा: सपुष्पा: सलिलं सपदमंस्त्रिय: सकामा: पवन: सुगन्धि: । सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या: सर्व प्रिये चारूतरं वसन्ते ।।''(ऋतुसंहार ६/२) महाकवि ने प्रकृति के प्रति अपने अनुराग तथा ऋृतु फाग को व्यक्त करते हुए लिखा है कि प्रदीप्त् अग्नि के समान वर्ण वाली, वायु द्वारा हिलाये जाते हुए, किंशुक फूलों से लदे हुए पेड़ों से सजी धरती ऐसे लगती है जैसे लाल चुनरिया ओढ़ें हुए कोई नई नवेली दुल्हन हो - `आदीप्त्वहि्वसहशैर्मरूतावधूतै: सर्वत्र किंशुकवनै: कुसुमावनम्रै: । सद्यो वसन्तसमये हि समाचितेयं रक्तांशुका नवधूरिव भाति भूमि ।।'' (ऋतुसंहार ६/१९) वसन्त ने सदैव मेरे भी अर्न्तमन को आह्लादित किया है । अपने द्वितीय प्रकाशित काव्य संकलन `वृक्षमित्र' (रूचिका कृति प्रकाशन, कोलकाता) में मैंने भी आत्मानुभूति तथा प्रकृति प्रणय के भाव को सहजता से व्यक्त करने का प्रयास किया है -
यौवन वसन्त के आते ही दुल्हन सी सजती हरियाली। बँधती प्रगाढ़ आलिंगन में कौमार्य लुटाती हर डाली ।
विविध रूप-रस-गंध पुष्प सजते उपवन सोपान भंवरे कीट पतंगे खिंच करते मधुरस पान ।
पहुँचाते पराग वर्तिकाग्र पर तब ही करते विश्राम । प्रकृति की नैसर्गिक यह परागण क्रिया महान ।
नर पराग नलिका करती मादा अण्डाशय का भंजन। होता तब नर मादा युग्मक का मधुर मिलन ।
कहलाती यह क्रिया निषेचन फल बंदित आवरण मंडित बीजो का होता सृजन ।
ऐसा है सृजनशील हमारा पर्यावरण । किन्तु अब तो चारों तरफ से प्रकृति एवं पर्यावरण पर खतरा मंडरा रहा है । ग्लोबल कल्चर डेवलप हुआ है तो वसन्त की परवाह भी किसे है । मौसम के नैसर्गिक परिवर्तन की सराहना करने वाले दुर्लभ होते जा रहे है क्योंकि हम स्वयं को ही प्रकृति से दूर पा रहे हैं किन्तु पर्यावरण के लिए अत्यधिक घातक है हमारा प्रकृति विमोह । जिस बनावटी संस्कृति में हम जी रहे हैं उसमें मौसम की मिजाजपुर्सी करने का वक्त कहाँ ? क्योंकि प्रकृति पर अपनी निर्भरता को हम पहले जैसा नहीं पा रहे हैं । हम अप्राकृतिक होते जा रहे हैं। वातानुकूलित घर, और ऑफिस हमें फूलों और उनकी खुशबुआें से दूर किये रहते हैं । हम तो धनांधता में ही मदहोश रहते हैं । हमारे पास गरमी सर्दी और बरसात का सुखद एहसास फटकने भी नहीं पाता है । किन्तु यह कथाकथित सुविधा भोगी सम्पन्नत भी तो सबको समान रूप से सुलभ नहीं है । क्या है इस भोगवाद का सच ? यह विचारणीय प्रश्न है । दरअसल इसी बढ़ते भोगवाद की भावना हमको प्रकृति से दूर करती हैं ,हमें वसंत के उल्लास से महरूम करती हैं । वसन्त आता है और चला जाता है किन्तु हम उसका कदाचित अनुभव भी नहीं कर पाते हैं । गरीब तो गरीब है ही किन्तु गर हम मालदार भी हैं तो सुरम्यता से वंचित हम भी गरीब रह जाते हैं । हम बनावटी जिन्दगी जीते हैं इसीलिए गरमी के बाद सर्दी और सर्दी के बाद गर्मी के सुखद एहसास से वंचित है । मौसम की हमें परवाह नहीं है इसलिए अब मौसम भी हमें नहीं हुलसाता है और बिना बौराये ही वसन्त बीत जाता है । माना तो यह जाता है कि वसन्त ऋतु वाह्यांतर रूप से हमको तेजस्वी बनाती है । अग्नि को प्रदीप्त् करती है और ओज को बढ़ाती है । ऋतु का प्रभाव वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुआें पर भी पड़ता है । जीवन में नव-उमंग और उल्लास बढ़ता है । अपने खेतों में लहलहाती फसल देखकर हम आनंदित होते हैं और राग रंग फाग की मस्ती में डूब कर वसन्तोत्सव मनाते हैं । किन्तु अब वसन्त भी पहले की तरह खुशियाँ मनाने का अवसर नहीं रहा । किसान आत्महत्या कर रहे हैं । अन्नदाता ही भूखे मर रहे हैं । कृषि अब घाटे का सौदा हो गया है । आदमी उपभोक्तावाद में खो गया है । कोई भी शख्स अब प्रकृति के पास नहीं जाता है । कोई भी अन्तर्गत से मदनोत्सव नहीं मनाता है । एक निरंकुश तनाव में जी रहा है आदमी। जाहिर है अभाव और तनाव में उत्सव धर्मी नहीं रहा जा सकता है किन्तु वसन्त में इतना इतना उल्लास भरा होता है कि वह छिपाये भी नहीं छिप पाता है, प्रकट हो ही जाता है किन्तु फिर भी आई किंचित भी कमी को रेखांकित करना हमारा धर्म है । क्या हमने यह जानने की कोशिश की कि अब क्यों नहीं बौराता वसन्त ? अब क्यों नहीं सुरभित बयार बहती है । चिड़ियाँ चहचहा कर हमसे कुछ क्यों नहीं कहती है । अब खेत-खलिहानों एवं बाग-बगानों के बीच पगडंडियों से गुजरते हुए फूलों की सुगंध का वह सुखद एहसास क्यों नहीं होता है जो पहले होता था । दरअसल परिवेशगत प्रदूषण ने अपनी कुत्साआें के इतने अधिक अवरोध खड़े किये है कि सुगंध को दुर्गन्ध ने कैद कर लिया है । औद्योगिक इकाइयों से निकलता हुआ दुर्गन्ध युक्त वाहित जल और धुआँ उगलति चिमनिया हमारे वातावरण को गंदा करती है । हमने स्वयं अपनी जिन्दगी को नर्क बना डाला है । प्रदूषण से समस्त जीवोें का जीवन प्रभावित हो रहा है । तथा जीवनकाल भी क्षर रहा है । फूलों मंे वह गंध नहीं, मकरंद नहीं स्वाद नही तथा पोषण भी नही है । क्यों कि हमने प्राकृतिक निधि को समाप्त् कर डाला है । प्रकृति बड़ी ही भावनात्मक एंव संवेदनशील होती है । आधुनिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि अब फूलों की खुशबु दूर तलक नहीं जाती है । वर्जीनिया विश्वविद्यालय के शोध के अनुसार जिन फूलों की गंध १००० मीटर से १२०० मीटर तक जाती थी, अब वह केवल २०० से ३०० मीटर दूर तक ही विस्तारित हो पाती है । गंध की तीव्रता भी घटी है। जिससे भंवरे कीट आदि आकर्षित होकर उन तक नही पहुँचने जिससे परागण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । फूल फल ही नही अनाजों की पैदावार भी अप्रत्याशित रुप से घटी है । कीटनाशको ने न केवल गंध चुराई है वरन लाभ दायक कीटों के जीवन से भी खिलवाड़ किया है । इसीलिए तो वसन्त नहीं बौराता है । मौसम भी स्वयं को असहाय पाता है । प्रकृति क्या थी और हमने क्या से क्या कर डाला है? अब भी वक्त है कि हम संभल जायें ताकि वसन्त बौराये और हम भी मीठे फल बोयें, जिससे समाज के सभी व्यक्तियों को प्रकृति के उपहार का आनंद मिल सके ।***

३ हमारा भूमण्डल

आटे दाल के भाव
सेव्वी सौम्य मिश्रा
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) ने अपनी खाद्य दृष्टिकोण रिपोर्ट में खाद्यानों के मूल्यों में आगामी १० वर्षो तक वृद्धि का अनुमान लगाया है । हाल ही के वर्षो में अधिकांश खाद्यान्नों की आपूर्ति में जहां कमी आई है वहीं भोजन, चारा व औद्योगिक उपभोग के बढ़ने से इनकी मांग में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है । हालांकि २००७-०८ में वैश्विक खाद्य उत्पादन में ५ प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान तो है परंतु यह वृद्धि मक्का जो कि बायो इंर्धन में इस्तेमाल होने वाला मुख्य खाद्यान्न है, के उत्पादन में होगी । गेहूँ - दक्षिण पश्चिम अमेरिका और उत्तरी चीन में ठंड के मौसम में गेहूँ की कमजोर फसल के कारण फरवरी २००८ में गेहूँ की कीमतों में १५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । दिसंबर २००५ व दिसम्बर २००७ के मध्य गेहूँ की कीमतों में जबरदस्त उछाल आया और इस दौरान यें प्रतिटन १६७ डालर से बढ़कर ३८१ प्रतिटन तक पहुंच गई और वर्तमान में ये ४४९ डालर प्रतिटन तक पहुंच गई है । कुल मिलाकर यह वृद्धि करीब ११५ प्रतिशत बैठती है । मूल्य वृद्धि का कारण विश्व में गेहूँ के दूसरे सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता राष्ट्र आस्ट्रेलिया में पड़ने वाला अकाल है । आस्ट्रेलिया में सामान्यता उत्पादन २५ मिलियन टन रह गया है । वही कनाडा, युरोपिय यूनियन, तुर्की और सीरिया में भी विपरीत मौसम की वजह से निर्यात में कमी आई है । गेहूँ की मांग बायोइंर्धन और चारे के रुप में बढ़ने से भी अंतराष्ट्रीय आपूर्ति प्रभावित हुई है । इस कमी की वजह से भारत को लगातार दूसरे वर्ष भी गेहूूँ का आयात करना पड़ा है । २००७-०८ में भारत ने ०.६८ मिलियन टन एवं २००६-०७ में ५.८ मिलियन टन गेंहूँ का आयात किया था । कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अध्यक्ष टी.हक का कहना है कि २००८-०९ में भारत को गेहूँ के आयात की आवश्यकता नही होगी । वहीं एक अन्य अनुमान के अनुसार भारत को अपने भंडार में वृद्धि के लिए ३ मिलियन टन गेंहूँ का आयात करना पड़ सकता है । चावल - मार्च २००८ में चावल का मूल्य प्रति टन ५०० डालर की सीमा को पार कर गया जो कि पिछले २० वर्षो में अधिकतम है । जानकारी के अनुसार चावल की कीमत में दो गुनी से ज्यादा वृद्धि हुई है । फिलीपीन्स व अफ्रीकी देशों मेें बढ़ती मांग से भी यह मूल्यवृद्धि हुई है । साथ ही पाकिस्तान में बिजली की कमी से चावल मिलों का बंद होना और चीन एवं भारत द्वारा चावल निर्यात पर रोक लगाना भी इस मूल्य वृद्धि के अन्य कारण हैं । भारत ने जहां मेडागास्कर, मारीशस व समुद्री तूफान से ग्रस्त बांग्लादेश के लिए आंशिक छूट दी है वहीं चीन ने तो इसके निर्यात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है । इसी दौरान वियतनाम ने फिलीपीन्स को टूटा हुआ चावल ७५० डालर प्रतिटन के भाव से बेचा । निर्यातकर्ताआें ने भी कीमतों में वृद्धि की संभावना के मद्देनजर चावल का भंडारण कर लिया है । वहीं पाकिस्तान में कुछ ही महीनों में चावल की कीमतों में ६० प्रतिशत की वृद्धि हुई है । मक्का - दिसम्बर २००५ से दिसम्बर २००७ के मध्य मक्का की कीमतें १०३ डालर प्रतिटन से बढ़कर १८० डालर प्रतिटन तक पहुंच गई । २००७-०८ में मोटे अनाजों के उत्पादन में ९ प्रतिशत की रिकार्ड वृद्धि हुई जिसमें मक्का का सर्वाधिक योगदान है । इसके बावजूद इसकी कीमतें पिछले १० वर्षो के अधिकतक स्तर २३० डालर प्रतिटन पर पहुंच गई । इसकी वजह है मक्का का बायोइंर्धन और चारे के लिए किया जाने वाला उपयोग । मक्का के निर्यात में अमेरिका की हिस्सेदारी ६० प्रतिशत से भी अधिक है । परंतु इस दौरान उसने इसकी एक चौथाई खपत बायो इंर्धन के उत्पादन में कर ली । इस कार्य में उसने २००६-०७ में बढ़कर ८१.३ मिलियन टन हो जाने के अनुमान है । तिलहन - पिछले डेढ़ वर्षो में सोयाबीन तेल और पाम आईल के भावों में जबरदस्त तेजी आई है । खाद्य पदार्थो में सर्वाधिक मूल्य वृद्धि इसी वर्ग में हुई है एवं इसके जारी रहने की संभावना भी है। पिछले एक वर्ष में पाम आईल की कीमतें ३५० डालर से बढ़कर १२५० डालर पर पहुंच गई यानि की इनमें करीब ३.५ गुना वृद्धि दर्ज की गई है । वहीं सोयाबीन तेल की कीमतें बढ़कर ४९९.४३ डालर पहुंच गई है । साथ ही सोयाबीन और सूरजमुखी के उत्पादन मेंं कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है । वही पाम, पाम गिरी, गिरी, (खोपरा), रेपसीड व मुंगफली के तेल के उत्पादन में वृद्धि का अनुमान है। वैसे खाद्य तेलों की कीमतों में वृद्धि पामआईल के सबसे बड़े उत्पादक मलयेशिया में आई बाढ़ भी इसके लिए जिम्मेदार है । वहीं यूरोप में पामआईल को अधिक स्वास्थ्यवर्धक मानने से भी इसकी मांग में वृद्धि हुई है । स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चीन के एक स्टोर में प्रोत्साहन मूल्य पर तेल बेचे जाने के दौरान हुई भगद़़ड में ३ व्यकित्यों की मृत्यु हो गई और ३१ घायल हो गए । मलयेशिया में तो पारम्परिक वन क्षेत्रों को साफ करने वहां पाम का रोपण किया जा रहा है जिससे कि यूरोप की बायोइंर्धन की मांग का पूरा किया जा सके । डेरी एवं पोल्ट्री - प्रति व्यक्ति आय बढ़ने से डेरी उत्पाद की मांग में वैश्विक वृद्धि हुई है । चीन और भारत इसमें सबसे आगे हैं । जानवरों द्वारा अनाज की चारे के रुप में बढ़ती खपत से भी खाद्यानों की आपूर्ति को उस ओर मोड़ना पड़ रहा है । एफ.ए.ओ. के अनुसार २० वर्ष पूर्व के मुकाबले आज २००-२५० मिलियन टन अनाज की चारे के रुप में मांग बढ़ चुकी है । साथ ही इसने यह भी भविष्यवाणी की है कि विकासशील देशों में गाय, भेड़ और बकरी के मांस की मांग में वृद्धि होगी । वहीं विकसित देशों के मांस उत्पादन में कमी की आशंका है । एशिया खासकर भारत और चीन में दूध के उत्पादन में अधिकतम बढ़ोत्तरी हुई है । २००७ मेें जहां दूध की कीमतोंं में १२ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । वहीं २००८ में इसके उत्पादन में मात्र २.७ प्रतिशत की वृद्धि की संभावना है । दूसरी ओर मात्र यूरोप में सन् २०१४ तक ८ मिलियन टन अतिरिक्त दूध की आपूर्ति संभावित है । मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर बढ़ता ही जा रहा है । इसके लिये सिर्फ जनसंख्या वृद्धि को ही उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, वृद्धि के लिये आंचलिक परिस्थितियां भी जिम्मेदार हैं। समाधान खोजने वाले भी दो समूहों जिनमें से एक जैव संवर्धित (जी.एम.) खाद्यान्नों की मूल्य वृद्धि का प्रमुख कारण है । सन् १९७३ में जब इन तेलों की कीमतों में वृद्धि हुई थी तब भी ऐसे ही परिणाम निकले थे । अमेरिका को कुल मकई / ज्वार उत्पादन का २५ प्रतिशत व मक्का का २० प्रतिशत सिर्फ बायोइंर्धन के उत्पादन में लग रहा है। अमेरिका अगले १५ वर्षो में इस उत्पादन मेंं दुगने से अधिक की वृद्धि चाह रहा है । इसके परिणाम स्वरुप खाद्य पदार्थो के मूल्यों में वृद्धि चाह रहा है । इसके परिणाम स्वरुप खाद्य पदार्थो के मूल्यों में वृद्धि तो होगी ही । विश्वबैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार एक मध्य आकार के वाहन में एक बार में जितना इथनाल भरा जाता है । वह एक व्यक्ति के साल भर के भोजन के लिए पर्याप्त् होता है । यूरोप के पर्यावरण आयुक्त स्टाव्रोज डिमास ने स्वीकार किया है कि यूरोपीयन युनियन द्वारा सन् २०२० तक `ग्रीन इंर्धन' की १० प्रतिशत की अनिवार्यता खाद्य पदार्थो की कमी एवं वर्षा वनों की समािप्त् से उत्पन्न होने वाले खतरों को कमतर आकना ही है । भारत भी इस ओर तेजी से कदम बढ़ाने की फिराक में है । गत् अक्टूबर में भारत सरकार ने तय किया है कि अगले वर्ष से पेट्रोल मे १० प्रतिशत इथनाल अनिवार्य रूप से मिलाया जाए । यह वर्तमान से दुगना होगा । इसके लिए भारत को गन्ने का १६ प्रतिशत अतिरिक्त उत्पादन करना होगा । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रवीण झा का कहना है कि ``हमें बायोइंर्धन उत्पादन की लागत को समझना चाहिए । बायोइंर्धन संयंत्र के लिए न केवल हम खनिज इंर्धन का अतिरिक्त प्रयोग करेंगे बल्कि जंगलों और मैदानी इलाकों की सफाई कर बायोइंर्धन फसल उगाएंगे ।'' दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को भी महसूस किया जाने लगा है । हाल ही प्रकाशित रिपोर्टो के अनुसार मध्यपूर्व व उत्तरी अफ्रीका में बढ़ते तापमान से कृषि को नुकसान पहुंचने लगा है । साथ ही मांस व अन्य डेयरी उत्पादों की मांग में असाधारण वृद्धि ने भी खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की है । एफ.ए.ओ. का अनुमान है कि अमेरिका, ब्राजील और मेक्सिको में मोटे अनाज के उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि बायोइंर्धन एवं चारे की जरूरत की वजह से की गई है। युगांडा, अंगोला और मोजाम्बिक जैसे उच्च् आर्थिक विकास वाले अफ्रीकी देश भी अब अपने भोजन में चावल को प्राथमिकता देने लगे हैं क्योंकि इसको पकाना आसान है एवं घरेलू उत्पादन के बजाए इसका आयात भी आसान है । क्या भारत बढ़ती वैश्विक खाद्य मूल्यों से स्वयं को सुरक्षित रख पाएगा ? इसका कोई निश्चित या सर्वमान्य उत्तर दे पाना संभव नहीं है । कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस वृद्धि पर आगामी तीन महीनों में रोक लग सकती है वहीं कुछ मानते हैं कि यह प्रवृत्ति लंबे समय तक बनी रह सकती है । कृषि मंत्रालय का अनुमान है कि रबी के मौसम में ७६ मिलियन टन गेहूँ का उत्पादन होगा वहीं दिल्ली स्थित इंस्टि्टयूट ऑफ इकोनॉमिकल ग्रोथ का मानना है कि देश में अधिकतम ७३ मिलियन टन गेहँू का उत्पादन हो सकता है । कृषि लागत व मूल्य आयोग ने चेतावनी दी है कि २००८-०९ में आवश्यक वस्तुआें के मूल्यों में व्यापक बढ़ोत्तरी होगी । साथ ही उसने इनकी आपूर्ति के प्रति भी शंका जाहिर की है । प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन का कहना है कि मांग और आपूर्ति के अलावा कई अन्य घटक जैसे खनिज तेल के मूल्यों में वृद्धि आदि भी खाद्यान्न मूल्य वृद्धि में सहायक है । कृषि में वैसे भी ऊर्जा का काफी उपयोग होता है । साथ ही खनिज तेल कीमतें ११० डालर प्रति बैरल पहुंचने से कृषि में प्रयुक्त होने वाले उत्पाद जैसे रासायनिक खाद व कीटनाशक भी महंगे हो जाएंगे । भारतीय उपभोक्ता द्वारा बढ़ती कीमतों से अधिक चुभन महसूस न किए जाने के पीछे यह कारण है कि यहां पर कीमतों को सब्सिडी के द्वारा नियंत्रण में रखा जाता है । इस क्रम में खाद्यान्न सब्सिडी जो कि २००६-०७ में २४ हजार करोड़ रूपए थी वह वर्तमान में बढ़कर ३१ हजार करोड़ रूपए तक पहुंच गई है । ऐसा ही खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी पर भी हुआ है । सब्सिडी के अलावा इसका एक अन्य कारण यह भी है कि हम धान और गेहँू दोनों ही उपजाते हैं इससे भी कीमतों को काबू में रखने में मदद मिलती है । हम हमारी घरेलू आवश्यकता का ९० से ९५ प्रतिशत तक स्वयं ही पैदा करते हैं इसलिए हमारा आयात भी कम है जिसे हम अधिक दरों पर भी खरीद सकते हैं । इंस्टि्टयूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ, दिल्ली के सी.एस.सी. शेखर का कहना है कि `निजी क्रेताआें द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक पर खाद्यान्न खरीद लेने के परिणामस्वरूप सरकार के पास इनके आयात के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं बचता हैं । आवश्यकता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीदी मूल्य को अलग-अलग किया जाए । सरकार को किसानों से बाजार मूल्य पर खाद्यान्न खरीदना चाहिए ।' वहीं एम.एस. स्वामीनाथन का कहना है कि कीटनाशक, खाद, बिजली इत्यादि जैसे विभिन्न कारकों के मूल्यांकन के पश्चात १५ प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य निकाला जाता है जबकि यह कम से कम ५० प्रतिशत होना चाहिए । किसानों के राष्ट्रीय आयोग ने भी आयात कम करने के लिए किसानों को आकर्षक प्रस्ताव देने को कहा है । कीमतों को काबू में रखने के लिए भारत सरकार को बहुत शीघ्रता से खाद्यान्नों की खरीद करना होगी । यह भी कहा जा रहा है कि यदि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय बाजार से १० से २० लाख टन खाद्यान्न खरीद लिया तो कीमतों में और भी उछाल आएगा । ठंड में तिलहनों के उत्पादन में कमी ने चिंता और भी बढ़ा दी है । क्योंकि खाद्य तेल के भाव बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं । वित्तमंत्री ने राज्यसभा को यह आश्वासन दिया है कि वे अपने तई मुद्रास्फीति को रोकने का पूरा प्रयत्न करेंगे जिससे कि गरीबों पर इसकी मार न पड़े। इस क्रम में खाद्य तेल के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । साथ ही गेहँू और चावल के निर्यात पर काफी हद तक रोक लगा दी है । इसी के साथ खाद्य तेलों के आयात शुल्क में भी व्यापक कमी की गई है । कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि निर्यात पर एक अल्पकालिक उपाय है एवं किसान विरोधी भी है । कृषि विशेषज्ञ स्वामीनाथन का कहना है कि पूर्वी भारत में अभी भी काफी संभावनाएं हैं । किसानों के लिए सही तकनीक, एक से अधिक फसल होने का प्रशिक्षण एवं सरकारी योजनाआें का लाभ लेना आवश्यक है ।***

४ विरासत

कहानी कहते पत्थर
सुश्री नंदिता छिब्बर
मध्यप्रदेश के मुरैना जिले की चंबल घाटी में स्थित पुरातन मंदिर श्रृंखला के अवशेषों तक पहुंचने पर भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीक्षक के.के. मुहम्मद ने एक आदमी को वहां धूम्रपान करते पाया तो उन्हें बड़ा धक्का लगा । रोकने पर उस आदमी ने रूखे स्वर में कहा सदियों से ये मंदिर हमारे रहे हैं और यहां हमारी मर्जी चलती है । उनके सहायक ने सलाह दी कि यह आदमी कुख्यात डकैत निर्भय सिंह गुर्जर हैं अत: हमें किसी तरह का झंझट मोल नहीं लेना चाहिए । श्री मुहम्म्द के लिए तो यह एक अच्छा मौका था उन्होंने गुर्जर से कहा देखों हमें पुलिस या उसके मुखबिर मत समझो । हम भारतीय पुरातत्व विभाग से आए हैं और इस मंदिर श्रृंखला का जीर्णोद्धार करना चाहते हैं । काफी समझाने पर गुर्जर मान गया और उसने जीर्णोद्धार के लिए सहमति और सहयोग का आश्वासन भी दिया । बटेश्वर मंदिर के ये पुरावशेष डकैतों के लिए पीढ़ियों से छुपने का स्थान रहे हैं । पुरातत्व विभाग द्वारा सन् १९२० में ही इसे सुरक्षित स्थान घोषित किया जा चुका था । किंतु जीर्णोद्धार की शुरूआत जनवरी २००५ में जाकर हो पाई । इससे पहले के सभी प्रयास डकैतों ने निष्फल कर लिए थे । लेकिन मुहम्मद का मानना है कि डकैतों की वजह से इस जगह को एक तरह से संरक्षण ही मिला और महत्वपूर्ण चीजें इधर-उधर न होने से बच गई । एक समय इन्हें भूतेश्वर मंदिर भी कहा जाता था । पुरा विभाग के अनुसार आठवीं सदी में बने इन मंदिरों मंे से ज्यादातर शिव मंदिर हैं । इसके अवशेष चम्बल नदी के नजदीक लगभग एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं । इन मंदिरों के खंडित होने के बारे में विभाग के पास दो तर्क हैं एक तो यह कि ये प्राकृतिक आपदा से क्षतिग्रस्त हुए और दूसरे कि चम्बल नदी ने अपना रूख बदला इस वजह से इसका कुछ हिस्सा डूब में आ गया । लेकिन वस्तुत: विभाग के पास दोनों ही तर्को के पक्ष में कोई ठोस सबूत नहीं है । सन् २००५ में जीर्णोद्धार शुरू करते समय माना जा रहा था कि यहां १०८ मंदिर थे लेकिन खुदाई करने पर पुराविदों को पता चला कि यहां लगभग ३०० से ४०० मंदिर मौजूद रहे होंगे । एक-एक मंदिर को फिर से ठीक हपने वाली शक्ल देना किसी (जिग-सा) पहले को हल करने जैसा ही था, मुहम्मद का कहना था फिर हमारे पास कोई पुराना नक्शा या चित्र भी नहीं था इसलिए हर पत्थर को नक्काशी के आधार पर ही फिर जोड़ा गया । उन्होंने आगे बताया कि इस तरह से एक-एक पत्थर ढूंढ-ढूंढकर जोड़ना बहुत श्रमसाध्य कार्य था लेकिन पुराविदों का मानना है कि इसके बावजूद किसी एक मंदिर का पत्थर दूसरे में लग जाने की संभावना बिल्कुल नहीं है । डकैतों ने भी जीर्णोद्धार के दौरान न सिर्फ परहेदारी की बल्कि कभी-कभी तो काम में भी हाथ बंटाया । उन्हीं की वजह से खनन माफिया भी कोई हरकत नहीं कर पाया । लेकिन ऐसा नवम्बर २००६ तक ही चल पाया क्योंकि तभी उत्तरप्रदेश की स्पेशल फोर्स ने गुर्जर को मार गिराया। इसके बाद बलुआ पत्थर के अवैध उत्खनन का काम पुन: शुरू हो गया (एक सरकारी आकलन के आकलन के अनुसार इस अवैध कारोबार का आकार १००० करोड़ रूपए का है) उत्खनन के धमाकों की वजह से पैदा कंपन से नवनिर्मित मंदिरों को बहुत क्षति पहुुंची । चिंचित श्री मुहम्मद ने मध्यप्रदेश की तत्कालीन पर्यटन मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया को जानकारी दी तो उन्होंने खनन पर तत्काल रोक लगवाई। परंतु कुछ समय में इन खनन माफियों को फिर से मौका मिल गया । श्री मुहम्मद ने पुन: राज्य के खनिज मंत्री, जिला कलेक्टर एवं राज्य के पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री से रोक की गुहाई लगाई लेकिन खनन माफिया अपने धन और बाहुबल के दम पर सन् २००७ में पूरे वर्ष पुरातत्व विभाग को रोके रखने में सफल रहा । अंत में हताश होकर श्री मुहम्मद ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख के.सी. सुदर्शन के यहां गुहार लगाई । इसका अपेक्षित परिणाम भी मिला, राज्य सरकार ने क्षेत्र में अवैध खनन रूकवा दिया । पुरातत्व विभाग ने अपने मुख्यालय को जीर्णोद्धार कार्य के बारे में शुरूआत से लेकर वर्तमान तक की स्थिति की विस्तृत रपट भेजी जो केन्द्रीय पर्यटन मंत्री अम्बिका सोनी के समक्ष भी रखी गई । श्रीमती सोनी ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को यह कहते हुए एक पत्र लिखा कि आपको बटेश्वर मंदिर श्रृंखला इलाके में चल रहे अवैध उत्खनन के बारे में जानकारी है साथ ही साथ आपको यह भी ज्ञात है कि इसकी वजह से मंदिरों को नुकसान पहुंच रहा है । इस बारे में राज्य सरकार को इसके सचिव, कलेक्टर और पुलिस विभाग के माध्मय से बार-बार सूचित करने के बावजूद उत्खनन जारी है । श्रीमती यशोधरा राजे हालांकि एक बार इसे कुछ समय के लिए बंद करवा चुकी हैं लेकिन यह पुन: प्रारंभ हो गया । पुरातत्व विभाग की ओर से उत्खनन माफिया द्वारा बाहुबल के इस्तेमाल की शिकायतें प्राप्त् हुई हैं । अब तक बटेश्वर मंदिर श्रृंखला के पच्चीस मंदिरों का पुननिर्माण सम्पन्न हो चुका है । इसमें सरकार को चालीस लाख रूपये की लागत आई है । पुरातत्व विभाग १०८ मंदिरों के जीर्णोद्धार की मंशा रखता है किंतु इसमें धन की कमी आड़े आ रही है । भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने क्षेत्र में आधारभूत सुविधाआें हेतु २ करोड़ रूपए मंजूर किए हैं । श्री मुहम्मद ने मंत्रालय के विशेष पर्यटन कोष से एक करोड़ रूपए की अतिरिक्त मांग की है । पुरातत्व विभाग के अधिकारियों का अनुमान है कि कार्य पूरी तरह समाप्त् करने में अभी पांच वर्ष और लगेंगे । पुरातन मंदिरों के जीर्णोद्धार मुहम्मद इन मंदिरों को दिल्ली, आगरा, ग्वालियर पर्यटन मानचित्र में एक महत्वपूर्ण तीर्थ पर्यटन स्थल के रूप में देखते हैं । ***

५ जीव जगत

पालतू पशु जो अब जंगली बन चुके हैं
बिमल श्रीवास्तव
कल्पना कीजिए कि आपका पालतू कुत्ता यदि भाग कर जंगलों में चला जाए और वहीं पर स्वछंद रूप से रहना आरंभ कर दे, तो क्या होगा ? संभवत: कई पीढ़ियां गुजर जाने के बाद उस कुत्ते की जो संताने पैदा होंगी, उनका नाता मानव से पूर्ण रूप से टूट जाएगा । अब यदि यही सिलसिला कुछ सौ वर्षो या और भी अधिक समय तक चलता रहे, तो हो सकता है कि कुछ समय पश्चात एक पालतू कुत्ते के बजाय वहां एक जंगली कुत्ते की प्रजाति उत्पन्न हो जाए । उसका रंग, रूप, डील-डौल, कद-काठी सामान्य कुत्तों से बिल्कुल भिन्न होगी । और हो सकता है कि वह शिकार के लिए मानव पर आक्रमण करने से भी ना कतराए । ऐसे पशु जो पहले पालतू थे और अब जंगली बन चुके हैं, उन्हें वन्य पशुआें -या अर्ध वन्य पशु) की श्रेणी में रखा जाता है । इन्हें अंग्रेजी में फेरलकहा जाता है । फेरल शब्द लैटिन के फेरा शब्द से बना है । अर्थ है वन्य पशु । उल्लेखनीय है कि ये फेरल पशु उन आवारा किस्म के पशुआें से भिन्न होते हैं, जो शहरों में लावारिस घूते नजर आते हैं । जैसे भारत के सांड या गलियों में रहने वाले लावारिस कुत्ते फेरल पशुआें की श्रेणी में नहीं आते हैं । वे पशु भी इस श्रेणी में नहीं आते हैं जो सदैव से ही जंगलों में थे और कभी भी पालतू नहीं बनाए गए, जैसे हमारे देश के जंगली कुत्ते। इस प्रकार के फेरल पशुआें के कुछ उदाहरण है, उत्तरी अमरीका का जंगली धोड़ा मुस्तांग, ऑस्ट्रेलिया का जंगली कुत्ता डिंगो, ऑस्ट्रेलिया के जंगली ऊंट, न्यूजीलैंड के जंगली सुअर इत्यादि । उत्तरी अमरीका का जंगली घोड़ा मुस्तांग सदियों पहले स्पेनिश यात्रियों द्वारा अमरीका लाया गया था । ऐसे अनेकों घोड़े जब अपने मालिकों द्वारा त्याग दिए गए, तो वे स्वतंत्र वन्य जीवन बिताने लगे । वे शारीरिक तौर से अति बलशाली व आकर्षक बन गए । वर्ष १९७१ में अमरीकी सरकार ने इन्हें ऐतिहासिक प्रतीक के रूप में मान्यता दे दी जिसके कारण इन्हें संरक्षण भी मिल गया । ऑस्ट्रेलिया का जंगली कुत्ता डिंगो (केनिस लुपस डिंगो) भी इसी प्रकार का फेरल पशु है । इसे लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व यूरोप के यात्री उस महाद्वीप में लाए थे । जब इन पालतू कुत्तों को वहां छोड़ दिया गया और वे जंगली बन गए । इन्हें डिंगो नाम दिया गया । धीरे-धीरे ये पूरे ऑस्ट्रेलिया में फैल गए । एक अन्य मान्यता के अनुसार डिंगो लगभग १५,००० वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के आदिम निवासियों द्वारा लाए गए थे । कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि इन्हें एशियाई नाविकों द्वारा ४-५ हजार वर्ष पूर्व यहां लाया गया था । डिंगो अधिकतर लाल, भूरे या सुनहरे-पीले रंग के होते हैं तथा देखने में कुत्ते जैसे लगते हैं । ये भौंक नहीं सकते है, लेकिन कुत्तों की रोने वाली आवाज निकाल सकते हैं । ये अपना शिकार प्राय: रात के समय करते हैं । इनके शिकारों में चूहे, गिलहरियां व खरगोश से लेकर भेड़ व कंगारू तक होते हैं । इनकी शिकार की आदतों के कारण अनेक ऑस्ट्रेलियावासी इन्हें अपना शत्रु समझते हैं । वे उनकी भेड़ों तथा दूसरे पालतू पशुआें को उठा ले जाते हैं । इनसे सुरक्षा के उद्देश्य से दक्षिण पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में वर्ष १८८० में ८५०० किलोमीटर लंबी कंटीली बाड़ का निर्माण चालू किया गया था । यद्यपि यह बाढ़ लगभग आधी ही बन पाई थी, किंतु फिर भी इस योजना से काफी बचाव किया जा सका है । इसी प्रकार से आम तौर पर पाया जाने वाला एक अन्य फेरल पशु बिल्ली है । वैसे तो कोई भी घरेलू बिल्ली घर से बाहर निकल जाने के बाद वन्य पशु मानी जा सकती है । किन्तु वास्तविक रूप से फेरल पशु की श्रेणी में बिल्लियां आती हैं, जो जंगलों या सुदूर पहाड़ियों पर रहती हैं तथा शिकार द्वारा जीवन निर्वाह करती है । इसी प्रकार के फेरल पशुआें में जंगली सुअर, जंगली भेड़, जंगली भैंस, जंगली गधे, खरगोश आदि शामिल हैं, जो पालतू वातावरण से निकल जाने के बाद जंगली बन चुके हैं । इसके अलावा फार्म की पालतू मछलियां तथा पालतू पक्षी (जैसे कबूतर, मुर्गे) आदि भी फेरल जीवों की श्रेणी में आते हैं । (वैसे कुछ सीमा तक जंगली पेड़-पौधे, खरपतवार आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं ।) हमारे देश में भी कुछ ऐसे स्थल हैं जहां पर इस प्रकार के फेरल पशु पाए जाते हैं । सबसे पहले तो उड़ीसा के हीराकुण्ड जलाशय के निकट संबलपुर से लगभग ९० किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुमारबंध गांव में ऐसे पशुआें की बस्ती है, जो एक पहाड़ की चोटी पर स्थित है । यदि हीराकुण्ड बांध से नौका द्वारा यात्रा की जाए तो यह स्थान केवल १० किलोमीटर की दूरी पर है । वास्तव में जब हीराकुण्ड जलाशय का निर्माण हुआ था तो गांव खाली करते समय अनेक ग्रामवासियों ने अपने गाय-बैलों को वहीं छोड़ दिया था । चारों तरफ जल भर जाने के कारण ये पशु पहाड़ी पर ऊपर की ओर चले गए और उस टापूनुमा पहाड़ी का एक छत्र राज हो गया । ये गाय-बैल अधिकतर सफेद रंग के हैं तथा अत्यंत चौकन्ने, तेज और ताकत वाले हैं । यह जगह अब एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल बन चुकी है । यहां अनेक पर्यटक केवल इन पशुआें को देखने के लिए आते हैं । एक अन्य प्रसिद्ध स्थान अंडमान निकोबार के बैरन द्वीप में स्थित है । बैरन द्वीप अंडमान की राजधानी पोर्ट ब्लेयर से लगभग १३५ किलोमीटर पूर्व में स्थित है । यह ऐसी जगह है जहां देश का एकमात्र ज्वालामुखी स्थित है । इस वीरान द्वीप पर पशु-पक्षी नहीं पाए जाते हैं सिर्फ कुछ जंगली बकरियों को छोड़कर । ये बकरियां यहां कब और कैसे आई इस बारे में ठीक पता नहीं चल पाया है । ऐसा माना जाता है कि वर्ष १८९१ में इन बकरियों को कोई स्टीमर इस द्वीप पर छोड़कर चला गया था तब से ये यहां जंगली जीवन व्यतीत कर रही हैं । ये बकरीयां काले या भूरे रंग की हैं और इनकी कद-काठी काफी कुछ सामान्य बकरियों जैसी है । मगर सबसे रहस्यमयी पहेली तो यह है कि ये बकरियां बगैर पानी के अपना काम कैसे चला रही हैं क्योंकि बैरन द्वीप पर ताजा पानी उपलब्ध ही नहीं है । इस संबंध में पहले कुछ वैज्ञानिकोंका अनुमान था कि संभवत: ये समुद्र का खारा पानी पीती हैं । वैसे अब कुछ दूसरे वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि ये बकरियां कुछ विशेष प्रकार के पेड़ों (जैसे जंगली जामुन) की पत्तियां खाकर पानी की कमी को पूरा कर लेती हैं । अब कुछ वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि बैरन द्वीप में एक-दो स्थानों पर ताजे पानी के सोते हैं । उसी से ये बकरियां अपनी जलापूर्ति कर लेती हैं । फेरल पशुआें से लाभ व हानि दोनों ही होती हैं । वैसे हानि ही ज्यादा है हालांकि फेरल पशुआें से कुछ लाभ भी उठाए जाते हैं। उदाहरण के लिए कुछ देशों में भोजन प्रािप्त् के प्रयोजन से इन पशुआें का शिकार किया जाता है (पापुआ न्यू गिनी, अफ्रीका आदि देशों में जंगली सुअर का शिकार), कभी-कभी इन पर वैज्ञानिक प्रयोग भी किए जाते हैं । किंतु जहां तक हानि का सवाल है वह तो प्रत्यक्ष रूप से नजर आ जाती है । सबसे पहले तो फेरल पशु प्राय: स्थानीय जीव जंतुआें व पेड़-पौधों पर आक्रमण करके उन्हें क्षति पहुंचाते हैं तथा कभी-कभी तो उन्हें पूरी तरह से नष्ट ही कर देते हैं । इसके अलावा ये फेरल पशु स्थानीय जीवों के संसर्ग द्वारा हानिकारक या कमजोर वर्णसंकर प्रजातियां भी उत्पन्न करते हैं । कुछ मामलों में तो इन फेरल पशुआें से स्थानीय पशुआें में अनेक बीमारियां भी फैलती हैं । फेरल पशुआें द्वारा चारागाहों का नुकसान होता है तथा पालतू पशुआें के लिए भोजन की कमी भी पैदा होती है । माना जाता है कि वर्षो पूर्व समुद्री जहाजों के नाविक जब किसी सुदूर द्वीप पर डेरा डालते थे, तो उनके जहाजों से कुछ चूहे और बिल्लियां आदि भी कभी-कभी उन द्वीपों पर छूट जाते थे और वहीं बस जाते थे । इन चूहों, बिल्लियों और अन्य जीव-जंतुआें ने स्थानीय पर्यावरण को बहुत हानि पहुंचाई है । फेरल चूहों, बिल्लियों आदि पर रोक के अनेक प्रयास किए जा रहे हैं । न्यूजीलैंड के लिटिल बैरियर द्वीप में वर्ष १९८० में इन फेरल बिल्लियों का सफाया करने का प्रयास किया गया था । इससे सीगल जैसे कुक्स पेट्रेल नामक पक्षियों की मृत्यु दर तीन में एक से घट कर दस में एक हो गई । इसी आधार पर न्यूजीलैंड ने मार्च २००८ में अपने स्टेवर्ट द्वीप में चूहों, बल्लियों तथा पोरम पर नियंत्रण के लिए ३.५ करोड़ डालर खर्च करने की योजना तैयार की है । इसी प्रकार वर्ष २००७ में ऑस्ट्रेलिया के मेक्वैयर द्वीप में चूहों, बिल्लियों तथा खरगोशों पर नियंत्रण के लिए १.६५ करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर खर्च करने की योजना लागू की गई है । अमरीका के हवाई द्वीप समूह के द्वीपों में अनुमान के अनुसार लगभग ८०,००० फेरल सुअर घूम रहे हैं जो स्थानीय जीव-जंतुआें को भयंकर हानि पहुंचा रहे हैं । इनमें शिकार द्वारा प्रति वर्ष लगभग १०,००० सुअर समाप्त् कर दिए जाते हैं, फिर भी इनकी संख्या बढ़ती जा रही है । सरकार प्रयास कर रही है कि अन्य साधनों द्वारा इन पर अधिक से अधिक नियंत्रण किया जा सके । ***

