गुरुवार, 18 अगस्त 2016

ज्ञान-विज्ञान
पौधों की बातें सुनने की कोशिश
वैज्ञानिक निजेल वॉलब्रिज ने एक कंपनी बनाई है वाइवेंट और इस कंपनी ने एक यंत्र बनाया है फायटिलसाइन । वॉलब्रिज का दावा है कि पौधे विद्युत संकेतों के रूप में अपनी बात कह सकते हैं, जरूरत है तो उसे सुनने-समझने की । 
पीस लिली नामक एक पौधे पर यह यंत्र लगाया गया है । इस यंत्र में दो इलेक्ट्रोड हैं । एक इलेक्ट्रोड को गमले की मिट्टी में लगा दिय गया है और दूसरा इलेक्ट्रोड लिली के पौधों की पत्ती या तने पर लगाया जाता है । इस तरह बने परिपथ में एक स्पीकर भी लगा है । कभी-कभी इस स्पीकर में से आवाज निकलती है । आवाज निकलने का मतलब है कि इलेक्ट्रोड के बीच वोल्टेज बदल रहा है । जितनी तेज आवाज निकलती है, वोल्टेज परिवर्तन उतना ही तेज हा रहा है । 
यानी फायटिलसाइन ने लिली के पौधे को एक आवाज दे दही है । मगर अभी यह कोई नहीं जानता कि इस आवाज (यानी वोल्टेज परिवर्तन) का अर्थ क्या है ।
वनस्पति वैज्ञानिकों को बिल्कुल भी अंदाजा नही है कि जब इस तरह का वोल्टेज परिवर्तन होता है तो पौधे के अंदर क्या चलता है । अलबत्ता इतना तय है कि समय-समय पर वोल्टेज परिवर्तन होता है । वैज्ञानिक मानकर चल रहे हैं कि यह किसी प्रकार के संवाद का संकेत है । जैव-भौतिक शास्त्री जेरहार्ड ओबरमेयर का मानना है कि इस यंत्र ने बताया है कि समय-समय पर पौधे के अंदर कुछ परिवर्तन होते हैंऔर हमें इन्हें समझने की जरूरत है । 
स्विटजरलैण्ड के पादप वैज्ञानिक एडवर्ड फार्मर ने यह पुष्टि करने का प्रयास किया है कि ये संकेत वास्तव में पौधे से ही निकल रहे हैं । उन्होनें यह रिकॉर्ड करने की कोशिश की कि जब पौधे पर कोई घाव बनता है तो किस तरह के विद्युत संकेत उत्पन्न होते है । उन्होंने देखा कि ऐसा होने पर पौधे में से विद्युतीय संकेत पैदा होते है और फायटिलसाइन में पकड़े गए संकेत इनसे मेल खाते हैं । 
मगर अभी कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता । जैसे यह देखा गया है कि पौधे पर पानी का छिड़काव किया जाए, तो तत्काल वोल्टेज में परिवर्तन होता है । ये परिवर्तन बहुत त्वरित होते हैं और पौधे के द्वारा उत्पन्न नहीं किए जाते । तो एक मत यह बना है कि समय-समय पर होने वाले ये वोल्टेज परिवर्तन पौधो के पर्यावरण में या स्वयं पौधे में चल रहे रासायनिक परिवर्तनों के द्योतक है - यानी ये पौधे द्वारा किसी संप्रेषण के सूचक नहीं  है । 
अब वॉलब्रिज और उनकी कंपनी की कोशिश है कि कई सारे लोग इस यंत्र का उपयोग करें ताकि किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके । 
ओजोन का सुराख सिकुड़ने लगा है 
सन् १९८५ में यह पता चला था कि अंटार्कटिक के ऊपर वायुमण्डल में ओजोन का आवरण बहुत झीन पड़ गया है और इसकी वजह से सूरज से आने वाली पराबैंगनी यानी अल्ट्रावायलेट किरणें  ज्यादा मात्रा में पृथ्वी पर पहुंच रही हैं । ओजोन आवरण (जिसे ओजोन की छतरी भी कहा जाता है) का इस तरह पतला होना इस बात का प्रमाण था मनुष्यों ने अपने क्रियाकलाप से वायुमण्डल को कितना नुकसान पहुंचाया है । मगर अब अच्छी खबर है कि ओजोन आवरण वापिस दुरूस्त हो रहा है । 
दरअसल, कई सारे उपकरण में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) के उपयोग का परिणाम था कि यह पदार्थ वायुमण्डल के ऊपरी हिस्से में पहुंचने लगा था । सीएफसी ओजोन के विनाश का एक प्रमुख कारण था । शोधकर्ताआें ने बड़ी मुश्किल से इस बात के प्रमाण एकत्रित किए थे कि वास्तव में सीएफसी ही ओजोन आवरण के विनाश का जिम्मेदार है क्योंकि उद्योग जगत तो इस बात को मानने को कदापि तैयार नहीं था । काफी प्रमाण एकत्रित हो जाने पर वैज्ञानिकों की कोशिशों के फलस्वरूप मॉन्ट्रियल समझौता हुआ था । इसी मॉन्ट्रियल समझौते की बदौलत सीएफसी का उपयोग धीरे-धीरे कम होता गया । 
सीएफसी और ओजोन की क्रिया काफी पेचीदा होती है । जाड़े के मौसम मेंनाइट्रिक अम्ल और पानी संघनित होकर बादल का रूप ले लेते है । इन बादलों की सतह पर क्रिया के चलते सीएफसी का विघटन होता है और क्लोरीन बनती है । यह क्लोरीन ओजोन से क्रिया करके उसे नष्ट करती है । मगर यह क्रिया सिर्फ प्रकाश की उपस्थिति में होती है । जाड़े के दिनों में तो अंटार्कटिका पर प्रकाश नहीं पहुंचता । मगर जैसे ही वसंत के आगमन के साथ वहां धूप आने लगती है तो ओजोन का नाश तेजी से होने लगता है । इसी वजह से अक्टूबर के महीने में सर्वाधिक नुकसान होता है और वैज्ञानिक ओजोन आवरण का अध्ययन इसी दौरान करते हैं । 
एम.आई.टी. की मौसम वैज्ञानिक सुसन सोलोमन ने साइन्स में प्रकाशित अपने शोध पत्र में बताया है कि उन्होनें ओजोन के अध्ययन के लिए उपग्रह से प्राप्त् आंकड़ों, धरती पर किए गए मापन और मौसम संबंधी गुब्बारों से मिली जानकारी का उपयोग किया है । उन्होनें पाया कि २००० के बाद से ओजोन छिद्र में ४० लाख वर्ग किलोमीटर की कमी आई है, जो भारत के क्षेत्रफल से बड़ा है । 
अपने अध्ययन में उन्होनें यह भी पाया कि कमी वास्तव में रसायनों के घटे हुए उपयोग का ही परिणाम   है । इसके लिए उन्होनें वायुमण्डल का एक त्रि-आयामी मॉडल विकसित किया ताकि ओजोन छतरी को नुकसान पहुंचाने वाले अलग-अलग कारकों को अलग-अलग करके देख सके । इसके आधार पर उनका निष्कर्ष है कि ओजोन आवरण में सुधार रसायनों का उपयोग घटने की वजह से ही हो रहा है । इससे पहले २०११ में किए गए अध्ययन में भी ओजोन आवरण की स्थिति में सुधार के संकेत मिले थे मगर तब यह तय नहींहो पाया था सुुधार की वजह क्या है । 
हालांकि अभी इस अध्ययन के निष्कर्षो पर वैज्ञानिकों के बीच विचार-विमर्श जारी है मगर इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर लिए गए राजनैतिक निर्णय कारगर हो सकते है । 

