गुरुवार, 18 अगस्त 2016

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष  
मानव विकास मापदंडों पर पिछड़ता भारत
डॉ. रामप्रताप गुप्त 

सामान्य तौर पर विकास के मापदण्ड के रूप में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर को ही प्रयुक्त किया जाता है और राष्ट्र इसी में वृद्धि को अधिकतम बनाने के लक्ष्य को लेकर अपनी आर्थिक नीतियां बनाते हैं । 
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन के अनुसार मात्र प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि से यह तय नहीं होता कि इससे व्यक्तियों की कार्यक्षमता में समुचित वृद्धि हो पा रही है । प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ-साथ लेगों की शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में वृद्धि की दर भी समुचित हो तभी जाकर व्यक्ति की विभिन्न लक्ष्यों में से समुचित लक्ष्य का चुनाव कर उसे प्राप्त् करने की क्षमता में वृद्धि हो सकेगी । 
इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए और प्रो. अमर्त्य सेन के विचारों से प्रभावित होकर पाकिस्तानी अर्थशास्त्री प्रो. महबूब उल हक ने विकास के बेहतर मापदण्ड के रूप में सन १९९० में मानव विकास सूचकांक की अवधारणा प्रस्तुत की । मानव विकास सूचकांक की गणना में प्रति व्यक्ति आय के साथ-साथ शैक्षणिक और स्वास्थ्य स्तर में बेहतरी को भी शामिल किया जाता है और इन तीनों को समान महत्व प्रदान किया जाता है । इस सूचकांक का अधिकतम मूल्य १ हो सकता    है । 
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम सन १९९० से ही प्रतिवर्ष विभिन्न मानव विकास सूचकांको की रिपोर्ट प्रकाशित करता आ रहा है और सन २०१५ की रिपोर्ट सन २०१४ के आंकड़ों पर आधारित है । यह इसकी २५वीं रिपोर्ट है । 
इस रिपोर्ट में प्रदत्त भारत संबंधी आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन वर्षो में विश्व व्यापी मंदी की पृष्ठभूमि में भी अपनी राष्ट्रीय आय की ऊंची दर को बनाए रखने में सफल भारत अपनी त्रुटिपूर्ण विकास नीतियों के कारण एक ओर तो वह आय के वितरण में बढ़ती विषमता को रोकने में विफल रहा   है । दूसरी ओर उसकी आय वृद्धि सामाजिक विकास और शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाआें के बेहतर स्तर के रूप में परिणित नहीं हो सकी है । अक्टूबर सन् २०१५ में प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में क्रेडिट सुइस (भारत में कार्यरत एक वित्तीय सेवा कंपनी ) ने बताया था कि भारत की ७६ प्रतिशत संपत्तियों पर चोटी के १० प्रतिशत व्यक्तियों का कब्जा है और समय के साथ-साथ इस वर्चस्व में वृद्धि की प्रकृतिदिख रही है । आय पर कुछ लोगों के इस बढ़ते वर्चस्व के कारण सामान्य व्यक्ति की आय मेंमात्र सीमान्त वृद्धि ही हो सकी    है ।
सामान्य व्यक्ति की आय में इन वर्षो में मात्र सीमान्त वृद्धि हो रही थी, अत: उसकी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाआें तक पहुंच को बनाए रखने के लिए इन क्षेत्रों में सार्वजनिक सेवाआें का तेजी से विस्तार होना   था । भारत इस दृष्टि से भी नितांत असफल रहा है । शिक्षा पर बिठाए गए कोठारी आयोग (१९६६) की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि भारत को शिक्षा पर अपनी राष्ट्रीय आय का कम से कम ६ प्रतिशत हिस्सा खर्च करना चाहिए । इसी तरह स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि देश को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें पर कम से कम २.५ से ३ प्रतिशत आय खर्च करना चाहिए । 
लेकिन आज भी भारत सार्वजनिक शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का मात्र ४ प्रतिशत और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें पर मात्र १.०० प्रतिशत ही खर्च रहा है । शिक्षा औश्र स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय के निम्न स्तर के कारण आम लोगों की इन तक समुचित पहुंच नहीं बन सकी है और यही कारण है कि देश में आय वृद्धि की ऊंची दर के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर मेंसमुचित वृद्धि नहीं हो सकी है । 