६ आवरण कथा

खतरे में है कोरल भित्ति
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
कोरल, प्रवाल या मंूगे को अधिकांशत: आभूषण के रूप में ही जाना जाता है और लोगों को इसे खनिज समझने के लिए माफ करना ही उचित होगा । उन्हें भी माफ किया जा सकता है जो कोरल को प्राकृतिक रूप में देखकर पौधा समझ बैठते हैं । वास्तव में सन् १७२३ तक तो इसे पौधा ही माना जाता था । आगे चलकर फ्रांसीसी वैज्ञानिक जीन-एण्ड्रे पैसोनेल ने यह स्पष्ट किया कि यह छोटे-छोटे प्राणियों का कैल्शियम आधारित आवास है । कोरल दरअसल छोटी-छोटी रचनाआें-पॉलिप- के बने होते हैं जो एक खनिजयुक्त पदार्थ का स्त्राव करते हैं। इस पदार्थ से ऐसी कंकालीय रचनाएं तैयार होती है जिनमें पॉलिप रहते हैं और प्रजनन करते हैं । नए पैदा हुए पॉलिप इसी कंकाल के ऊपर अपना घर बनाते जाते हैं और धीरे-धीरे यह बढ़ता जाता है व खूबसूरत आकार ले लेता है । बढ़ते-बढ़ते यह एक दीवार यानी भित्ति या टीले का रूप ले लेता है । इसी को कोरल भित्ति कहते हैं । वैसे तो कोरल भित्तियां सभी ऊष्ण कटिबंधीय समुद्रों में पाई जाती है लेकिन हिन्द प्रशांत क्षेत्र में ज्यादा पाई जाती हैं । ये मुख्यत: अफ्रीका के पूर्वी तटों, मध्य अमेरिका, दक्षिण पूर्वी एशिया व ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्वी तटों पर पाई जाती हैं । प्रशांत सागर को प्रवाल सागर भी कहा जाता है । कोरल नरम व कठोर दोनों प्रकार के होते हैं । कोरल भित्ति बनाने का कार्य वास्तविक हार्नी कोरल के अलावा दो अन्य समूह भी करते हैं । ये कठोर कोरल सीलेन्ट्रेटा समुदाय के वर्ग हाइड्रोजाआ के सदस्य है । इनका कंकाल गुलाबी या जामुनी रंग का होता हे । इनका एक श्वेत वर्णीय सदस्य मिलियोपोरा जिसे डंक मारने वाला कोरल भी कहते हैं, कोरल भित्ति का मुख्य घटक है । नरम कोरलों में लाल ऑर्गन-पाइप कोरल ट्यूबीपोरा व नीला हेलियोपोस आदि शामिल है । वैसे तो वास्तविक कोरल को अनेक कुलों में बांटा गया है लेकिन महत्वपूर्ण वर्गीकरण अभित्तिकारी व भित्तिकारी कोरल का है । भित्तिकारी कोरल गर्म पानी में ही पनपते हैं व ८५ मीटर से ज्यादा गहराई पर नहीं पाए जाते क्योंकि इसके नीचे तापमान बहुत कम हो जाते है । दूसरी ओर अभित्रिकारी कोरल पूरे विश्व के समुद्रों में व हर गहराई पर पाए जाते है । सामान्यत: भित्तिकारी कोरल का कंकाल बड़ा व पॉलिस सदस्यों का घनत्व ज्यादा होता है अन्य कोई प्रकार अंतर नहीं होता। और तो और, एक ही कुल के कुछ सदस्य भित्तिकारी होते है व कुछ अभित्तिकारी । मददगार वनस्पतियां :- भित्तिकारी व अभित्तिकारी कोरलों के ऊतकोंके बीच एक-कोशिकीय, भूरे रंग की गोलाकार वनस्पति पाई जाती है, जिसे जू-एंथेली कहते है । कोरल और यें वनस्पति प्लवक एक दूसरे के लिए लाभकारी होते हैं । वनस्पति को कोरल से सुरक्षा के साथ-साथ अकार्बनिक पोषण व कार्बन हाईऑक्साइड व साथ में अमोनिया व फास्फेट आदि प्राप्त् होते है । दूसरी ओर यह स्पष्ट नहीं है कि कोरल के लिए वनस्पति का क्या महत्व है । वनस्पतिहीन कोरल्स का काम भी चल ही जाता है । कई वैज्ञानिक मानते हैं कि वनस्पति कोरल के लिए उत्सर्जी कार्य करती है । इसके अभाव में उत्सर्जीं पदार्थो का विसरण अच्छी तरह नहीं हो पाता । भित्तिकारी कोरल के कंकाल निर्माण की तीव्र गति को देखते हुए लगता है कि वनस्पतियां कोरल के लिए लाभकारी है । वनस्पतियोंकी प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के फलस्वरुप कोरल को अपने भीतर पर्याप्त् ऑक्सीजन उपलब्ध हो जाती है । इस प्रकार ये वनस्पतियां कोरल की किडनी ही नहीं वरन फेफड़ो का भी काम भी करती है । यह भी माना जाता है कि इन वनस्पतियों से कोरल को कुछ विटामिन व खनिज प्राप्त् होंगे । लगता है कि इन सहजीवी वनस्पतियों की उपस्थिति से कोरलों के लिए इतनी विशाल भित्तियां बनाना संभव हुआ होगा । वनस्पतियों के लिए प्रकाश आवश्यक है । यही वजह है भित्तियों का विकास प्रकाशमय पानी में ही संभव है । कैल्शियमयुक्त कोरल व अन्य भित्तिकारी कोरल प्राथमिक भित्ति के ढाचों का निर्माण करते है । आगे चलकर इनमें अन्य कोरल तथा कंकाल निर्माता जंतु आकर बसेरा कर लेते है । इनमें प्रोटोज़ोआ और विकसित जंतु शामिल हैं । निचले, शांत जल में कोरल प्रजतियां, खासकर अटलांटिक भित्तियों में सी-फैन या गार्गोनिया के बड़े जंगल होते है । जैव विविधता का भण्डार :- समुद्री जैव तंत्रो में सार्वधिक जैव विविधता कोरल भित्ति में ही पाई जाती है । भूरे, हरी एवं लाल कैल्शियमयुक्त समुद्री शैवाल भित्ति बनाने में मदद करती है । साथ ही ट्राइडेक्ना नामक विशाल सीप जैसे अकशेरुकी जीव और कंकालयुक्त फोरामिनाफोरा, प्रोटोजोआ भी यही कार्य करते है । ये भित्तियां चमकदार रंगीन मछलियां तो कोरलों का भक्षण करती है या अपने पैने दांतों से सतह को खुरचती है । कोरल भित्ति के पनपने में प्रकाश व तलछट की मात्रा बहुत महत्वपूर्ण कारक है । साथ ही भित्ति पर कोरलों के वितरण पर छाया व प्रकाश का प्रभाव पड़ता है। प्रकाशमय भाग में पाए जाने वाले कोरल स्थूल होते हैं । इनके आधारीय जोड़ चौड़े होते हैं जो निरन्तर आघात करती समुद्री लहरों को झेलने मेंं समर्थ होते है । नीचे के शांत, कम रोशन इलाके में पतले शाखादार कोरल होते है । दरअसल पानी की हलचल से कोरलों की वृद्धि प्रभावित होती है । यही वजह है कि सतह पर गोलाकार मोटे कोरल गहराई ने चपटे व संकरे हो जाते है क्योंकि रोशन व पादप क्रियाएं कम हो जाने से कैल्सिकरण कम हो पाता है । विश्व का आश्चर्य :- भित्तिय मुख्यत: झालरदार, बैरीयर व ऍटाल किस्म की होती हैं । झालरदार भित्तिय किनारों या चट्टानों अथवा ज्वालामुखी द्वीपों से आगे लटकी रहती है। इनकी लंबाई कुछ किलोमीटर से ज्यादा नहीं होती है । बैरीयर भित्ति ज़मीन से अवश्य जुड़ी होती है और करीब १६० कि.मी. तक लंबी हो सकती है । इनमें बीच में ६० मीटर तक की एक नाल होती है । सबसे प्रसिद्ध बैरीयर रीफ ऑस्टे्रलिया की ग्रेट बैरीयर रीफ है जो २१०० कि.मी. लंबी है और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट से न्यू गिनी के दक्षिणी तट तक फैली है । एटॉल समुद्र के बीच में होती है । यह सागर के पेंदे से शुरु होकर गोल या अंडाकार आक़ृति में विकसित होती है । ये खास तौर पर मध्य प्रशांत सागर में पाई जाती है । झालरदार भित्ति के निर्माण का रहस्य नही है । कोरल साथ के अन्य प्राणी उथले पानी में स्थापित होकर धीरे-धीरे पनपते जाते है व भित्ति समुद्र में आगे की ओर बढ़ती जाती है । लेकिन बैरीयर व एटॉल भित्ति की बात अलग है । डारविन ने अपनी यात्राआें (१८३२-३६) के दौरान पाया था कि जमीन धंस जाने या बढ़ती हुई भित्ति के पृथक हो जाने से झालरदार भित्ति में बदल सकती है । और यदि भित्ति किसी ज्वालामुखी द्वीप के चारोंओर बनी है तो द्वीप के निरन्तर नीचे धंसते जाने से द्वीप लुप्त् हो जाता है तब एटॉल का निर्माण होता है । कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार उथले किनारे तलछट जमने से ऊपर आ जाते है । एक मान्यता के अनुसार हिमयुग के दौरान इन हिस्सों में बर्फ जमने से महासागरों में जलस्तर नीचे हो गया था, जिसकी वजह से किनारे ऊंचे हो गए थे । बाद में जब समुद्र का जलस्तर बढ़ा तो ऐसी जगहों पर कोरल विकसित हुए । वर्तमान की सभी कोरल भित्तियां अंतिम हिमयुग के बाद ही बनी हैं । अमेरिका के आणविक उर्जा प्राधिकरण ने प्रशांत महासागर में ड्रिलिंग करके पता लगाया है कि डार्विन का सिद्धांत ही अनेक जगहों पर सही सिद्ध हो रहा है । करीब १३०० मीटर गहरे ज्वालामुखी द्वीप की कार्बन से पता चला है कि ये द्वीप इओसीन युग के हैं व करीब ५ करोड़ वर्ष पूर्व डूबे थे । कोरल पर खतरा :- जहां कोरल्स की करीब २५०० जीवित प्रजातियां हैं, वहीं ५००० प्रजातियां विलुप्त् हो चुकी हैं । अत: वैज्ञानिक शंका जता रहे हैं इन जन्तुआें का अस्तित्व घटता जा रहा है । वर्तमान में एक विशाल कांटेदार स्टार फिश से खतरा पैदा हो गया है जो जीवित कोरल खाने के लिए मशहूर है । लेकिन पहले इनकी संख्या बहुत ही कम होती थी। वह अभी तक समझ से बाहर है कि इनकी संख्या इतनी कैसे बढ़ रही है । लेकिन ये फिजी, गुआना व माइक्रोरेशिया के पास ग्रेट बैरीयर रीफ को धड़ल्ले से चट कर रही हैं । कोरल भित्तियां अनेको प्रकार से महत्वपूर्ण है । इनकी उपस्थिति से इनके नीचे पेट्रोलियम भण्डार होने के सूचना मिलती है । कुछ कोरल भित्तियां सजावटी उपयोग की होती है । कोरोलियम रुब्रम अति मूल्यवान कोरल है । भारत समेत अनेक देशों में यह महंगे रत्नों में शुमार किया गया है । कोरल भित्ति समुद्री तल के उतार-चढ़ाव को समझने में भी मदद करती है । ये तेल पर चिपककर समुद्री सतह तक ही वृद्धि करती है और जब कभी जल सतह ऊपर चढ़ती है तो रुकी हुई वृद्धि पुन: शुरु हो जाती है । इस प्रकार कोरल भित्ति में एक के ऊपर एक जमी हुई पॉलिपा की अलग-अलग पीढ़ियों की मदद से भित्ति के आयु निकाली गई है जिससे हिमयुग के बाद की अनेेक समुद्रीय व स्थलीय जानकारियां हासिल हुई हैं । ***