अनार मांसपेशियों को बेहतर बनाता है 
जब हम अनार, स्ट्राबेरी या अखरोट खाते हैं तो हमारा शरीर एक रसायन बनाता है जिसका नाम युरोथिलिन-ए है । शोधकर्ताआें का मत है कि युरोथिलिन-ए मांसपेशियों को ज्यादा काम करने में सक्षम बनाने का काम करता है । स्विट्जरलैण्ड के ईकोल पोलीटेक्निक के जोहान ऑवर्क्स और उनकी साथी यह परखना चाहते थे कि क्या ये खाद्य पदार्थ उतने ही लाभदायक हैं, जितना कि दावा किया जाता है । उन्होंने अपने प्रयोगों के परिणाम नेचर मेडिसिन में प्रकाशित किए है । 
जब उन्होनें युरोथिलिन-ए की खुराक एक कृमि सेनोरेब्डाइटिस एलेगेंस को दी तो ये कृमिऔसतन ४५ प्रतिशत अधिक उम्र तक जीवित रहे । और जब यही रसायन बुजुर्ग चूहों को पिलाया गया तो वे ४२ प्रतिशत अधिक दौड़ पाए । और सबसे बड़ी बात यह देखी गई कि इन चूहों में अतिरिक्त दौड़ पाने की यह क्षमता अधिक मांसपेशियां बनने की वजह से पैदा नहीं हुई थी । इसका मतलब है कि युरोथिलिन-ए मांसपेशियों की मात्रा को नहीं बढ़ाता बल्कि उनकी गुणवत्ता को बढ़ाता है । तो आखिर कैसे ?
   जांच पड़ताल से पता चला कि युरोथिलिन-ए  मांसपेशियों में से क्षतिग्रस्त माइटो-कॉण्ड्रिया नामक उपांगों को निकाल बाहर करता है । गौरतलब है कि माइटेकॉण्ड्रिया हमारी कोशिकाआें के पॉवरहाउस होते हैं - इन्हीं में ग्लूकोज का ऑक्सीकरण होता है और ऊर्जा मुक्त होती है । जब क्षतिग्रस्त माइटोकॉण्ड्रिया को हटा दिया जाता है तो शेष बचे तंदुरूस्त माइटोकॉण्ड्रिया  विभाजित होकर संख्या वृद्धि करते  है । 

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