सोमवार, 19 सितंबर 2016

ज्ञान-विज्ञान
बारूदी सुरंगों और बीमारियों का पता लगाएंगे माउस
वैज्ञानिकों ने माउस नामक जन्तु में जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए कुछ विशिष्ट गंधों के प्रति अति-संवेदना पैदा करने में सफलता प्राप्त् की है । माउस एक प्रकार का चूहा होता है । अब यह संभव हो जाएगा कि ये माउस बारूदी सुरंगों और कुछ बीमारियों  की गंध को पहचान पाएंगे और डॉक्टरों व सिपाहियों के मददगार बन  जाएंगे । 
     बारूदी सुरंग को पता लगाने में प्रशिक्षित कुत्तों और चूहों की मदद तो पहले से ही ली जा रही थी । नया अनुसंधान दर्शाता है कि कुत्तेकम रक्त शर्करा और कुछ किस्मे के कैंसरों के रासायनिक हस्ताक्षरों को भी सूंध सकते है । माउस भी गंध के प्रति काफी संवेदनशील होता है । इसमें कम से कम १२०० जीन्स गंध संवेदना के लिए जवाबदेह हाते हैं । जहां कुत्तों और चूहों हैं, वहीं मनुष्यों में इनकी संख्या मात्र ३५० होती है । तंत्रिका वैज्ञानिक पौल फाईस्टाइन पिछले कई वर्षो से इस कोशिश में थे कि माउस की गंध संवेदना को और बढ़ाया जाए । यह पता चला कि भ्रूण विकास के दौरान इनमें प्रत्येक गंध तंत्रिका एक खास रसायन के प्रति संवेदी बन जाती है । यानी प्रत्येक गंध ग्राही एक विशिष्ट गंध को पकड़ता है । फाईस्टाइन चाहते थे कि इनमें से चंद ग्राहियों की संख्या बढ़ाई जाए ताकि माउस कुछ विशिष्ट गंध के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो जाए । और उन्होनें जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए सफलता प्राप्त् की कि किसी माउस में कार्य खास गंध ग्राही ज्यादा संख्या में बने । ऐसा ही एक ग्राही एसिटीफीनोन को पहचानता है जिसकी गंध रातरानी के फूलोंजैसी होती है । 
इस तरह से वे और उनके साथी अलग-अलग ग्राहियों की संख्या बढ़ाने में सफल रहे । जब इन   माउस को सादा पानी और विशिष्ट गंधयुक्त पानी दिया गया तो ये दोनों में फर्क कर पाए । यहां तक कि गंधयुक्त पानी में जब गंध वाले रसायन की मात्रा बहुत कम कर दी गई तब भी ये माउस उसे पहचान पाते थे । 
अब कोशिश यह है कि इन माउस को मनचाही गंध के प्रति संवेदी बनाया जाए । जैसे कुछ बीमारियों में मरीज के शरीर से विशिष्ट गंध पैदा होती है । या बारूदी सुरंगों से भी कुछ गंधयुक्त रसायन निकलते है । यदि ये माउस इन्हेंपहचान पाते हैं तो बहुत मददगार साबित होगे । और तो और वैज्ञानिकों की कोशिश है कि यह क्षमता कुछ निर्जीव कम्प्यूटर चिप्स पर आरोपित कर दी जाए, तो जन्तु के उपयोग की जरूरत नहीं रहेगी । अलबत्ता, दिल्ली अभी दूर है । 