७ जीवन शैली

गोरेपन का गोरख धंधा
डॉ. अरविंद गुप्त्े
लंदन के हैमरस्मिथ अस्पताल में गंभीर रुप से बीमार एक अश्वेत महिला का विवरण पिछले दिनों प्रकाशित हुआ था । किसी का गंभीर रुप से बीमार होना अपने आप में समाचार नहीं बनता, किन्तु इस महिला की बीमारी विशेष प्रकार की थी । उसकी त्वचा पर गहरे और हल्के रंग के चकत्ते उभर आए थे वह बहुत अधिक मोटापे से ग्रस्त हो गई थी और मासिक धर्म नियमित होने के बावजूद वह गर्भ धारण नहीं कर पा रही थी । पहले तो डॉक्टरों को शक हुआ कि ये लक्षण एड्रीनल ग्रंथि या पिट्यूटरी ग्रंथि की किसी बीमारी के कारण दिखाई दे रहे है । मगर परीक्षणों से पता चला कि उसकी इन ग्रंथियो में कोई खराबी नही थी काफी पुछताछ के बाद उस महिला ने बताया कि वह पिछले सात वर्षो से गोरेपन की एक क्रीम का बहुत अधिक इस्तेमाल कर रही थी । एक सप्तह में दो ट्यूब (६० ग्राम) क्रीम वह अपने पूरे शरीर पर मलती थी । इस क्रीम में क्लोबेटसॉल नामक एक कॉर्टिकोस्ट्ररॉअड था । इसका उपयोेग आम तौर पर एक्ज़िमा ओर सोरिएसिस नामक त्वचा की बीमारियों के उपचार में किया जाता है । हैमरस्मिथ अस्पताल के चिकित्सकोंने इस केस की जानकारी ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित की और डॉक्टरों से आग्रह किया कि ये गोरेपन की दवाईयों के खतरों के प्रति सचेत रहें। केवल इंग्लैण्ड में ही इन दवाइयों का व्यापार करोड़ों पाउंड का है । इस प्रकार की कई क्रीमों में पारा हाईड्रोक्निोन और स्टेरॉइड जैसे विषैले पदार्थ होते है, किन्तु आम जनता इन खतरोंसे अनभिज्ञ होती है। त्वचा के रंग को हल्का करने की दवाइयों के उपयोग की सलाह स्वयं डॉक्टरो द्वारा उन मरीजों को दो जाती है जिनकी त्वचा पर किन्ही कारणें से काले रंग के चकत्ते या दाग उभर आते हैं । एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के कई देशोंमें गोरेपन को सुंदरता का पर्याय मान लिया गया है । इन देशों में गोरेपन की दवाईयों की बिक्री धड़ल्ले से होती है । इन दवाइयों का प्रचार-प्रसार करते समय कई बार सामाजिक मूल्यों और सत्य की बलि भी चढ़ा दी जाती है । इस प्रकार के दुष्प्रचार का एक ज्वलंत उदाहरण कुछ समय पहले तक भारत में दिखाए जा रहे एक टीवी विज्ञापन का है । इसमेें यह दिखाया गया था कि सांवले रंग की एक लड़की साधारण नौकरी के चलते अपने बूढ़े बाप को कॉफी नहीं पिला पाती है और उसका बाप अपनी पत्नी से कहता है कि काश हमारे एक बेटा होता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता । बेटी अपने बाप की यह बात सुन लेती है । और उदास हो जाती है । तभी उनके कान में एक फुसफसाहट होती है (शायद भगवान इसी तरह लोगों को सलाह देते होंगे) कि तू फलानी क्रीम लगा कर गोरी बन जाएगी तो तेरे सारे दुख दूर हो जाएेंगे । लड़की तुरंत इस सलाह पर अमल करती है और आनन-फानन में गोरी हो जाती है । उसे बढ़िया नौकरी मिल जाती है और बाप को पीने के लिए कॉफी । देखिए, इस विज्ञापन के माध्यम से कौन-कौन से संदेश दिए जा रहे हैं। सबसे पहला यह कि यदि आपका रंग गोरा नहीं है तो आपको अच्छी नौकरी नहीं मिल सकती । दूसरे शब्दों में, आप सामाजिक दृष्टि से निचले दर्जे के व्यक्ति हैं । दूसरे, आप यदि गोरेपन की इस क्रीम को अपने चेहरे पर पोतेंगे तो आप कुछ ही दिनों में इतने गोरे हो जाएंगे कि आपको अच्छी नौकरी मिल जाएगी । तीसरे, बेटी की तुलना में बेटा माता-पिता की अधिक अच्छी देखभाल कर सकता है (चाहे वह कमाऊ हो या न हो), और अंत में माता-पिता अपनी संतान का मूल्यांकन इस आधार पर करते हैं कि वह उनकी छोटी-छोटी ख्वाहिशें पूरी कर सकती है या नहीं। इस संदर्भ में क्रीम निर्माता के प्रतिनिधि ने सफाई दी थी कि ``इस विज्ञापन का उद्देश्य यह दिखाना कतई नहीं था कि गोरापन सुंदरता का प्रतीक है । यह तो व्यक्ति के शिक्षा के स्तर और सामाजिक पृष्ठभूमि पर निर्भर है कि वह विज्ञापन का क्या मतलब निकालता है ।'' निर्माता का यह भी दावा है कि ``नब्बे प्रतिशत भारतीय महिलाएं गोरापन चाहती हैं और इसलिए गोरेपन की क्रीम से उनकी एक आकांक्षा पूरी होती है और उन्हें समाज में अधिक ऊंचा स्थान मिलता है ।'' मलेशिया में टीवी पर गोरेपन की क्रीम के एक विज्ञापन में यह दिखाया जाता था कि एक छात्र अपने साथ पढ़ने वाली आकर्षक किन्तु सांवले रंग की छात्रा के बारे में यह कहता है, ``वह दिखने में सुंदर तो है, लेकिन ...'' । जब वही छात्रा गोरेपन की क्रीम लगाकर गोरी हो जाती है । तब वह कहता है, ``मेरा ध्यान उसकी ओर क्यों नहीं गया ?'' कुछ निर्माताआें ने हाल में एक नया शगूफा छोड़ा है । उनका दावा है कि लड़कियों वाली गोरेपन की क्रीम लगाना मर्दोंा की शान के खिलाफ है । अत: उन्होंने मर्दोंा के लिए गोरेपन की अलग क्रीम बाजार में उतार दी है । ये दवाइयां किस प्रकार काम करती हैं यह जानने से पता चल जाएगा कि क्या महिलाआें और पुरूषों के लिए अलग-अलग क्रीम हो सकती है । मनुष्य की त्वचा की ऊपरी परतो में मेलानोसाइट नामक कोशिकाएं होती हैं । इन कोशिकाआें में मेलानोसोम नामक कण पाए जाते हैं जिनमें मेलानीन नामक काले रंग का पदार्थ भरा होता है । मेलानोसोम नामक काले रंग का पदार्थ भरा होता है। मेलानीन का काम है धूप में मौजूद घातक पराबैंगनी किरणों से शरीर की रक्षा करना । स्वाभाविक है कि संसार के जिन भागों में धूप अधिक तेज होती है वहां रहने वालों की त्वचा में अधिक मेलानीन पाया जाता है । इसके विपरीत, ठंडेे प्रदेशों में रहने वाले लोगों को कम मेलानीन की आवश्यकता होती है और उनका रंग गोरा होता है । शरीर में पाए जाने वाले टायरोसिन नामक अमीनो अम्ल को मेलानीन में बदलने का काम टायरोसिनेज नामक एन्जाइम करता है । गोरेपन की दवाइयों में पाए जाने वाले तत्व केवल मेलानोसोम्स को नष्ट ही नहीं करते, वे टायरोसिनेज की क्रिया को भी रोकते हैं । यानी मेलानीन के निर्माण की प्रक्रिया में अड़ंगा डालते हैं । किन्तु यह शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है । यदि मेलानीन नष्ट होता है तो सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणे शरीर को हानि पहुंचा सकती हैं और इनमें त्वचा कैंसर का खतरा बढ़ जाता है । यह सोचने की बात है कि क्या महिलाआें और पुरूषों मेंं मेलानीन निर्माण की प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है? आइए, अब देखें कि गोरेपन की दवाइयों में कौन से रसायन होते हैं । कई दवाईयों में मात्र सनस्क्रीनयानी वे रसायन होते हैं जो त्वचा को धूप से बचाते हैं । ये रसायन हानिरहित होते हैं । किन्तु कई दवाईयों में ऐसे रसायन होते हैं जो निश्चित रूप से हानिकारक होते हैं । गोरेपन की कुछ दवाइयों में मुलेठी के रस का उपयोग किया जाता है । संवेदनशील त्वचा के लिए यह सबसे अच्छा विकल्प है । किन्तु परिणाम उतने अच्छे नहीं होते जितने हानिकारक दवाआें के होते हैं। विटामिन सी यानी एस्कार्बिक एसिड को क्रीम या पावडर के रूप में त्वचा पर लगाने पर यह मेलानीन के निर्माण को रोकता है । आर्बुटिन कुछ विशेष प्रकार के फलों में पाया जाने वाला प्राकृतिक पदार्थ है । यह मेलानीन के निर्माण को रोकता है । अल्फा हाइड्रॉक्सी अम्ल ऐसे रसायनों का समूह है जो मेलानीन के निर्माण को रोकते हैं । ये बीमार और बदरंग मेलानोसाट कोशिकाआें को हटाते हैं । त्वचा रोग विशेषज्ञ इनका उपयोग त्वचा के धब्बे और कील-मुंहासे हटाने के लिए करते हैं। इनका उपयोग प्रशिक्षित डॉक्टरों की देखरेख में करना ही सुरक्षित होता है । सूखी और संवेदनशील त्वचा पर इन्हें लगाना हानिकारक हो सकता है । कोजिल अम्ल के प्रयोग से त्वचा का रंग हल्का होता है, किन्तु इसकी सुरक्षितता को लेकर सवाल उठते रहते हैं । जापान में चावल से साकी नामक शराब बनाई जाती है । इस प्रक्रिया में कोजिल अम्ल एक बाय-प्रोजेक्ट के रूप में बनता है । हाइड्रोक्विनोन, गोरेपन की दवाइयों में पाया वाला एक अत्याधिक हानिकारक रसायन है । कई देशो ने गोरेपन की ऐसी दवाइयों पर प्रतिबंध लगा दिया है जिनमें हाइड्रोक्विनोन और पारे का उपयोग किया जाता है । चूहों पर किए गए प्रयोगों से ऐसे संकेत मिले हैं कि हाइड्रोक्विनोन त्वचा का कैंसर पैदा कर सकता है, यद्यपि मनुष्य में इस प्रकार के प्रभाव की पुष्टि नही हुई है । अलबत्ता, यह साबित हो चुका है कि हाइड्रोक्विनोन के उपयोग से ओक्रोनोसिस नामक रोग हो जाता है जिसमें त्वचा पर काले और मोटे चकत्ते बन जाते हैं । डॉक्टरों को यह भी शक है कि हाइड्रोक्विनोन से लिवर और थायरॉयड ग्रंथि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । साथ ही, यह गर्भ में पल रहे और मां का दूध पी रहे बच्च्े के लिए भी हानिकारक है । शरीर में अधिक मात्रा में हाइड्रोक्विनोन प्रवेश करने पर मितली, सांस में रूकावट और सन्निपात जैसे लक्षण उभर सकते हैंै । इस लेख के आरंभ में एक महिला रोगी का विवरण दिया गया है जिसने स्टेरॉइड युक्त गोरेपन की क्रीम का उपयोग किया था । हालांकि स्टेरॉइड कुछ चर्म रोगों के इलाज में काफी फायदेमंद हैं, किन्तु इनके अत्यधिक उपयोग से कैंसर का खतरा हो सकता है । आजकल भारत में महिलाआें में, खासकर युवतियों में, बिना डॉक्टर की सलाह के स्टेरॉइड युक्त क्रीमों के उपयोग का चलन बढ़ता जा रहा है । साधारण कील-मुंहासों के लिए भी ऐसी दवाइयां अनियंत्रित मात्रा में प्रयोग की जाती है । लंबे समय तक इनका उपयोग बहुत खतरनाक हो सकता है । गोरेपन की दवाइयों में पाया जाने वाला सबसे खतरनाक रसायन पारा है । संसार के अधिकांश देश गोरेपन की पारायुक्त दवाइयों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं, किन्तु इनका चोरी-छिपे निर्माण और बिक्री बड़े पैमाने पर हो रहे हैं । पारा एक ऐसा घातक विष है जो तंत्रिका तंत्र को सीधे प्रभावित करता है । इसके कारण किडनी खराब हो जाने, सुनने व बोलने पर विपरीत प्रभाव पड़ने और पागलपन के दौरे पड़ने का खतरा होता है । भारत जैसे विकासशील देशों में जागरूकता के अभाव और भ्रष्टाचार के कारण किसी भी प्रकार की हानिकारक दवा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना लगभग असंभव होता है । यद्यपि दवाइयों पर उनमें शामिल अवयवों की जानकारी देना अनिवार्य है, किन्तु संभव है कि कई उत्पादक गोरेपन की दवाइयों के हानिकारक अवयवों की जानकारी छुपा लेते हैं । सबसे अच्छा उपाय यही है कि लोग जागरूक हो जाएं और विज्ञापनों के मायाजाल में उलझ कर अपने स्वास्थ्य को खतरे में न डालें । हमारे देश के अधिकांश भागों में लगभग पूरे वर्ष धूप उपलब्ध होती है । यह एक बड़ा वरदान हैं । धूप से बचाव के लिए अधिकांश भारतीयों को प्रकृति ने मेलानीन का कवच प्रदान किया है । यह प्राकृतिक सांवलापन कोई अभिशाप या लज्जा की बात नहीं है । दरअसल, कृत्रिम उपायों से मेलानीन को नष्ट करके गोरेपन का दिखावा करना एक भयंकर भूल है । विकासशील देशों पर लंबे समय तक गोरे लोगों का कब्जा रहा है । शायद इसीलिए इन देशों के निवासियों में यह भावना घर कर गई है कि गोरे लोग भूरे और काले रंग के लोगों से श्रेष्ठ होते हैं। किन्तु पिछले वर्षो में विकासशील देशों, विशेष रूप से एशियाई देशों, ने सभी क्षेत्रों में जिस प्रकार उन्नति की है उसने गोरी नस्ल के बेहतर होने का तिरस्कार करने का हमारे लिए कोई कारण ही नहीं है; आवश्यकता है अपनी मानसिकता को बदलने की । यदि गोरेपन की दवा का उपयोग करने के अलावा कोई चारा न हो तो बिना प्रशिक्षित डॉक्टर की सलाह से दवा न खरीदें ।***

