गुरुवार, 18 अगस्त 2016

पर्यावरण परिक्रमा
सबसे गर्म साल साबित हो रहा है २०१६ 
संयुक्त राष्ट्र की मौसम एजेंसी ने कहा है कि इस साल के शुरूआती छह महीनों के वैश्विक तापमान ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं । इस कारण यह अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो रहा है । विश्व मौसमविज्ञानी संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने कहा कि आर्कटिक सागर की बर्फ का जल्दी और तेजी से पिघल जाना उस जलवायु परिवर्तन और कार्बन डाई ऑक्साइड के स्तरों का एक अन्य संकेत हैं, जिनके कारण ग्लोबल वॉर्मिग होती है । 
डब्ल्यूएमओ के महासचिव पेट्री तालस ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के दशकों से चले आ रहे रिकॉर्ड नए स्तरों पर पहुंच रहे हैं । इनमें २०१५-१६ के भीषण अल नीनो की एक अहम भूमिका है । उन्होनें कहा कि अन नीनो की घटना, जिसने पृथ्वी के तापमान को पलट दिया, अब यह जा चुकी है लेकिन ग्रीनहाउस गैसों के कारण हुए जलवायु परिवर्तन में बदलाव नहीं होगा । 
नासा के अनुसार वर्ष २०१६ के शुरूआती छह माह मेंऔसत तापमान १९ वीं सदी के अंत के पूर्व औघोगिक काल की तुलना में १.३ डिग्री सेल्सियस ज्यादा था । डब्ल्यूएमओ अपनी वार्षिक जलवायु रिपोर्ट के लिए वैश्विक तापमान आंकड़ों के आंकलन के लिए विश्व की कई मौसम एजेंसियों के आंकड़ों का इस्तेमाल करता है । जनवरी जून के लिए वैश्विक थल एवं महासागरीय औसत तापमान २०वीं सदी के औसत से १.०५ डिग्री सेल्सियस ज्यादा    था । इसने वर्ष २०१५ के रिकॉर्ड को तोड़ दिया । 
रिपोर्ट में कहा गया कि कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा ने ४०० पार्ट पर मिलियन की सांकेतिक सीमा को पार कर लिया है ।      इस गैस का स्तर मौसम के हिसाब से बदलता तो रहता है लेकिन इसमेंवृद्धि ही होती दिख रही  है । तालस ने कहा कि यह जलवायु परिवर्तन से जुड़े पेरिस समझौते    को मंजूरी देने और लागू किए जाने और कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्थाआें एवं नवीनकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ने में तेजी लाने की पहले से भी अधिक अनिवार्यता को रेखांकित करता है । 

देश में ४० प्रतिशत नकली कीटनाशकों का उपयोग 
किसानों में अशिक्षा और जागरूकता का अभाव, व्यापारियों के पास पर्याप्त् तकनीकी विशेषज्ञता का नहीं होना तथा दोषपूर्ण बाजार व्यवस्था के कारण देश में लगभग ४० प्रतिशत नकली कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है जिससे न केवलफसलों पर इसका दुष्प्रभाव  होता है बल्कि पर्यावरण भी बुरी तरह प्रभावित होता है । 
उद्योग जगत के अनुमान के अनुसार वित्त वर्ष २०१४ में बिकने वाले कुल कीटनाशकों का ४० प्रतिशत नकली था । ये उत्पाद घटिया गुणवत्ता के होते हैंऔर कीटों को मारने में सक्षमनहीं होते । इनसे पैदा होने वाले सह उत्पाद जमीन और वातावरण को काफी नुकसान पहुंचाते है । किसानों में शिक्षा और जागरूकता की कमी, क्षेत्रीय भाषाआें और बोलियों में भिन्नता के कारण एग्रोकेमिकल कंपनियों के लिए किसानों तक पहुंचने और उन्हें इसके फायदों के बारे में शिक्षित करने का काम कठिन होता है । किसानों और निर्माताआें के बीच की मुख्य कड़ी खुदरा व्यापारी है जिनके पास पर्याप्त् तकनीकी विशेषज्ञता नहीं है और वे किसानों को उचित उत्पाद की जानकारी प्रदान कराने में असमर्थ   है । किसानों में नए तरीकों को अपनाने की अनिच्छा भी जागरूकता में कमी के कारण है । फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज और टाटा स्ट्रेटजिक मैनेजमेंट ग्रुप (टीएसएमजी) ने मिलकर नकली कीटनाशकों को लेकर एक अध्ययन किया है जिसमें कहा गया है कि १५ से २५ प्रतिशत संभावित फसल कीटों, खरपतवारों और बीमारियों के कारण बर्बाद हो जाती है । 
इस क्षेत्र के सामने कई चुनौतियां है और समाधान के लिए भारत गुणवत्ता वाले फसल सुरक्षा केमिकल्स के उत्पादन का संभावित अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र भी बन सकता    है । अमेरिका, जापान और चीन के बाद भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा एग्रोकेमिकल्स (कृषि रसायन) उत्पादक है । वित्त वर्ष २०१५ में इस क्षेत्र से ४.४ अरब अमेरिकी डॉलर के उत्पाद पैदा हुए और ७.५ प्रतिशत की दर से विकास करते हुए वित्त वर्ष २०२० तक इसके ६.३ अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है । करीब ५० प्रतिशत मांग घरेलू उपभोक्ताआें की तरफ से आती है और शेष निर्यात होता है । इसी दौरान घरेलू मांग के ६.५ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से और निर्यात प्रतिवर्ष ९ प्रतिशत की दर से बढ़ने की उम्मीद है । 

