सोमवार, 19 सितंबर 2016

आर्थिक जगत 
लूट खसोट के नए तरीके
जया रामचन्द्रन 

प्राकृतिक संसाधनों के  निर्यात पर आधारित देशों का बड़े पैमाने पर आर्थिक शोषण किया जा रहा है । दुखद यह है कि इसमें भारत एवं चीन जैसे विकासशील देश भी शामिल हैं जो स्वयं अपने साथ भेदभाव की शिकायत करते रहते    हैं । कम मूल्य के बिल बनवाने से निर्यातक देशों को राजस्व का जबरदस्त घाटा उठाना पड़ता है। इसकी कीमत उन्हें अपने शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक कल्याण के  लिए धन की कटौती के रूप में चुकानी पड़ती है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक नई रिपोर्ट में अन्य देशों के अलावा चीन, जर्मनी, भारत, इटली, जापान, नीदरलैंड, स्पेन, स्विटजरलैंड, ब्रिटेन व अमेरिका को उस सूची में शामिल किया है जो कि तमाम वस्तु आधारित विकासशील देशों (कमाडिटी डिपेंडेंट डेवलपिंग कंट्रीज या सी डी डी सी) से कम राशि के ``व्यापार बिल`` बनवा कर लाभान्वित हो रहे हैं । 
व्यापार त्रुटिपूर्व बिलिंग का अर्थ है कि सीमा शुल्क (कस्टम डयूटी) बचाने के लिए जानबूझकर कम राशि का बिल बनवाना । जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (अंकटाड) का कहना है कि इस प्रक्रिया के द्वारा विकासशील देशों से पूंजी को गायब किया जा रहा है और अवैध रूप से वित्तीय प्रवाह किया जा रहा है। तकरीबन ९० प्रतिशत विकासशील देशों को अपने यहां से कच्च्ेमाल के निर्यात से होने वाली आय में से अरबों डॉलर की आमदनी करों के रूप में प्राप्त नहीं हो पा रही है, जो कि अन्यथा देश के विकास पर खर्च  होती । ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि सन् २०३० तक टिकाऊ विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) प्राप्त करने हेतु प्रतिवर्ष ३.९ खरब डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी ।
अंकटाड के अनुसार सन् २०१२-१३ में विकासशील देशों में से प्रत्येक तीन में से दो देश सी डी डी सी की श्रेणी में आते थे । इससे यह भी आभास होता है सन् २००९-१० एवं २०१२-१३ के मध्य कच्च्े माल पर तकरीबन आधे विकासशील देशों की निर्भरता इसके निर्यात पर बढ़ी   है । कच्च्ेमाल निर्यात (कमॉडिटी) पर न्यूनतम विकसित  (एल डी सी) अर्थात संवेदनशील देशों की निर्भरता तो और भी बढ़ गई है । सन् २०१२-१३ में न्यूनतम विकसित देशों में से ८५ प्रतिशत देश सी डी डी सी की श्रेणी में आ गए थे। इतना ही नहीं सन् २००९-१० की तुलना में उनकी स्थिति और भी बद्तर हो गई है। अंकटाड के आंकड़ों से जाहिर होता है कि विकासशील देशों की कमाडिटी निर्यात पर अत्यन्त निर्भरता है । इसके अलावा इनका निर्यात अत्यंत सीमित दायरे में होता है और इससे मिलने वाले राजस्व की निर्भरता गिने चुने प्राथमिक उत्पादों तक सीमित   है । उदाहरण के लिए सन् २०१२-१३ में अफ्रीका के ४५ सी डी डी सी देशों में से कोई भी देश जो इनका निर्यात करता है का ६० प्रतिशत निर्यात प्राथमिक तौर पर तीन वस्तुओं का ही होता रहा ।
अंकटाड ने संबंधित आंकड़े दो दशकों के गहन अध्ययन के बाद जारी किए हैं । इनमें निर्यात संबंधी विभिन्न कच्च्ेमाल जैसे कोको, तांबा, सोना व तेल आदि शामिल हैं और इसमें नमूना देशों के तौर पर चिली, आइवरी कोस्ट, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका और जांबिया को शामिल किया गया है। अंकटाड के सचिव मुखिशा किटुयी का कहना है कि इस शोध ने इस मुद्दे की व्यापकता को विस्तार से सामने रखा है और यह तथ्य भी सामने लाया है कि कुछ विकासशील देश अपने स्वास्थ्य एवं शिक्षा के बजटों के लिए चंद कच्च्ेमाल (कमॉडिटी) के निर्यात पर निर्भर हैं। उनके अनुसार किसी एक विकासशील देश का कमॉडिटी निर्यात उसके कुल निर्यात का ९० प्रतिशत तक हो सकता है । इसके अलावा इस अध्ययन ने अवैध व्यापार के इस नये स्वरूप पर नए सिरे से सवाल भी खड़े किए हैं । अतएव आयातक देशों एवं कंपनियों को यदि अपने सम्मान को बनाए रखना है तो उन्हें पारदर्शिता बढ़ानी होगी और अंकटाड के इस शोध में सहयोग करना होगा ।
अंकटाड अध्ययन ने स्पष्ट किया है कि सन् २००० एवं २०१४ के मध्य दक्षिण अफ्रीका से ७८.२ अरब डॉलर के कम राशि (अंडर इनवायसिंग) के बिल काटे गए जो कि कुल सोना निर्यात का ६७ प्रतिशत बैठता है । इसमें जिन देशों के साथ अधिकतम व्यापार किया गया उनमें प्रमुख हैं भारत (४० अरब डॉलर), जर्मनी (१८.४ अरब डॉलर), इटली (१५.५ अरब डॉलर) एवं ब्रिटेन (१३.७ अरब डॉलर)। इसी तरह सन् १९९६ से २०१४ के मध्य नाइजीरिया द्वारा अमेरिका को तेल की कुल आपूर्ति में से ६९.८ अरब डॉलर की या २४.९ प्रतिशत की अंडर इनवाईसिंग की गई । 
जांबिया ने सन् १९९५ से २०१४ के मध्य स्विटजरलैंडको २८.९ अरब डॉलर मूल्य के तांबे का निर्यात किया । यह उसके कुल तांबा निर्यात का ५० प्रतिशत बैठता है । लेकिन यह निर्यात स्विटजरलैंड की खाताबहियों में कहीं भी नजर नहीं आता । इसी क्रम में देखे तो चिली ने सन् १९९० से २०१४ के मध्य नीदरलैंड (हालैंड) को १६ अरब डॉलर मूल्य का तांबा निर्यात किया जिसका उल्लेख वहां की खाताबहियों में है ही नहीं । इसी तरह आइवरी कोस्ट ने सन् १९९५ से २०१४ के मध्य नीदरलैंड को १७.२ अरब डॉलर जो कि उनके कुल कोका निर्यात का ३१.३ प्रतिशत होता है, निर्यात किया । लेकिन नीदरलैंड के खातों में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है । इस मामले में चीन भी पीछे नहीं है। दक्षिण अफ्रीका द्वारा सन् २००० एवं २०१४ के मध्य भेजे गए कच्च्े लोहे के निर्यात में से ३ अरब डॉलर की राशि की बिलिंग ही नहीं  हुई । अंकटाड के इस नमूना अध्ययन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न देशोंऔर  विकासशील देशों के आपसी शोषण को समझना था ।   

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