८ पर्यावरण परिक्रमा

चीन में बनेगा पांडा प्रजनन केन्द्र
चीन के सिचुआन प्रांत में विश्व का सबसे बड़ा पांडा (द ग्रेट वाइट पांडा) प्रजनन केन्द्र बनने जा रहा है । ऐसा माना जा रहा है कि यह नया नेचर रिजर्व विश्व की इस अत्याधिक लुप्त्प्राय प्रजाति के २०० जीवों के लिए नया घर साबित होगा । उल्लेखनीय है कि ग्रेट वाइट पांडा दुनियाभर में पांडाआें की मिलने वाली प्रजातियों में से सबसे बड़ा है । वेलोंग नेचर रिजर्व के प्रमुख झांग हेमिन के अनुसार इस रिजर्व में कुल २० आउटडोर होम्स होंगे और २०,००० वर्ग मीटर का मैदान भी होगा । उल्लेखनीय है कि चीन दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहाँ पांडा पाया जाता है । वहाँ सिचुआन, गंसू और शांझी प्रांतों के नेचर रिजर्व में १६०० पांडा प्राकृतिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं । इसके अलावा २१७ पांडा वहाँ के चिड़ियाघरों में भी हैं । वोलोंगे नेचर रिजर्व कुल २००० वर्ग किमी में फैला हुआ है और चीन का पहला ऐसा रिजर्व है जो सिर्फ पांडाआें के लिए बनाया गया है । इस नेचर रिजर्व में साल के अंत तक १३० पांडाआें के प्रजनन कराने की योजना है । वैसे इन पांडाआें में से आठ पांडाआें को बीजिंग भेजा जाएगा जहाँ ओलिम्पिक खेलों के दौरान आने वाले पर्यटक इन्हें देख सकेंगे । चीन को विश्वास है कि ये पांडा पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षिक करेंगे ।
तंबाकू कंपनियों ने दिग्गजों को खरीदा था
यह जानी मानी बात है कि जब धूम्रपान के खतरे में स्पष्ट सामने आने लगे है, तो दुनिया की तंबाकू कंपनियों ने पैसा देकर ऐसे शोध करवाए थे कि धूम्रपान के खतरे कम दिखें । अब पता चला है कि तंबाकू कंपनियों ने कुछ दिग्गज बुद्धिजीवियों को धूम्रपान की वकालत करने के लिए भी पैसे दिए थे । लोगों के दिल-दिमाग पर असर डालने के लिए तंबाकू कंपनियों ने अर्थशास्त्रियों, दार्शनिकों और समाज वैज्ञानिकों का एक पूरा नेटवर्क तैयार किया था । हाल ही में उजागर हुए दस्तावेजों से पता चला है कि इस नेटवर्क के सदस्यों ने धूम्रपान के पक्ष में जोरदार अभियान छेड़ा था । कैलीफोर्निया विश्वविद्यलाय के विशेषज्ञों के साथ मिलकर इन दस्तावेजों का एक अध्ययन कोलरैडो की एन लैण्डमैन ने प्रकाशित किया है । उन्हें उक्त दस्तावेज लीगेसी टोबेको डाक्यूमेंट्स लायब्रेरी से प्राप्त् हुए । इस लायब्रेरी में तंबाकू उद्योग से संबंधित ८० लाख दस्तावेज संग्रहित हैं, जिन्हें हाल ही में सार्वजनिक किया गया है । दस्तावेजों से पता चलता है कि मनोवैज्ञानिक हैन्स आइसेन्क और दार्शनिक रॉजर सक्रटन इस नेटवर्क से निकटता से जुड़े थे । यह नेटवर्क १९७० के दशक में अस्तित्व में आया था । यही वह समय था जब धूम्रपान के खतरों पर व्यापक बहस छिड़ी हुई थी । दस्तावेज बताते हैं कि दुनिया की सात प्रमुख सिगरेट कंपनियों की एक बैठक १९७७ में हुई थी जहां `मिलकर काम करने का निर्णय लिया गया था । इन कंपनियों में फिलिप मॉरिस, ब्रिटिश अमेरिकन टोबेको और रॉथमैन्स शामिल थीं । इस अभियान में ऐसे अकादमिक लोगों को जोड़ा गया, जो तंबाकू पर प्रतिबंध के खिलाफ थे । जैसे कुछ अर्थ शास्त्रियों द्वारा यह सवाल उठवाया गया कि क्या धूम्रपान पर प्रतिबंध लगाने से कोई वित्तीय लाभ मिलेगा । इसी प्रकार से एक मानव वैज्ञानिक को जोड़ा गया जिसेन दलील दी कि धूम्रपान से लोग एक-दूसरे के करीब आते हैं । यानी धूम्रपान के सामाजिक फायदे हैं । इसी प्रकार से हैन्स आइसेन्क ने बताया कि तंबाकू से जुड़ी बीमारियां वास्तव में जिनेटिक कारणों से होती है । इन सारे मामलों में यह कभी नहीं बताया जाता था कि उक्त विचारों के प्रस्तुतीकरण का तंबाकू उद्योग से क्या संबंध है । जैसे १९८५ में एक किताब छपी थी स्मोकिंग एण्ड सोसायटी : टुवर्ड्स ए मोर बेलेंस्ड पर्स्पेक्टिव । यह पूरी तरह उद्योग द्वारा प्रायोजित थी मगर इसका जिक्र नहीं था । इसी प्रकार से १९९८ में रॉजर स्क्रटन ने दी टाइम्स में धूम्रपान के पक्ष में तर्क दिया था कि धूम्रपानी लोग स्वास्थ्य सेवाआें पर कम दबाव डालते हैं क्योंकि वे जल्दी मर जाते हैं । बाद में पता चला कि स्क्रटन को जापान टोबेको इंटरनेशनल से वार्षिक भुगतान प्राप्त् होता था । तंबाकू कंपनियों ने १९९० के दशक में ५० लाख डॉलर देकर एसोसिएशन फॉर रिसर्च इन्टु दी साइन्स ऑफ इन्जॉयमेंट की स्थापना करवाई । यह समूह स्वास्थ्य में `शुद्धतावाद' के खिलाफ प्रचार करता था ।
हिमांचल प्रदेश की केन्द्र सरकार से बंदर निर्यात की गुहार
हिमाचल प्रदेश की सरकार ने केंद्र सरकार से कहा है कि बंदरों के निर्यात को प्रतिबंध से तत्काल मुक्त किया जाए। फिलहाल हो यह रहा है कि हिमाचल में बंदरों की सेंना फसलों को खराब कर रही है । इससे सरकार, को खासा नुकसान हो रहा है । वन विभाग की ओर से केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखा गया है, जिसमें कहा गया है कि बंदरों के निर्यात पर पिछले ढाई दशक से लगे प्रतिबंध को समाप्त् किया जाए । वन विभाग के सूत्रों ने यह जानकारी दी दरअसल १९८२ में केन्द्र सरकार ने पशुआें के अधिकारों की आवाज उठाने वाले लोगो की बात मानते हुए बंदरो के निर्यात पर रोक लगा दी थी।तब से यह पूरे देश मेंलागू है । बंदरो का निर्यात अमेरिका और ब्रिटेन के लिए प्रतिबंधित किया गया है । दरअसल इन देशो में बंदरो पर प्रयोग किए जाते है, इसके लिए जमकर पैसा दिया जाता है । हिमाचल में अभी करीब ३.५ से ४ लाख बंदर मौजूद हैं । इसीलिए प्रदेश सरकार केंद्र सरकार से बार-बार निवेदन कर रही है कि वह अपने ढाई दशक पुराने फैसले पर फिर से सोचे । बंदरों के निर्यात की अनुमति के अलावा हिमाचल सरकार न इस समस्या से निपटने के लिए कई दूसरे प्रयास भी किए है । इसमें विशेष रुप से बागवानी और खेती करने वालों का सहयोग लिया जा रहा है । हिमाचल के वन मंत्रालय के मुताबिक वानरों द्वारा की जा रही उधम को रोकने के लिए गंभीर प्रयास जारी हैं। कई बार लेसर तकनीकी का भी इस्तेमाल किया जा रहा है ।
बांस की पूर्ण क्षमता के दोहन की मांग
बांस उत्पादन और बिक्री पर पिछले दिनोंनई दिल्ली में त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें इस असाधारण पौधे की क्षमता के दोहन की मांग की गई । इस सम्मेलन का उद्घाटन पर्यावरण एवं वन राज्यमंत्री एस रघुपति द्वारा किया गया। इस अवसर पर कृषि एवं सहयोग विभाग के सचिव, डा. पीके मिश्रा, डीए आरई के सचिव और आई सीए आर के महानिदेशक डा. मंगला राय और आईएनबीए आर (इंटरनेशनल नेटवर्क आन बप्अू, आईएनबीएबार) की महानिदेशक डा. जे कूस्जे हूगेन्दूर्न ने भी अपने वक्तव्य दिए । श्री रघुपति ने वनवासियों के जीवनयापन से सुुधार लाने और रोजगार उत्पन्न करने में बांस की अत्यधिक क्षमता के बारे में बताया । डा. मिश्रा ने पिछलने एक वर्ष में राष्ट्रीय बांस मिशन द्वारा की गई प्रगति का विस्तृत विवरण दिया । यह मिशन बांस उत्पादन में खासतौर पर पूर्वोतर में सफल रहा है और कुशल और अकुशल युवाआें के लिए रोजगार उत्पन्न करने मेंभी सफल रहा है । उन्होने कहा कि इस मिशन ने विभिन्न क्षेत्रों के लिए विशिष्ट रणनीतियों का विकास किया है । डा. मिश्रा ने यह भी कहा की बांस उत्पादन एवं संवर्द्धन के लिए बहुत देशों में संशोधित प्रौद्योगिकी उपलब्ध है और भारत इसका लाभ उठा सकता है । डी ए आर ई के सचिव और आईसीएआर के सचिव डा. मंगला राय ने जोर देते हुए कहा कि बांस उत्पादन पर्यावरण को मदद करता है । और बांस इस ग्रह पर सबसे तेज बढ़ने वाला पादप है और अवक्रमित भूमि को हरा-भरा करने के लिए सर्वोत्तम छतरी प्रदान करता है । डा. राय ने कहा कि बांस एक टिकाऊ प्राकृतिक संसाधन है और पूरे विश्व में २.२ बिलियन से अधिक लोगों को आमदनी, भोजन एवं आवास प्रदान करता है । डा. हूगेन्दूर्न ने विविधता के क्षय एवं सामुदायिक स्तर पर मानकीकरण एवं बांस संवर्धन में प्रशिक्षण के अभाव पर चिंता व्यक्त की । उन्होंने भारत समेत अनेक देशों में बांस उत्पादन द्वारा आमदनी बढ़ाने में सहयोग के उदाहरण दिए । इस सम्मेलन में ३५ देशों के वैज्ञानिक किसान उद्यमी, गैर सरकारी संगठन और राज्य सरकार के प्रतिनिधि ने भाग लिया । इम्प्रूवमेंट ऑफ बम्बू प्रोडक्टिविटी एवं मार्केटिंग फार ससटेनेबुल लाइवलीहूड शीर्षक वाला यह सम्मेलन बांस की उत्पादकता और बांस उत्पादन के व्यापार से संबंधित मुद्दों में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित कर दिया है । बांस रोपण सड़क किनारे, खेतों की मेड़ों पर एवं घरो के अहातों में भी किया जा सकता है । यह हमारे देश के सभी भागों में पाया जाता है । सरकारी पोधारोपण कार्यक्रमों में भी वन विभाग के अधिकारियों द्वारा बांस रोपण पर जोर दिया जाता है । वन विभाग एवं अन्य सरकारी पौध शालाआें में बांस के पौधे किसानों के लिये रियायती दरों पर उपलब्ध कराने की आवश्यकता है ।***

