सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

२५ साल पहले

पड़त भूमि की समस्यायें
खुशालसिंह पुरोहित

५ जनवरी १९८५ को विश्व वन वर्ष के दौरान प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपनी कामकाज के शुरूआती दौर में पड़त भूमि विकास और बड़े पैमाने पर पौधारोपण की सरकारी घोषणा की थी । दो वर्ष हो गये घोषणाआें को, लक्ष्य था ५० लाख हेक्टेयर में प्रति वर्ष वन लगाने का, अब तक एक चौथाई लक्ष्य भी पूरा नहीं हो सका । लेकिन भूमि समस्या पर सभी दृष्टि से सोच विचार जरूर चला, निकट भविष्य में इसके परिणाम भी निकलेंगे ।
भारत देश एक विशाल भूखंड है, क्षेत्रफल की दृष्टि से यह विश्व का सातवां बड़ा देश है । यह भी सुखद बात है कि भारत का उत्तरी हिमालय प्रदेश का भाग छोड़कर शेष ८० प्रतिशत भाग ऐसा है, जो देशवासियों के उपयोग में आता है । जबकि दूसरे देशों में ऐसा संभव नहीं हो पाता है । वहां पहाड़ों के कारण मैदानी क्षैत्रों की कमी है । भौगोलिक दृष्टि से हमारे देश में अनेक भिन्नायें मिलती है कहीं गगनचुम्बी पर्वत, कही नदियों की गहरी और उपजाऊ घाटियां, कही पठार तो कही लहलहाते खेत, भूमि की लगभग सभी प्रकार की प्राकतिक दशायें यहां देखी जा सकती है । देश के कुल क्षेत्रफल का १०.७ प्रतिशत क्षेत्र पर्वतीय, १८.६ प्रतिशत क्षेत्र पहाड़ियां, २७.७ प्रतिशत पठारी क्षेत्र और ४३ प्रतिशत भू भाग मैदानी है । देश की लगभग ७० प्रतिशत जनसंख्या भूमि पर अवलंबित है ।
भारत के बारे में एक बात स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है कि प्रकृति भारत के बारे में अत्यन्त उदार रही है । प्राकृतिक साधनों की प्रचुरता के कारण ही भारत सोने की चिड़िया कहलाता था । देश की पर्वत श्रेणियों, अनुकुल भौगोलिक स्थिति और जलवायु प्रचुर जल और वन संपदा, समृद्ध खनिज और उपजाऊ मिट्टी देश को समृद्ध बनाने में सक्षम है । विडम्बना यह है कि प्राकृतिक संपदा और मानव शक्ति का समन्वयकारी उपयोग नहीं हो सका है । यही कारण है कि देश के अधिकांश लोग निर्धन है । प्रसिद्ध अर्थशास्त्री मीरा एन्सेट ने ठीक ही कहा है कि भारत निर्धन लोगों से बसा एक धनी देश है ।
देश के अधिकांश लोगों का भूमि से सीधा संबंध आता है, लेकिन हमारे यहां भूमि प्रबंध और भूमि स्त्रोतों के उपयोग की वर्तमान दशा देखकर नहीं लगता कि जमीन के प्रबंध की हमने कोई चिंता की है । देश में भूमि उपयोग की कोई सुविचारित राष्ट्रीय नीति और योजनाबद्ध कार्यक्रम नहीं है । इस कारण शहरी, ग्रामीण भूमि और वन क्षेत्र सभी इलाकों में जो भी भूमि उपलब्ध है, उसकी गंभीर उपेक्षा हो रही है । राष्ट्रीय स्तर पर वन, भूमि और जल के संरक्षण और निगरानी का काम समुचित नहीं होने के कारण ठीक परिणाम नहीं आ पा रहे हैं । भूमि क्षरण की समस्या भी आज गंभीर चुनौती बनती जा रही है ।
भारत में कुल कितनी भूमि क्षरणग्रस्त है, इसके संबंध में अनेक अनुमान है, जो ५५ लाख हेक्टेयर से लेकर १७.५० करोड़ हेक्टेयर तक है । छटी पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में सरकार ने माना था कि देश की कुल ३२.९० करोड़ हेक्टेयर भूमि में से १७.५० करोड़ हेक्टेयर भूमि समस्याग्रस्त है । भूमि संबंधी विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि गैर खेती वाली जमीन ज्यादा उपेक्षित है, इस कारण बीमार है । कृषि भूमि का स्वास्थ्य ठीक है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है । देश में कुल भूमि का तीन चौथाई हिस्सा ऐसा है, जिस पर तक्ताल ध्यान देने की जरूरत है। एक तिहाई ऐसा है जो लगभग अनुत्पादक हो चुका है । आंकड़ों की दृष्टि से देखे तो कृषि भूमि का ६१ प्रतिशत और गैर कृषि भूमि का ७२ प्रतिशत क्षरणग्रस्त है । देश में लगभग १२ प्रतिशत क्षेत्र में रेगिस्तान है ।
भूक्षरणसे जमीन के कटाव को होने वाली क्षति का मूल्यांकन कर पाना असंभव है क्योंकि भूमि की उपजाऊ सतह को एक इंची परत बनने में ५०० से १००० साल लगते है । सन् १९७२ में डॉ. जे.एस. कंवर ने एक अध्ययन में बताया था कि सिर्फ वर्षा द्वारा बहाकर बर्बाद होने वाली उपजाऊ सतह की मात्रा ६०० करोड़ टन प्रतिवर्ष है । इस भूमि के प्रमुख पोषक तत्व एन.पी.के. की लागत लगभग ७०० अरब रूपये है शेष तत्वों का मूल्य इसमें शामिल नहीं है । यह मूल्यांकन १९७२ का है । यदि हवा-पानी से होने वाले कुल भूक्षरण के नुकसान का अंदाज करे तो पता चलेगा कि हम प्रतिवर्ष खरबों रूपये गंवा रहे है।
पड़त भूमि विकास कार्यक्रम को ग्रामीण बेरोजगारी, खाद्यान्न उत्पादन और ग्राम विकास के विविध कार्यक्रमों से जोड़कर इसको प्रमुख राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जा सकता है । जिला ग्रामीण विकास अभिकरण को कुल खर्च राशि का एक निश्चित भाग पड़त भूमि विकास पर खर्च करने को कहा गया है । लेकिन क्या सरकारी बजट और सरकारी लक्ष्य पूर्ति के लिये लगाये गये पौधों से पड़त भूमि में हरियाली आ सकती है ? स्थानीय आवश्यकता और क्षेत्र विशेष की परिस्थिति में अनुकूल पौधों का चयन कर उनको लगाते समय समर्पण भाव से काम करने वाले व्यक्ति/संगठनों के साथ ही जन-जन को इसमें सहभागी बनाना होगा । अब तक तो इस तरह की प्रक्रिया दिखायी नहीं दे रही है । पड़त भूमि विकास कार्यक्रम को जन आंदोलन बनाने के लिये प्रशासकीय संकल्प और जन सहयोग दोनों ही समान रूप से जरूरी है ।
(पर्यावरण डाइजेस्ट में फरवरी १९८७ अंक में प्रकाशित)

कोई टिप्पणी नहीं: