शनिवार, 3 अप्रैल 2010

१० वन्यप्राणी

वन्य प्राणी गणना के तकनीकी संकट
प्रमोद भार्गव
हमारे देश मेें बाघ व अन्य दुर्लभ प्राणियों के संरक्षण के ज़रूरी उपायों की बनिस्बत उनकी गणना के तकनीकी उपायों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है । इन उपायों के परस्पर विरोधाभास तो उभरकर सामने आ ही रहे हैं, तकनीक आधारित डैटा वन्य प्राणियों को संकट में भी डालने जा रहे हैं । दरअसल टेक्नोक्रेसी से जुड़े ये सरोकार दुर्लभ प्राणियों की सुरक्षा व संरक्षण की मंशा से ज़्यादा इनकी खरीद और इनके रखरखाव पर खर्च में बरते जाने वाले भ्रष्टाचार से कहीं गहरे जुड़े नज़र आ रहे हैं । जल्द ही पूरे देश में दुर्लभ वन्य जीवों की गिनती होने जा रही है । रणथम्भौर, सरिस्का व बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यानों में बाघों के मरने, पन्ना के आरक्षित वनों से बाघों के गायब होने और अभयारण्यों से सोन चिरैया विलुप्त् हो जाने के चलते देश के वन अधिकारी व वन्य जीव विशेषज्ञ चाहते हैं कि खास तौर से `बाघ' आरक्षित वन खण्डों में बाघों की गिनती नई तकनीकों से की जाए । इस दृष्टि से राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) द्वारा देश के १७ राज्यों के ३७ बाघ अभयारण्यों को परिपत्र जारी कर निर्देश दिए गए हैं कि जंगलों में उपलब्ध बाघों के परिचय-पत्र बनाए जाएं । हालांकि अब ३७ बाघ अभयारण्यों में से १६ ऐसे हैं जहां बाघ की आहट पूरी तरह नदारद हो चुकी है । इस परिचय-पत्र को बनाने के लिए बाघ के डिजिटल टेपिंग व वीडियो कैमरों से स्थिर चित्र व चलचित्र लिए जाएंगे । बाद में बाघ के इन छायाचित्रों को स्केनिंग कर इनके अनेक आकारों में प्रिंट निकाले जाएंगे । जिससे इनकी त्वचा, आंखों, मुंह, पैर, पूंछ व पंजों की भिन्नताआें को पहचान कर यदि किसी जंगल में दो या उससे अधिक बाघ हैं तो उनके भेदों के आधार पर संख्या सुनिश्चित की जा सके । चूंकि ये कैमरे ऐसे संभावित क्षेत्रों में स्थापित किए जाएंगे जहां बाघ की उपस्थिति अवश्यंभावी है, इसलिए इन कैमरों में उनका व्यवहार, आहार व प्रजनन विशिष्टताएं भी कैद हो जाएंगी । लिहाज़ा कैमरा टेप और रेडियों कॉलर रिकार्ड के साथ उनकी तात्कालिक व अद्यतन जानकारी नियमित रूप से कैमरे में दर्ज होती रहेंगी । इस विचार के पीछे बाघ संरक्षण को पुख्ता करने का उद्देश्य बताया जा रहा है । इससे प्राकृतिक परिवेश सम्बंधी विभिन्न पहलुआें को समझने में मदद मिलने का दावा भी किया जा रहा है । वन खण्डों में तमाम कैमरे लगाने के बावजूद ज़रूरी नहीं है कि हरेक बाघ के अनूठे परिचय पत्र (युनीक आईकार्ड) बना लिए जाएंगे । कभी-कभी बाघ अपने प्रभाव क्षेत्र से दूरांचलों में निकल जाते हैं। सभी दूरांचलों में न तो कैमरे लगाना संभव है और न ही कैमरों की सुरक्षा करना । हाल ही में पन्ना से गायब हुआ बाघ दमोह के जंगल में देखने का दावा किया गया है । पन्ना से दमोह की दूरी ढाई सौ किलो मीटर है । ऐसे में कैमरा तकनीक द्वारा परिचय पत्र बनाने का औचित्य समझ से परे है । अनूठे परिचय की मदद से बाघों की गिनती व निगरानी बेहतर ढंग से करने का दावा करने वाली इस तकनीक का उल्टा पहलू यह है कि यदि यह डैटा भूल से भी वन्य जीवों की खाल, सीगों व अंगों व अंगो की तस्करी करने वाले अपराधियों के हाथ पड़ गया तो बाघ जैसे वन्य प्राणी की मौत निश्चित है । वे इस डैटा के जरिए बाघों की संख्या और उनके आवास स्थल के बारे में आसानी से जानकारी हासिल लेंगे । डैटा वनकर्मियों को लालच देकर भी हासिल किया जा सकता है । नतीजतन यह तकनीक बाघ संरक्षण की बजाय संकट ज़्यादा साबित होगी । इस तकनीक से बाघ की