मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

६ सामाजिक पर्यावरण

नई व्यवस्था की तलाश में मानवता
गंगाप्रसाद अग्रवाल
आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था के दुष्परिणाम अब सर चढ़कर बोलने लगे हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज प्रत्येक आकलन का आधार आर्थिक हो गया है । आवश्यकता इस बात की है कि एक न्यायपूर्ण विश्व की स्थापना की ओर कदम बढ़ाया जाए । वैश्विक आर्थिक मंदी ने इस औद्योगिक शैतानी सभ्यता के सामने चुनौती खड़ी कर दी है कि संकटों से घिरे रहो या बुनियादी परिवर्तन अपनाआें। विगत तीन सौ सालों में पंुजीवाद पर संकट आते रहे हैं लेकिन तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर रास्ता निकाल लिया गया परंतु वर्तमान संकट से निकलने के सब रास्ते बंद है । अब बुनियादी परितवर्तन के अलावा ओर कोई चारा नहीं बचा है। इस सभ्यता की जड़ में जाकर, उसका अंत समझना होगा क्योकि अर्थव्यवस्था मात्र एक पहलू है । अर्थशास्त्र का इतिहास परिस्थिति की समीक्षा करते हुए अपनी अवधारणा का विकास करता आया है । आज अर्थशास्त्र की अवधारणा को पुर्नव्याख्यायित करने का समय आ चुका है । अर्थशास्त्र के उद्देश्यों में से एक जनकल्याण भी है । इसका अर्थ है हर व्यक्ति की आमदनी और सुविधा में इजाफा होना । आज तो अधिकतर लोगों के साथ पक्षपात व अन्याय हो रहा है । धन, संपत्ति और आंकड़ों को अर्थशास्त्र का आधार माना जाता है । धन यानि प्रकृति की मदद से श्रम जोड़कर मानवी आवश्यकताआें का उत्पादन करना। इसमें पंचतत्व-जमीन, पानी, हवा, सूर्यप्रकाश, आकाश आदि की भूमिका हैं। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट अपने श्रम की भूमिका अदा करते है । प्रकृति से धन पैदा होता है । धन का विनिमय करने के लिए मुद्रा जिसे संपत्ति कहते हैं, प्रचलन में आई। इसके बाद आंकड़ों का चलन चल पड़ा । शेयर बाजार में तो सिर्फ आंकड़े काम करते है न उसमें प्रकृति की कोई भूमिका है, न श्रम और उत्पादन का कोई स्थान । मिनिटों में कोई धनवान बनता है तो दूसरा दिवालिया । इन्हीं आंकड़ों ने वैश्विक मंदी का संकट पैदा किया । कहा जाता है कि भारत और चीन वैश्विक मंदी से निपट सकते हैं । इसका कारण है भारत और चीन की कृषकोंं की संख्या । वैसे वर्तमान अर्थव्यवस्था का आधार है किसानों की लूट । भारत के कुछ आंकड़ें इसकी गवाही दे सकते है । सेनगुप्त समिति की रिपोर्ट के अनुसार इस देश के ८३ करोड़ लोग ९ से २० रूपये प्रतिदिन में अपना जीवनयापन करते हैं । दूसरी और इस देश के एक उद्योगपति की आमदनी प्रति मिनिट चालीस लाख यानी दिन की ५ अरब साठ करोड़ रूपये है । क्या करता है यह उद्योगपति ? मात्र आंकड़ों का खेल चलता है । राष्ट्रीय आमदनी मापने का ढंग भी अन्यायकारी है । राष्ट्रीय आमदनी नापने के तीन पैमाने हैं- कृषि, उद्योग और सेवा। बाजार भाव से इनकी कीमत आंकी जाती है । बाजार में कृषि उपज की कीमत लागत दाम से कम होती है । वहीं उद्योग व व्यापारी लागत से कई गुना लाभ कमाते हैं । सेवा क्षेत्र में तो अति है । सेवा क्षेत्र में शिक्षा क्षेत्र भी है । जिसको आजकल मानव संसाधन विकास कहते हैं । इसी आर्थिक वर्ष में मंदी के बावजूद छठवें वेतन आयोग की बकाया करोड़ों रूपये की रकम बांटी गई । कृषि का राष्ट्रीय आय में योगदान घटता जा रहा है और सेवा क्षेत्र का बढ़ता जा रहा है । परिणाम स्पष्ट हैं । आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है । किसान खुदकुशी कर रहा है और उद्योगपति समुद्र में कई मंजिला महल खड़ा कर रहा है तथा पत्नी के जन्मदिन पर दो सौ करोड़ रूपये से अधिक कीमत का हवाई जहाज भेंट किया जा रहा है । इस बढ़ती विषमता को कौन और कितने दिन सहेगा ? इसीलिए नक्सलवादी बंदूक लेकर खड़े हो गए हैं । वे भारत के बीस प्रदेशों के २३१ जिलों में पहुंच चुके हैं । उनके सशस्त्र आंदोलन का दायरा निरंतर बढ़ता जा रहा है । जवाब में सरकार की ओर से भी हिंसा हो रही है । हिसंा-प्रतिहिंसा से हिंसा ही बढ़ेगी परंतु इससे आर्थिक विषमता का मसला हल नहीं होगा । चीन और भारत में वैश्विक आर्थिक मंदी के कम से कम असर और मंदी से उभरकर तेजी से विकास की ओर अग्रसर होने की बात भी गलत है । दोनों देशों में किसानों की संख्या सर्वाधिक है व इनकी लूट बढ़ती ही जा रही है । इस विनाश के बावजूद विकास की बात कही जा रही है । क्योंकि विकास का वर्तमान पैमाना ही अमानवीय है । उसमें मानव को स्थान नहीं । आज विकास को मानवीय चेहरा देने की जरूरत है । हमारे सत्ताधीश बार-बार जिस दूसरी हरित क्रांति की बात कह रहे हैं उसका मतलब साफ होता जा रहा है । किसानों को यंत्र की शिक्षा देने की बात कही जा रही है । बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसानों की मदद के लिए आगे बढ़ने को कहा जा रहा है । मतलब साफ है । खेती में ट्रेक्टर के हिसाब से कम स्थानहै । ऐसी छोटी जोतों में ट्रेक्टर चलाना संभव नहीं है । अत: जमीनों के टुकड़ों को इकट्ठा करना होगा इसलिए किसानों को विस्थापित करना होगा । किसान दर-दर भटकते दिखेंगे । आज तक विकास के नाम पर, बांध बनाने के कारण, चौड़ी सड़कें बनाने के कारण, उद्योग, सेज बनाने के कारण जो किसान विस्थापित हो चुके हैं, ऐसे लाखों किसान खानाबदोश होकर घूम रहे हैं । फसल कटाई, खलिहान के काम, अनाज उफनना आदि कामों के लिए हार्वेस्टर काम मे लाया जाएगा । इससे ऊगलियों पर गिनने जैसे प्रशिक्षित मजदूरों को कुछ समय के लिए काम मिलेगा । अधिकतर मजदूर बेरोजगार बनेंगा। अब तक तो किसान आत्महत्या करते थे । अब मजदूर भी उस कतार में खड़े हो सकते हैं । गांव के लोगों को नगरों में जाने के लिए कहा जा रहा है । वहां भी कुछ मजदूरों को कुछ दिनों तक ही काम मिल सकता है । दूसरी हरित क्रांति में कांट्रेक्ट फार्मिंग अपनानी होगी । बीज, खाद व कीटनाशक कंपनी से आएगा । दस साल में खेती की उपजाऊ शक्ति बड़े पैमाने पर घटने से खेती नाकारा हो जाएगी । इसके साथ ट्रेक्टर और हार्वेस्टर कम्बाईन्ड आने पर बैल बेकार हो जाएंगे । उनको कत्लखानों मे पहुंचाने का धंधा बड़े पैमाने पर शुरू हो जाएगा । इससे बचने का एक ही रास्ताहै । वर्तमान सभ्यता के स्थान पर वैकल्पिक सभ्यता का निर्माण शुरू करना होगा । इस हेतु सर्वप्रथम सजीव खेती, स्वास्थ्य स्वावलंबन और अपनाना होगा । इसी के माध्यम से कांट्रेक्ट फार्मिंग को गांव में आने से रोका जा सकता है । दूसरा कार्यक्रम है प्रादेशिक विषमता को ललकारने का । तेलगांना, विदर्भ, माराठावाड़ा, बुंदेलखंड, हरित उत्तरप्रदेश, सौराष्ट्र, गोरखालेंड, भोजपुर आदि एक दर्जन से अधिक प्रदेश आंदोलन की दिशा में बढ़ रहे हैं । यहां के निवासियों पर होने वाले अन्याय उपेक्षा और पक्षपात के खिलाफ होने वाले आंदोलन को सही दिशा देने की जरूरत है । यह मुद्दा भी आर्थिक विषमता का, अवसरों को कुचलने का व मुट्ठी भर लोगों को धनवान बनाने के लिए विकास के नाम पर अमानवीय शेषण का है । अर्थशास्त्र के क्षेत्र में वर्तमान व्यवस्था को बुनियादी तौर पर परिवर्तन की दिशा में मोड़ना होगा । उसमें तीन मुद्दे जोड़ना अनिवार्य हैं-पर्यावरण संतुलन बनाए रखने की नीति, नैतिकता को अपनाने का आग्रह और आर्थिक समता की दिशा में बढ़ने वले कदम । व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन लाना होगा । परंतु पहला कदम गांव से शुरू करना है । पिछड़े प्रदेशों का आंदोलन भी उबलता मुद्दा है । हिंद स्वराज्य शताब्दी वर्ष के अवसर पर इस दिशा में बढ़ना एक सामाजिक कदम होगा । ***
सन् २०२२ तक बाघों की संख्या दोगुनी करने का लक्ष्य
भारत समेत बाघों की मौजूदगी वाले १३ देशों ने वर्ष २०२२ तक तेजी से विलुप्त् होते इस वन्यजीव की संख्या दोगुनी करने के लिए प्रयास शुरू करने का फैसला किया है । बाघ संरक्षण के लिए पिछले दिनों बैंकाक में सम्पन्न पहले मंत्री स्तरीय सम्मेलन मंे तेरह देशों के मंत्रियों और १६ अंतरराष्ट्रीय दानदाता एजेंसियों ने भाग लिया । थाइलैंड के हुआ हिन में संपन्न हुए सम्मेलन मेें संयुक्त रूप से घोषणा की गई कि २०२२ तक दुनिया में बाघों की संख्या दोगुनी करने के प्रयास किए जाएंगे। एशियाई देशों के इस सम्मेलन में भारत अलावा बांग्लादेश, भूटान, कंबोडिया, चीन, भारत, लाओस, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, नेपाल, रूस, थाईलैंड और वियतनाम ने भाग लिया । सम्मेलन के बाद इन देशों के वरिष्ठ अधिकारियों की दो दिवसीय बैठक भी हुई । इसमें बाघों के संरक्षण और उनकी संख्या दोगुनी करने से जुड़े विभिन्न पहलुआें पर चर्चा की गई । बाघों पर पैदा हुए संकट से दुनिया के कई देश चिंतित है । इसको लेकर तरह-तरह के अभियान चलाएं जा रहें हैंलेकिन इसमें आशातित सफलता नहीं मिली है ।

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