९ कविता

पर्यावरण विकास मंत्र
नागेन्द्र दत्त शर्मा
खाली जमीन पर हर जगह पेड़ लगाते चलो ।
पर्यावरण को प्रदूषण से यूंही बचाते चलो ।।
जहां पर भी मिले तुम्हें कहीं भी नग्न धरती ।
वहां जलवायु के हिसाब से पेड़ लगाते चलो ।।
जड़े वृक्षों की रोकती है, पानी-मिट्टी वर्षात में ।
इसलिये नियमित रूप से वृक्ष लगाते चलो ।।
पेड़ हैं जंगल में जो, केवल सूखे और उखड़े ।
उनको नियम से कटाकर, काम में लाते चलो ।।
पहले करते थे लोग, श्रमदान से वृक्षारोपण ।
अब तुम भी इस नियम को, अपनाते चलो ।।
जंगल में न करो, भूलकर भी कभी `स्मोकिंग' ।
लगे कभी आग तो मिलकर इसे बुझाते चलो ।।
कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित जल को ।
नदी के पेयजल से अलग करके बहाते चलो ।।
कारखाने होने चाहिए सदा आबादी से बाहर ।
सभी लोगों को प्रेम से ये संदेश देते चलो ।।
खेती में रसायनों का प्रयोग हो पूरी तरह बंद ।
कुदरती खाद से फसलें हमेशा उगाते चलो ।।
जहां पर मिले प्लास्टिक का कचरा कहीं भी ।
ऐसे कचरे को पूरा उस जगह से हटाते चलो ।।
कोशिश हो न छोड़े वाहन तुम्हारा ज्यादा धुंआ ।
नहीं तो, वाहन की ट्यूनिंग सही कराते चलो ।।
जुड़े लोग तुम्हें देख कर, पर्यावरण -विकास में ।
कुछ ऐसी जानदार रिवायत ``नागेन्द्र'' बनाते चलो ।।
भावी पीढ़ी भी समझे पर्यावरण की भरपूर महत्ता ।
कर शिक्षित उसे पर्यावरण विकास मंत्र पढ़ाते चलो ।।
* * *

१० ज्ञान विज्ञान

वैज्ञानिकों ने खोजा `सबसे बूढ़ा पेड़'
'स्वीडन में करीब दस हजार साल पुराना देवदार का एक पेड़ मिला है जिसके बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह दुनिया का सबसे बुजुर्ग पेड़ है । कार्बन डेटिंग पद्धति से गणना के बाद वैज्ञानिकों ने इसे धरती का सबसे पुराना पेड़ कहा है । यूमेआ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को दलारना प्रांत की फुलु पहाड़ियों में यह पेड़ वर्ष २००४ में मिला था । उस समय वैज्ञानिक पेड़-पौधों की प्रजातियों की गिनती में लगे हुए थे । फ्लोरिडा के मियामी की एक प्रयोगशाला में कुछ दिनों पहले ही कार्बन डेटिंग पद्धति की मदद से इस पेड़ के आनुवांशिक तत्वों का अध्ययन किया गया है । वैज्ञानिक इससे पहले तक उत्तरी अमेरिका में मिले चार हजार साल पुराने देवदार के ही एक पेड़ को दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मानते थे । गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस के मुताबिक अभी तक का सबसे पुराना पेड़ कैलिफोर्निया की सफेद पहाड़ियों में है जिसकी उम्र ४,७६८ साल आँकी गई है। माना जा रहा है कि वर्ल्ड रिकॉर्ड अपने नाम करने का दावेदार यह पेड़ हिमयुग के तुरंत बाद का है । फुलु की पहाड़ियों में ९१० मीटर की ऊँचाई पर यह पेड़ जहाँ पर मिला है, उसके आसपास कोणीय पत्तियों वाले लगभग २० और पेड़ों के समूह पाए गए हैं । वैज्ञानिकों का कहना है कि बाकी पेड़ भी आठ हजार साल से ज्यादा पुराने हैं । यूमोआ यूनिवर्सिटी का कहना है कि इन पेड़ों का बाहरी हिस्सा तो अपेक्षाकृत नया है लेकिन पत्तियों और शाखाआें की चार पीढ़ियों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि इनकी जड़ें ९,५५० साल पुरानी हैं । यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लेफ कुलमैन कहते हैं कि इनके तने का जीवन लगभग ६०० साल का होता है लेकिन एक की मौत के बाद जड़ से दूसरा `क्लोन' तना निकल सकता है । कुलमैन कहते हैं कि हर साल बर्फबारी के बाद जब कुछ तने नीचे झुक जाते हैं तो वे जड़ पकड़ लेते हैं । वैज्ञानिक इस खोज से खासे चकित हैं क्योंकि अभी तक कोणीय पत्तों वाले पौधों की इस नस्लों को अपेक्षाकृत नया माना जाता था । कुलमैन कहते हैं, `परिणामों ने बिल्कुल उल्टे नतीजे दिए हैं, कोणीय पत्तों वाले पेड़ पहाड़ियों में सबसे पुराने ज्ञात पौधों में एक हैं ।' उन्होंने कहा कि इन पौधों के मिलने से अनुमान है कि उस समय यह इलाका आज की तुलना में ज्यादा गर्म रहा होगा ।
गिलहरी में दिमाग होता
गिलहरियों को हमेशा ऐसा महसूस होता है कि कोई उन्हें देख रहा है । यह बात तब उजागर होती है जब वे अपना बचा-खुचा भोजन छुपाती हैं । क्योंकि जब वे अपना भोजन छुपाती हैं तो कई बार सिर्फ छुपाने का नाटक करती हैं । ऐसा क्यों करती हैं वे ? गिलहरियां जब भी अपना भोजन छुपाती है, तो हर बार अलग-अलग जगहों पर गड्ढा खोदती हैं। मगर कई बार तो वे यह सब नाटक के तौर पर करती हैं लगभग २० प्रतिशत । यह कहना है माइकल स्टेली का । गिलहरियां जमीन में गड्ढा खोदती हैं जो कि भोजन छुपाने के लिए होता है। भोजन रखने के बाद वे गड्ढे को मिट्टी या पत्तो से ढक देती हैं । वे ऐसा इसलिए करती हैं कि कहीं कोई उनका भोजन चुरा न लें । रोचक बात यह है कि कई बार उन गड्ढों में कुछ नहीं होता है । यानी गिलहरी गड्ढा खोदती है, उसमें कुछ रखने का नाटक करती है, और उसे मिट्टी पत्तों से ढंक भी देती हैं । गिलहरियां इस प्रकार की प्रक्रिया बेवकूफ बनाने के लिए करती हैं । स्टेली का विचार है कि गिलहरी को लगता है कि भोजन छुपाते समय कोई उन्हें देख लेगा । इसलिए वे देखने वाले का ध्यान बंटाने के लिए एक नहीं कई जगह भोजन छुपाने का नाटक करती हैं । इस प्रक्रिया को समझने के लिए स्टेली और उनकी टीम ने गिलहरियों पर निगरानी की गई तब देखा कि गिलहरियों का यह खेल और अधिक बढ़ गया । वह शायद इसलिए क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि कोई उन्हें देख रहा है और उनका भोजन चोरी हो जाएगा । गिलहरियों पर शोध कर रही एक अन्य जीव वैज्ञानिक लिसा लीवर का कहना है कि इस अवलोकन से लगता है कि गिलहरियों के पास `सोचने की शक्ति' और `अस्तित्व का भान' करने की दक्षता होती हैं । वे कहती हैं यह कहना जल्दबाजी होगा लेकिन ऐसा हो सकता हैं ।
जीवन के विवरण का पहला
`जीवन कोश' यानी एन्सायक्लोपीडिया ऑफ लाइफ (ईओएल) का पहला वेब पृष्ठ प्रकाशित हो गया है । महत्वाकांक्षी ईओएल योजना यह हैं कि एक वेब साईट तैयार की जाए जहां दुनिया की जैव विविधता की पूरी जानकारी मिल सके अर्थात धरती की हर प्रजाति को एक-एक पन्न मिल सके । इस वेब साइट की संकल्पना २००३ में जीव वैज्ञानिक एडवर्ड विल्सन द्वारा लिखे गए एक आलेख में प्रस्तुत हुई थी और तब से कुछ लोग इसे साकार करने में लगे हुए हैं । वेबसाइड हींींि://शश्रि.िसी में अंतत: कुल १८ लाख प्रजातियों के बारे में विस्तृत जानकारी होगी और सबसे बड़ी बात यह है कि वेबसाइड सार्वजनिक होगी । इस वेबसाइट को बनाने में दुनिया भर की कई प्राकृतिक इतिहास संस्थाएं भाग ले रही हैं । अब तक कुल ३०,००० पन्ने तैयार हुए हैं, जिन पर प्रत्येक प्रजाति के लिए अन्य वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी की कड़ियां दी गई हैं । इसके अलावा कुछ पन्ने उदाहरण स्वरूप पूरे तैयार किए गए हैं जिन्हें देखकर अंदाज लगाया जा सकता है कि पूरा होने पर यह जीवन कोश कैसा दिखेगा । इस तरह की परियोजना के सामने सबसे बड़ी समस्या तो धन की है । फिलहाल यह अल्फ्रेड पी. स्लोअन फाउण्डेशन और मैकआर्थर फाउण्डेशन के अनुदान से चल रही है । मगर इसके आयोजकों को ज्यादा चिंता इस बात की है कि इस पूरे प्रयास को लंबे समय तक कैसे चलाया जाएगा । आलोचकों का विचार है कि इस तरह की परियोजना में सबसे बड़ी दिक्कत यही होती है कि कुछ समय बाद वित्त दाताआें की रूचि खत्म हो जाती है, शुरूआती रोमांच समाप्त् हो जाता है और फिर इसे चलाए रखना असंभव हो जाता है । आयोजकों की दूसरी चिंता यह है कि वैज्ञानिक समुदाय को इसमें भागीदारी के लिए कैसे प्रेरित किया जाए । परियोजना के कार्यकारी निदेशक जेम्स एडवर्ड इसे सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं । आयोजकों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जो वैज्ञानिक इसे बनाने में सहभागी होते हैं उन्हें अपने योगदान का उचित श्रेय मिले । बहरहाल, आगे जो भी हो, इस वेब साइट के प्रथम पृष्ठों का लोकार्पण कैलिफोर्निया में टेक्नॉलॉजी, मनोरंजन व डिजाइन सम्मेलन में फरवरी में कर दिया गया है । जैव विविधता संरक्षण की दिशा में यह एक मील का पत्थर साबित होगी।
डॉल्फिन के पास भी शब्द हैं

जब आप डॉल्फिनों की सीटियों को ध्यान से सुनेंगे तो आपको लगेगा कि वे आपस में बातें कर रही हैं । हाल ही में एक प्रोजेक्ट में डॉल्फिनों की सीटियों का बारीकी से अध्ययन के दौरान उनकी सीटियों के प्रकार और व्यवहार में संबंध भी देखा गया है । ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स में स्थित साउथ क्रॉस विश्वविद्यालय के व्हेल रिसर्च सेंटर की लिज हॉकिन्स ने यह अध्ययन बॉटलनोज डॉल्फिनों पर किया । इसके लिए उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट की डॉल्फिनों के जीवन में तांक-झांक की । तीन साल की खोज के बाद उन्होंने पाया कि डॉल्फिनों का संवाद बहुत ही पेचीदा होता है, जिसकी वजह से इसे एक मायने में भाषा की संज्ञा दी जा सकती है। हॉकिन्स ने अपने निष्कर्ष साउथ अफ्रीका में केपटाउन स्थित मेरीन मेमोलॉजी सोसायटी में प्रस्तुत किए । डॉल्फिन अपनी भाषा के रूप में सीटियों का इस्तेमाल करती हैं । सभी डॉल्फिनों की अपनी एक विशेष सीटी होती है, जिनके द्वारा उनकी पहचान होती है । इन्हें हम उनके हस्ताक्षर कह सकते हैं । लेकिन जो दूसरे प्रकार की सीटियां हैं वे अभी तक हमारे लिए राज बनी हुई हैं । हॉकिन्स ने बैरन बे में ५१ समूहों में रहने वाली डॉल्फिनों की १६४७ सीटियों को रिकॉर्ड किया । उन्होंने इन सीटियों की प्रारंभिक आवृत्ति, कुल अवधि और अंतिम आवृत्ति पर ध्यान दिया । १८६ विभिन्न प्रकार की सीटियां पहचानी, जिनमें कम से कम २० किस्में ज्यादा आम थीं। इसके बाद उन्होंने सारी सीटियों को ५ टोनल वर्गो (स्वर समूहों) में बांट दिया । अब उन्होंने यह देखना शुरू किया कि किस व्यवहार के साथ डॉल्फिन किस स्वर समूह की सीटी बजाती है । हॉकिन्स ने क्वीन्सलैंड के मोरीटोन द्वीप में रहने वाली डॉल्फिनों के झुंड का भी अध्ययन किया । उन्होंने पाया कि अकेले पड़ जाने पर डॉल्फिन जो सीटियां निकालती हैं, वे एक अलग ही प्रकार ही होती हैं । हॉकिन्स को लगता है कि शायद डॉल्फिन अपनी भाषा में कहती हैं: मैं यहां हँू, बाकी सब कहां हैं ?***