मौजूदगी दऱ्ज करने व पहचान के लिए सभी ३७ बाघ आरक्षित वनों में कैमरों व अन्य सहायक उपकरणों की बड़े पैमाने पर खरीद शुरू हो गई है । इस बाबत राज्य सरकारों के वन महकमों के अधिकारियों को राजस्थान के सवाई माधौपुर में प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है। बाघों की गिनती की शुरूआत तो १५ जनवरी २०१० से हो गयी है, लेकिन परिणाम नवंबर २०१० तक आएंगे । एक साल की इस अवधि में वन्य जीव व सायबर विशेषज्ञ चल व स्थिर चित्रों में भेद कर बाघों की संख्या तय करेंगे । श्योपुर ज़िले के कूनो अभयारण्य में तो बाघों समेत अन्य सभी दुर्लभ जीव-जंतुआें की हाईटेक गणना का प्रस्ताव किया गया है । इस हेतु कैमरे व अन्य उपकरणों पर होने वाले खर्च समेत एक पूरी परियोजना बनाकर भारतीय वन्य जीव प्राधिकरण देहरादून को भेजी गई है । इस क्षेत्र के मुख्य वन संरक्षक एचसी मुरलीकृष्णा का कहना है कि गणना के लिए उन्हें टेपिंग कैमरों की खरीद व उनके उपयोग की अनुमति मिल जाएगी । वजह यह है कि यहां जंगल में बाघ देखे जाने की खबरें हैं और उनके पदचिन्ह तो कई मर्तबा देखने में आए हैं लेकिन साक्षात बाघ वनकर्मियों के देखने में नहीं आया। वे इस बात को लेकर भी उत्साहित हैं कि यदि कैमरा तकनीक से गणना करने की अनुमति मिल जाती है तो श्योपुर मध्यप्रदेश का पहला ऐसा जिला होगा जहां बाघ व तेंदुआें के साथ दूसरे प्राणियों की गिनती टेपिंग कैमरों से होगी । आखिर प्राणियों की वास्तविक सुरक्षा के पुख्ता उपायों के बजाय तकनक के इस्तेमाल में अव्वल बनने की होड़ क्यों ? कूनो अभयारण्य के ३४४.६८६ हैक्टर जंगल का विकास गिर के सिंहो के पुनर्वास के लिए किया गया था । लेकिन गुजरात की सरकार ने इन सिंहों का कूनों मे उचित लालन-पालन न होने की आशंका जताकर सिंह देने से साफ इंकार कर दिया । इस अभयारण्य से लगातार वन्य प्राणियों के शिकार होने के समचार आ रहे हैं । दूसरी तरफ मध्यप्रदेश में पहली बार सोन चिड़िया की उपस्थिति का पता लगाने के लिए डीएनए तकनीक घाटीगांव सोन चिड़िया अभयारण्य में अपनाई जा रही है । चिड़िया के पंख और मल को इकट्ठा कर जांच के लिए भारतीय वय प्राणी संरक्षण प्राधिकरण, देहरादून भेजा गया है । इसकी मदद से प्राणी चिकित्सक अनुवांशिक लक्षणों और पसंदीदा आहार के आधार पर सोन चिड़िया की गिनती करेंगे । मध्यप्रदेश में घाटीगांव और करैरा मेें १९९५ तक आम आदमी व सैलानी आसानी से सोन चिड़िया देख लिया करते थे, लेकिन अब ग्रामीण कतई नहीं स्वीकारते कि इन अभयारण्यों मेंें सोन चिड़िया का अस्तित्व है । इंसानों के समूह से ज़्यादा तकनीकी गणना पर भरोसा भ्रामक है । बाघ परियोजनाआें में बाघ की गिनती हमेशा ही ज़ोखिम और चुनौतियों से भरा जटिल काम रहा है । सामंतो के बीच शिकार की प्रतिद्वंद्विता और अहंकार के चलते बीसवीं सदी के प्रारंभ में इन बाघों की तादाद घटकर केवल चालीस रह गई थी और १९७२ तक प्रसिद्ध बाघ विशेषज्ञ सरोज राजचौधरी ने जब खुद के द्वारा ही आविष्कृत `टायगर टेसर' नामक उपकरण से भारत के जंगलों में इन बाघों की गिनती की तो बाघों की कुल संख्या मात्र १८२७ थी । बाघों के सरंक्षण के लिए पद्मश्री से सम्मानित कैलाश सांखला ने भी १९६९ मेंे यह संख्या ढाई हज़ार के लगभग आंकी थी । इसके बाद ही वन के इस `सौन्दर्य की रक्षा के लिए १९७३ में बाघ परियोेजना शुरू की गई और परियोजनाआें में बाघ की गिनती साल में दो बार की जाने लगी । पहले गिनती नवंबर से दिसंबर के मध्य होती थी। यह समय बाघों के जो़़डा बनाने का समय होता है । इसलिए गर्मियों में बाघ घने जंगलों में चले जाते हैं । बाघों की दूसरी गिनती अप्रैल से जून के बीच की जाती थी । इसे