अब रोबोट बनाएंगे आपका घर 
अब ३डी प्रिटिंग तकनीकी के जरिए बिना इंसानी हाथ लगे घर बनकर तैयार हो जाएगा । घर भी ऐसा जिसे आप आसानी से ट्रक के पीछे लादकर कहीं भी ले जा सकेगे। अभी जो घर बन रहे हैंउनसे कई गुना सस्ती कीमत में इस तकनीक के जरिए घर बनकर तैयार हो  जाएगा । 
घर बनाने में जो महीनों का वक्त लगता है वो भी बचेगा । घर बनाने की इस निर्माण विधि को कंटूर क्राफ्िटंग के नाम से भी जाना जाता है । इस निर्माण तकनीकी के जरिए घर बनाने में निर्माण कोस्ट में ३० फीसदी तक की कमी  आएगी । ३डी प्रिटिंग निर्माण विधि की शुरूआत बेहरोख खोशनेविस ने १९९६ में ही कर दी थी । चीनी कंपनी विंसन ऐसी तकनीकी के जरिए घर और अपार्टमेंट बना चुकी है । इसमें घर के अलग-अलग भागों को पहले कहीं और बनाया गया और बाद में निर्माण की जगह पर एक साथ जोड़ दिया गया । 
बेहरोख के मुताबिक अमरीकी बिल्डिंग कोड ने ऐसे घरों के लिए लंबी अवधि बनाई है ताकि उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके । दुबई में २०३० तक २५ फीसदी ३डी घर बनकर तैयार होगें । 
३डी प्रिंटिग निर्माण विधि से घर बनाने के लिए कम्प्यूटर के जरिए रोबोट गैन्ट्री को निर्देश दिया    जाएगा । मशीन की नोक घर को आकार देगी । एक ही लैप में घर की पूरी रूपरेखा तैयार हो जाएगी । उसके बाद दूसरी लेयर में फिनिशिंग की जाएगी । घर की छत को क्रेन से उठाकर रखा जाएगा । इस तकनीकी के जरिए घर बनाने के लिए इंसानी हाथोंको ईट लगाने की जरूरत नहीं होगी । दो साल बाद ऐसे घर बनने लगेगे । 
नासा और खोशनिवास ३डी प्रिटिंग के जरिए चांद पर संरचनाआें का निर्माण करने के लिए एक साथ काम कर रहे हैं । इसके लिए चांद पर ही मौजूद सामग्री का इस्तेमाल किया जा रहा है । 

एस्बेस्टस की भयावहता से अनजान है हम 
पूरी दुनिया कैंसर के डर से जिस खतरनाक ऐस्बेस्टस के इस्तेमाल पर रोक लगा रही है, भारत उसके खतरों से अनजान है । भारत में ज्यादा से ज्यादा ऑटो पार्ट्स को बनाने में जानलेवा ऐस्बेस्टस का इस्तेमाल किया जा रहा है । इसे अभ्रक भी कहा जाता है । इसके खतरों को देखते हुए दुनियाभर के बहुत से देशों में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया है । 
ऑटोमोबाइल के पार्र्ट्स में इस्तेमाल होने वाले इस पदार्थ से लाखों ऑटो टेक्निशियन पर कैंसर का खतरा है । आश्चर्य की बात यह है कि भारत का पर्यावरण मंत्रालय इस खतरे से पूरी तरह से अनजान नजर आ रहा है । पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि इस मामले में अभी तक कोई स्टडी सामने नहीं आई    है ।
पर्यावरण मंत्रालय के ज्वाइंट सेक्रेटरी विश्वनाथ सिन्हा ने बताया कि मंत्रालय को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि ब्रेक, क्लच और हीट सील जैसे ऑटो पार्ट्स बनाने में अभ्रक का इस्तेमाल हो रहा है । 
श्री सिन्हा से पूछा गया कि जब विदेशों में इसे बैन कर दिया गया तो भारत में अभ्रक का इस्तेमाल क्यों हो रहा है ? उनका जवाब था कि अभी तक भारत में किसी भी विभाग की तरफ से सरकार को अध्ययन की ऐसी रिपोर्ट नहीं उपलब्ध कराई गई जिससे कोई बड़ा एक्शन लिया जा सके । पूर्व में हुए कई अध्ययनों मे सामने आया था कि अभ्रक के इस्तेमाल से मेसोथेलियोमा जैसा खतरनाक कैंसर हो सकता है । उसी के बाद विदशोंमें इसे बैन कर दिया गया । 
हालांकि पर्यावरण मंत्रालय के पास २०१० में जारी की गई गाइडलाइन में ऐस्बेस्टस आधारित इण्डस्ट्रीज के पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभाव के बारे में लिखा गया है । इन सभी गाइड लाइन्स में ऐस्बेस्टस की इमिशन लिमिट और इसके डिस्पोजल के तरीके भी बताए गए    है । अधिकांश ऑटो कंपनियां अपने निर्यात वाले ऑटो पाट्र्स के लिए इनका पालन कर रही है । भारत में खासतौर से ब्रेक, क्लच और ब्रेक लाइन इस खतरनाक अभ्रक से ही बनाए जा रहे हैं । 

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