मंगलवार, 20 मई 2008

११ प्रदेश चर्चा

म.प्र. : खाद्य सुरक्षा पर `न्यू डील'
शिवराजसिंह चौहान
लंदन से प्रकाशित विश्व विख्यात पत्रिका `द इकोनॉमिस्ट' के १९ अप्रैल २००८ के ताजा अंक से दुनिया भर में पैदा हुई खाद्य समस्या की चर्चा करते हुए कहा गया है कि विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्रसंघ को खाद्य समस्या पर `न्यू डील' के साथ आना चाहिए । किसी और ने इस पर ध्यान दिया न दिया हो, लेकिन मध्यप्रदेश में हम `मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना' के माध्यम से ऐसी ही `न्यू डील' प्रस्तुत कर रहे हैं । वह भी ऐसे समय, जब केन्द्र सरकार अभी तक खाद्य सुरक्षा ढाँचे के व्यापक सुधार के लिए किसी नई योजना के साथ नहीं आई है । दिल्ली के स्तर पर बात संवेदनशीलता के अभाव की नहीं है, कल्पनाशीलता के अभाव की है। खाद्यान्नों बढ़ते हुए दामों ने लोगों की क्रयशक्ति में जबर्दस्त कमी की है । अभी कुछ सालों पहले तक `राइजिंग इंडिया' (भारत उदय) की बात होती थी । लेकिन आज बात `राइजिंग एंगर' की है - क्रोध के उदय की । गरीब के गुस्से की, जो अब बढ़ता ही जा रहा है । कांग्रेस कम्युनिस्ट गठजोड़ के चलते न तो मार्केट आर्थिकी के पूरे फल मिले, न सर्वहारा की तनाशाही के । दोनोंके बीच अनुत्तरदायित्व के रिश्ते थे, जिसमें वे एक-दूसरे के कारण ही असफल थे, लेकिन फिर भी दोनों साथ-साथ थे । मानो यह उनके दाम्पत्य का मसला हो, देश का मसला न हो । इसलिए महँगाई के नए शब्द शास्त्र में मुद्रास्फीति का कोई देश नहीं है । केन्द्र सरकार इस महँगाई को ग्लोबल बताकर स्थानीय सक्रियता की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहती है, लेकिन उससे भी अधिक स्थानीय स्तर पर मध्यप्रदेश सरकार ने महँगाई की इस केंद्रीय या वैश्विक समस्या से अपने प्रदेश के दरिद्र नागरिकों का संरक्षण करने की तत्परता प्रदर्शित करने में चूक नहीं की, जबकि जिस `बाजार' पर केन्द्र सरकार के अर्थशास्त्री प्रधामंत्री तथा वित्तमंत्री को बड़ा भरोसा रहा आया है, उसकी फूड चेन की हर कड़ी में `मार्केट विफलताएँ' हैं । लेकिन बाजार को उदारीकृत करते जाने की निरंकुश नीति न केवल राज्य नामक चीज के हस्तक्षेप के स्थगन और निष्क्रियता में सामने आ रही है, बल्कि अभी भी तर्क यही है कि खाद्य का बाजार स्वयं छोटे-मोटे एडजस्टमेंट कर लेगा, यदि उसे कोटा, सबसिडी, कंट्रोल वाली नौकरशाही झेलना न पड़े । बाजार से असंतुलन बाजार ही दूर करेगा, ऐसा अंधविश्वास-सा बन गया है । लेकिन वे असंतुलन कब दूर होंगे ? कब तक उस `मधुर दिन' की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ? आज हालत गंभीर से गंभीरतर होती जा रही है । अभी मार्च-अप्रैल की अंतरराष्ट्रीय सुर्खियाँ देखें । भूमध्य रेखा के किनारे-किनारे के सभी देशों में खाद्य मुद्दों पर जबर्दस्त हलचल है । हैती के प्रधानमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा है, इजिप्ट के राष्ट्रपति ने आर्मी को ब्रेड-बेकिंग के आदेश दिए हैं, फिलीपींस में चावल की जमाखोरी को आजीवन कारावास के योग्य बना दिया गया है, इथियोपिया के इमरजेंसी कार्यक्रम को राष्ट्रीय आय के एक प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया है, पाकिस्तान ने सस्ते गेहँू के लिए राशन कार्ड की एक पुरातन पद्धति का दामन इसी साल फिर थामा है । भारत में हमारी केन्द्र सरकार क्यों रूकी हुई हैं? वातानुकूलित मॉलों, लक्झरी होटलों, महँगे अपार्टमेंटों, एयर ट्रेवल और प्राइवेट कारों की व्यस्तताआें में फँसी हुई दिल्ली को गरीबों के हक में तत्काल कदम उठाकर मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री अन्नपूर्णा योजना की तरह कोई योजना लाना क्यों जरूरी नहीं लग रहा? जीवन की हकीकतों को महसूस करने की जगह दिल्ली सांख्यिकीय मृगछलनाआें में व्यस्त है । बड़ी कंपनियाँ आज दुनिया भर में अनाज खरीद रही हैं, लेकिन यह अनाज पश्चिम देशों के जैव इंर्धन कार्यक्रमों में व्यय हो रहा है या आम आदमी की भूख मिटाने में - इसे देखने की फुर्सत `खुली अर्थव्यवस्था' को नहीं है । यदि आय के वितरण में असमानताएँ हो, तो बाजार एक बहुत बुरा मास्टर सिद्ध होता है । हमारे यहाँ ऐसा ही हुआ है । विश्व बैंक अध्यक्ष बॉब जोएलिक का कहना है कि खाद्यान्नों की महँगाई ने कम से कम एक अरब लोगों की निर्धनता में पुन: धकेल दिया है और इस दशक में जितने भी लाभ सबसे दरिद्र एक अरब लोगों ने कमाए थे, वे सब एक झटके में साफ कर दिए गए हैं । भारत जैसे देश में खाद्यान्न संकट यह बताता है कि अनाज उत्पादन की वृद्धि दर में कोई विशेष अग्रता हम हासिल नहीं कर सके हैं, जबकि योरपियन यूनियन के बारे में खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की भविष्यवाणी है कि उनका उत्पादन १३ प्रतिशत बढ़ेगा। जब विदेशी गेहँू १६०० रूपए प्रति क्विंटल पर भारत सरकार द्वारा खरीद जा रहा हो और भारतीय किसान को यही भारत सरकार ८५० रूपये भी देने को तैयार न हो तो स्थिति यही होगी कि पश्चिमी किसान की उत्पादकता बढ़ेगी, हिन्दुस्तानी कृषि गड्ढे में जाएगी। ऐसी स्थिति में किसानों के असली मुद्दों की ओर लगातार गहरी संवेदनशीलता यदि हम दिखा रहे हैं, तो वह अवसरवाद नहीं, आज की जरूरत हैं । अनाज की बढ़ती हुई कीमतें किसान के लिए ज्यादा पैसा बरसाने वाली होना चाहिए थीं । लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो पाया । बढ़ी हुई कीमतों के प्रतिफल बिचौलियों और कंपनियों ने लूटे, जबकि आम आदमी को इन कीमतों की मार सहनी पड़ी है । अन्नपूर्णा योजना को इसी पृष्ठभूमि में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप की तरह देखा जाना चाहिए । गेहँू को तीन रूपये किलो और चावल को साढ़े चार रूपए किलो के अत्यंत सस्ते दामों पर उपलब्ध कराना प्रदेश के इतिहास में एक नई कोशिश जरूर है, लेकिन इसे लोकप्रियतावाद कहना दरअसल इस पूरी पृष्ठभूमि से अपरिचय प्रकट करना है । वैसे भी जिसे पापुलरिज्म कहा जाता है, वह एक एलीट वर्ग के द्वारा आम जनता का तिरस्कार करने के लिए गढ़ी गई अभिव्यक्ति है । मैं तो शुरू से ही समावेशी राजनीति में विश्वास रखता रहा हँू इसलिए गरीबों को अपनी ओर से पहल कर उनके अधिकार और आवाज देना, उनकी जरूरतों के प्रति जागरूकता दिखाना, मैंने एक धर्म की तरह अपनाया है । मैं इस बात से भी अवगत हँू कि अन्नपूर्णा योजना कॉर्पोरेट पावर के खिलाफ एक चुनौती की तरह अभिकल्पित जरूर की गई है, किंतु बाजार से अनाज दरों की जो भिन्नता अभी इसका सबसे बड़ा खतरा बन सकती है । इस अनाज को राशन दुकानों से कहीं खुले बाजार में ले जाने की जतन-जुगाड़-जादू को पराजित किया जाएगा । अस्पतालों-थानों से लेकर गेहँू उपार्जन मंडियों के निरीक्षणों के जरिए मैंने फ्रंट से लीड करने की कोशिशें लगातार की है । अन्नपूर्णा योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए भी शिखर से चौपाल तक ऐसे ही प्रभावशाली निरीक्षणों की जरूरत होगी तथा जनता और तंत्र के बीच संप्रेषण की तुरंत-तत्काल व्यवस्था की भी। फिर भी मैं कहूँगा कि उपभोक्ता की जागरूकता ही इस योजना की सफलता तय करेगी । इसीलिए उनके सहयोग और आशीर्वाद की अपेक्षा हमें लगातार रहेगी।(दै. नईदुनिया से साभार)***

१२ पर्यावरण समाचार


मोक्ष दिलाने वाली गंगा को मोक्ष की तलाश

लोगों को तारने वाली गंगा का अस्तित्व संकट में है । धार्मिक नगरी काशी में पानी का बहाव कम होने एवं प्रदूषण के चलते गंगा की स्थिति काफी खराब हो गई है । दूसरों को मोक्ष दिलाने वाली गंगा अब स्वयं मोक्ष को तरस रही है । अब तो वाराणसी में गंगा में जहां तहां बालू के टीले दिखाई देने लगे हैं । कई पक्के घाटों को गंगा छोड़ चुकी है । केवल मिट्टी का टीला नजर आ रहा है । रामनगर से राजघाट के बीच बालू खनन पर रोक लगने के कारण रेत का मैदान बढ़ता जा रहा है और गंगा सिमटती जा रही है । स्थिति यह है कि काशी के विश्व प्रसिद्ध घाटों पर पानी कम होने से स्नानार्थी घुटने भर या उससे भी कम एवं प्रदूषणयुक्त पानी में डुबकी लगाने को बाध्य है । गंगा में व्याप्त् प्रदूषण का तो यह हाल है कि स्थानीय लोगों ने गंगा स्नान करना लगभग छोड़ ही दिया है । काशी के घाटों पर बैठने वाले पंडों को डर हैं कि कहीं गंगा का भी वही हाल न हो जो यमुना, गोमती तथा अन्य नदियों का हुआ हैं । प्रयाग, इलाहाबाद में तो गंगा इन दिनों नदी की जगह नाला बन गई है । वहां पर गंगा एवं यमुना का जलस्तर १० प्रतिशत के हिसाब से हर साल गिरता जा रहा है । पाप नाशिनी गंगा अब कानपुर एवं इलाहाबाद में गंदे नाले के रूप में परिवर्तित हो दीन हीन बन गई है । इलाहाबाद से समाजवादी पार्टी सांसद कुंवर रेवती रमणसिंह ने गंगा की दुर्दशा पर संसद में सवाल उठाते हुए चेतावनी दी थी कि यही हाल रहा तो वर्ष २०३० तक गंगा मृत नदी बन जायेगी । वाराणसी में लोगों का मानना है कि उनकी इस इस आशंका को दरकिनार नहीं किया जा सकता । आगरा तथा दिल्ली में यमुना, लखनऊ में गोमती वाराणसी एवं इलाहाबाद में वरूणा और जौनपुर में सई एवं पीली नदियों का क्या हश्र हुआ है यह किसी से छिपा नहीं है । पर्यटन से जुड़े लोगों का मानना है कि प्रतिवर्ष लाखों विदेशी पर्यटक अन्य स्थानों को देखने के साथ ही साथ वाराणसी में गंगा के सुप्रसिद्ध घाटों को देखने आते हैं । दुनिया में किसी भी नदी के किनारे इतने सुन्दर घाट देखने को नहीं मिलते देश को इससे अरबों रूपये की विदेशी मुद्रा अर्जित होती है । इन घाटों का अस्तित्व गंगा के अस्तित्व से जुड़ा है । बिना गंगा के इन घाटों का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा । सबसे ज्यादा चिंतित गंगा के किनारे रहने वाले नाविक है जिनकी जीविका का साधन गंगा है । कानपुर, इलाहाबाद एवं वाराणसी में नालों का पानी बेरोकटोक गंगा में गिर रहा है । वाराणसी में प्रदूषण के चलते गंगा का पानी काला पड़ गया है । गंगा सेवा निधि के संस्थापक अध्यक्ष सत्येन्द्र मिश्रा का कहना है कि गंगा की आज जो स्थिति है वैसी पहले कभी नहीं थी । पानी का बहाव कम होने से गंगा का फैलाव दिनों दिन घटता जा रहा है । बहाव न होने से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। जब तक टिहरी बांध से पर्याप्त् पानी नहीं छोड़ा जायेगा गंगा का न तो जलस्तर बढ़ेगा और न ही बहाव । बाढ़ नियंत्रण के अधिशासी अभियंता उमेश शर्मा का कहना है कि अगर आने वाले समय में पर्याप्त् वर्षा न हुई तो दोनों पवित्र नदियों गंगा एवं यमुना का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा । दोनों नदियों का जलस्तर १० प्रतिशत के हिसाब से प्रतिवर्ष घट रहा है । दो दशक पहले तत्कालीन प्रधान मंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी द्वारा गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए गंगा एक्सन प्लान शुरू किया गया था । इस पर सरकार ने ५० करोड़ से ज्यादा रूपये खर्च किये थे लेकिन गंगा के जल में सुधार होने के बजाय स्थिति बद से बदतर हुई है ।

नए भूमि अधिग्रहण कानूनों के खिलाफ `संघर्ष` प्रारंभ

नई दिल्ली में जंतर-मंतर पर भारतीय संसद के समक्ष देशभर के जनसंगठनों के एक झंडे तले `संघर्ष` की घोषणा की। इस के साथ तीन दिवसीय धरना भी ३० अप्रेल को समाप्त् होगया । इसी दौरान विस्थापन भू-अधिग्रहण व पुनर्वास पर जन संसद का आयोजन भी किया गया । इस मुद्दे पर सक्रिय ४५ संगठन व जनसंगठनों ने इसमें भागीदारी करते हुए सरकारों के अतिवादी रवैये की चर्चा करते हुए सरकार द्वारा किये जा रहे अत्याचारों की चर्चा की। वक्ताआें का कहना था कि १०० वर्ष पूर्व बने बांधो के विस्थापितो का भी पुनर्वास अभी तक नही हुआ है। साथ ही विशेष आर्थिक क्षेत्र, खदानों, जल व ऊर्जा परियोजनाआें की वजह से लाखों लोग अभी भी विस्थापित हो रहे हैं । इस संबंध में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के प्रतिनिधियों ने बताया कि किस तरह आदिवासियों की भूमि व संसाधनों की लूट चल रही है । दिल्ली मुम्बई व अन्य शहरों की गंदी बस्ती में रहने वालों की ओर से भी बात रखी गई । एक प्रस्ताव में कहा गया कि चुनावी वर्ष में कांग्रेस व यूपीए को आम जनता के साथ रहना चाहिए न कि निगमों और भूमि हथियाने वालों के साथ । अब जनता अत्याचार सहन नहीं करेगी । ***