मानव विकास सूचकांको की गणना में प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा और स्वास्थ्य स्तर को समान महत्व दिया जाता है, अत: राष्ट्रीय आय में वृद्धि के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य के मापदण्डोंमें तदनुरूप वृद्धि नहीं होने से भारत के मानव विकास सूचकांको की वृद्धि की दर भी धीमी पड़ गई है । सन् १९९०-२००० के बीच मानव विकास सूचकांको में १.४४ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई थी जो सन् २०००-१० की अवधि में बढ़कर १.६७ प्रतिशत हो गई थी । परन्तु सन् २०१०-१४ अवधि में यह गिरकर ०.९७ प्रतिशत प्रति वर्ष ही रह गई    है । इस समय भारत का मानव विकास सूचकांक ०.६०९ है जो हमसे कम आय वाले कुछ राष्ट्रों के मानव विकास सूचकांको से भी कम है । 
शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजनिक सेवाआें का समुचित विस्तार न होने से देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को बहुआयामी गरीबी की जकड़न से भी मुक्ति नहीं दिलाई जा सकी है । लैंगिक समता और महिलाआें के सशक्तिकरण की दृष्टि से भारत अपने पड़ोसी देशों (जैसे बंगलादेश और पाकिस्तान) की तुलना में भी पिछड़ रहा है । हमारे नेता भले ही इण्डिया शाइनिंग या आने वाले वर्षो में भारत को विश्व की अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाने वाला राष्ट्र कहते रहें, यह मानव सूचकांको की दृष्टि से तो पिछड़ता जा रहा है । 
सन २०१४ में मानव विकास सूचकांको के क्रम में विश्व के राष्ट्रों में भारत का १३०वां है । जो उसकी प्रति व्यक्ति आय के क्रम से ४ अंक नीचे है । कुछ वर्षो पूर्व भारत का क्रम १२४वां था । मध्यम आय वर्ग के राष्ट्रों की सूची में, मानव विकास सूचकांक के मामले में भारत का स्थान नींच से दूसरा है । 
मानव विकास सूचकों में समुचित गति से सुधार की आने वाले वर्षो में भी कोई संभावना नहीं है । नई एन.डी.ए. सरकार के प्रथम दो वर्षो के बजटों मे शिक्षा और स्वास्थ्य के बजटों में २० प्रतिशत की कमी आई है । परिणाम यह होगा कि आने वाले वर्षो में भारत में मानव विकास सूचकांको की दृष्टि से वृद्धि दर और कम हो जाएगी, शायद रूक ही   जाए । 
इस पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि अगर भारत आने वाले वर्षो में अपने क्रम को  और नीचे लान से रोकना चाहता है या उसमें सुधार लाना चाहता है तो शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाआें में सार्वजनिक निवेश में भारी वृद्धि करना होगी । ऐसा नहीं किया जाता है तो हम कुवैत जैसे राष्ट्र का अनुसरण कर रहे होगे । विश्व के राष्ट्रों में आय की दृष्टि से कुवैत का स्थान उसके स्वास्थ्य एवं शिक्षा की दृष्टि से स्थान की तुलना में ४० स्थान ऊपर है । दूसरी और, क्यूबा की स्थिति बिल्कुल विपरीत है । क्यूबा का स्वास्थ्य एवं शिक्षा की दृष्टि से जो स्थान है वह उसकी आय की दृष्टि से स्थान की तुलना में ४७ पायदान ऊपर है । 
भारत को चाहिए था कि वह क्यूबा मॉडल को अपनाकर मानव विकास सूचकांको की दृष्टि से बेहतर प्रदर्शन करें । परन्तु पिछले दो वर्षो के केन्द्र सरकार के बजटों में शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बजटों में जो २० प्रतिशत कमी की गई है, उसका अर्थ यह हुआ कि अब आम आदमी के लिए सार्वजनिक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाआें तक पहुंच कठिन हो जाएगी । इस पृष्ठभूमि में संभव है कि प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से शायद इस क्रम में ऊपर उठते जाएंगे मगर स्वास्थ्य एवं शिक्षा की दृष्टि से नीचे फिसलते जाएंगे । हमें समय रहते मानव विकास सूचकांक के क्रम के निम्न स्तर की स्थिति से उबरना ही होगा तभी जाकर आने वाले वर्षो में हम अपनी प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की दर को भी कायम रख सकेगे ।

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