ग्रीष्मकालीन गिनती कहा जाता था । यह गिनती प्रामाणिक और वैज्ञानिक होने के साथ महत्वपूर्ण थी । इस समय ज़्यादातर जल स्त्रोत सूख जाते हैं । इस कारण बाघों को प्यास बुझाने और शिकार के लालच में गिने-चुने जल स्त्रोतों के पास आना पड़ता है । इन जल भण्डारों के निकट कुशल वनकर्मियों की टोलियों को गणना के ज़रूरी उपकरण देकर तैनात कर दिया जाता है । ये उपकरण हैं : मीटर टेप, टायगर टेसर, हैवर सेक, प्लास्टर ऑफ पेरिस, पानी की बोतल, दूरबीन, प्लास्टिक की थैलियां, कॉपी, पैन, नक्शा इत्यादि । पहले बाघों की गिनती तीन तरीकों से की जाती थी : दृश्य विधि, शिकार विधि और पदचिन्ह विधि । इनमें दृश्य विधि अवैज्ञानिक मानी जाती है क्योंकि इसमें सूचनाआें के आधार पर बाघों की गिनती की जाती है । बाघों की गिनती का दूसरा तरीका है बाघ द्वारा मारे गए शिकार की स्थिति को देखकर । बाघ जिस प्राणी का शिकार करता है, पहले दिन उसका पिछला हिस्सा ही खाता है । इस तरह से अधखाया शिकार गणकों को मिलता है तो वे शिकार किए जाने और खाने के तरीके का परीक्षण कर बाघ की गिनती करते हैं । लेकिन यह विधि बेहद जटिल है, क्योंकि बाघ अक्सर अपने शिकार को घने जंगलों में अथवा गुफाआें में ले जाकर खाते हैं, जहां गिनती करने वालों का पहुंचना मुश्किल होता है । बाघ की गिनती करने के तरीकों में सबसे महत्वपूर्ण तरीका है बाघ के पंजों के निशान प्लास्टर ऑफ पेरिस पर लेकर पंजों की भिन्नता से बाघों की गिनती करना। प्रत्येक बाघ के पंजे भिन्न होते हैं। यह विधि वैज्ञानिक होने के साथ प्रामाणिक भी है । इस विधि से गर्मियों में बाघों की गिनती करना तो बहुत आसान होता है । इस विधि के मुताबिक गणकों की टोली पानी वाले स्थानों के समीप सुबह-सुबह बाघ के पदचिन्हों की तलाश करती है । और जहां-जहां निशान मिलते हैं, वहां-वहां प्लास्टर ऑफ पेरिस डाल देते हैं । इसके सूखने के बाद इसे उठा लिया जाता है । बाद में इस प्लास्टर कास्ट से प्रयोगशाला में `स्लाइड' बनाई जाती है । स्लाइड देखकर पंजों के निशानों के चित्र तैयार किए जाते हैं । इन चित्रों की भिन्नता से ही बाघ परियोजनाआें में इनकी गिनती होती रही है । केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश ने गणना की इस पद्धति को सर्वथा नकार दिया । उनका मानना है कि देश में अब तक बाघों की आबादी की अचूक वैज्ञानिक पद्धति से गिनती नहीं हुई है । पदचिन्होें से बाघों की संख्या का अनुमान लगाने की प्रणाली दोषपूर्ण थी और एक ही चिन्ह को बार-बार गिन लिया जाता था । इस्से वास्तविक संख्या से अधिक बाघों की गिनती कर ली जाती थी । दरअसल यह दोष गणना का नहीं उस प्रशासनिक तंत्र का है जो झूठी वाहवाही लूटने के लिए बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बताता है । किसी नई तकनीक को अमल में लाने के लिए पुरानी तकनीक को दोषपूर्ण बताना तब तक गलत है जब तक उसके निष्कर्ष बाघ गणना की निर्धारित कसौटी पर खरे नहीं उतर जाते । यदि मानव हस्तक्षेप पदचिन्ह तकनीक से गणना के झूठे आंकड़े दे सकता है तो तकनीक के वास्तविक आंकड़ों में भी फेरबदल कर सकता है । डिजीटल कैमरों मेें डैटा बदलना तो सायबर विशेषज्ञों के लिए और आसान काम है । किसी पुरातन या वर्तमान कार्यप्रणाली, पद्धति अथवा तकनीक को दोषपूर्ण बताकर नई तकनीक अपनाने से पहले जरूरत इस बात की भी है कि तकनीक को अमल में लाने वाला अमला यदि आंकड़ों की कूट रचना कर गणना में हेराफेरी करता है तो उसे दण्डित करने के पुख्ता कानूनी प्रावधान हों । अन्यथा तकनीक कोई भी नतीजे निकलेंगे वही ढाक के तीन पात । ***

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