मधुमक्खियां अपने छत्ते को ठंडा रखती हैं 
सामान्य मधुमक्खियां एपिस मेलिफेराभी अपने छत्ते के वातावरण को बहुत अधिक उतार-चढ़ाव से बचाती है मगर विशाल मधुमक्खी (एपिस डॉर्सेटा) की तो बात ही कुछ निराली है । जहां सामान्य 
मधुमक्खिंया अपने छत्ते किसी पेड़ के कोटर या चट्टान की खोह में बनाती है वहीं विशाल मधुमक्खियां अपने छत्ते खुले में पेड़ों की शाखाआें पर बनाती है । 
विभिन्न किस्म की मधुमक्खियां अपने छत्ते का तापमान  कम रखने के लिए पानी का छिड़काव करती हैं, अपने पंखों को झलकर हवा चलाती है या कभी-कभी तो एक साथ छत्ते से दूर जाकर मल त्याग करती हैं, जिसके साथ बहुत सारी गर्मी भी चली जाती है । मगर हाल में ही ऑस्ट्रिया के ग्राज विश्वविघालय के जेराल्ड कास्टबर्गर और उनके साथियों ने नेपाल के चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पाई जाने वाली विशाल मधुमक्खी के छत्तों का अध्ययन करके कुछ रोचक परिणाम प्रकाशित किए हैं । छत्ते के तापमान का अध्ययन करने के लिए उन्होनें इन्फ्रारेड कैमरोंका उपयोग करके छत्तों की फिल्में उतारी हैं । 
फिल्म से पता चलता है कि किसी भी समय छत्ते पर ठंडे चकत्ते होते हैं जो बनते-बिगड़ते रहते हैं । शोधकर्ताआें ने यह भी पाया कि दिन के सबसे गर्म समय में इन ठंडे चकत्तों की तादाद भी सबसे अधिक होती है । एक ही छत्ते पर उन्होनें हर आधे घंटे में ऐसे छ: चकते बनते  देखे । 
शोधकर्ताआें का विचार है कि ये वे स्थान है जहां से बाहर की ठंडी हवा को खींचकर अंदर भेजा जाता है । इस तरह से अंदर का तापमान थोड़ा कम हो जाता है । शोधकर्ताआें ने पाया कि इसके बाद पूरा छत्ता कंपन करता है । इस कंपन को संभव बनाने के लिए प्रत्येक मधुमक्खी अपने पेट को फुलाती-पिचकाती है । इसका असर यह होता है कि पूरा छत्ता फैलता और सिकुड़ता है । इस तरह से वे अंदर की गर्म हवा को बाहर निकाल देती है । 
इन मधुमक्खियां का छत्ता २ मीटर तक लम्बा होता है । इस पर मधुमक्खियांे की ६-७ परतें बैठी होती है । इसे छत्ते का पर्दा कहते     है । ६-७ मधुमक्खी मोटा पर्दा एक कुचालक का काम करता है मगर तेज गर्मी के दिनों में यह बहुत कारगर नहीं होता है । इसे ज्यादा कारगर बनाने के लिए सबसे अंदर की परत की मधुमक्खियांे अपनी टांगों को सीधा करके एक खाली जगह बना देती है । बाहर की ताजी हवा इस खाली स्थान में भर जाती है और फिर उसे बाहर निकाल दिया जाता है । 
वैसे अभी भी पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि छत्ते के अंदर क्या हो रहा है मगर छत्ते की सतह पर ठंडे चकत्तों का पाया जाना आगे बढ़ने में मदद करेगा । अब कोई तरीका सोचना पड़ेगा जिससे छत्ते को नुकसान पहुंचाए बगैर उसके अंदर झांक सके और अपनी बात की पृष्टि कर सकें । 

माइग्रेन की रोकथाम और नमक का सेवन
एक अध्ययन से पता चला है कि ज्यादा नमक का सेवन करने से माइग्रेन की रोकथाम होती है । मगर साथ ही इस अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी इसके आधार पर नमक की मात्रा के बारे में कोई निर्णय न लें क्योंकि ज्यादा नमक खाने से ह्रदय रोग व स्ट्रोक की संभावना बढ़ती है । 
नमक यानी सोडियम क्लोराइड सोडियम और माइग्रेन के आपसी संबंध का लेकर प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं । यह पाया गया है कि माइग्रेन के दौरान सेेरेब्रोस्पाइनल ब्रव में सोडियम की मात्रा बढ़ जाती है । सेेरेब्रोस्पाइनल द्रव वह तरल पदार्थ है जो मस्तिष्क और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में भरा होता है । यह भी देखा गया है कि इस द्रव में सोडियम का स्तर सुबह और शाम के वक्त अधिकतम होता है । यही वे समय है जब अधिकांश लोग माइग्रेन का अनुभव करते हैं । 
हमारे शरीर में सोडियम का लगभग एकमात्र स्त्रोत हमारा भोजन है । लिहाजा कैलिफार्निया के हटिंगटन मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के माइकल हैरिंगटन ने सोचा कि कही माइग्रेन का संबंध व्यक्ति की खुराक से तो नहीं है । इसका पता लगाने के लिए उन्होनें अमेरिका के राष्ट्रीय स्वास्थ्य व पोषण सर्वेक्षण में एकत्रित आंकड़ों का सहारा लिया । इस सर्वे में हर वर्ष हजारों लोगों की जानकारी इकट्ठा की जाती है । इसके तहत लोगों से यह भी पूछा जाता है कि उन्होनें पिछले २४ घंटों में क्या खाया-पीया और क्या इस अवधि में उन्होनें सिरदर्द या माइग्रेन का अनुभव किया । 
  गौरतलब है कि न्यूयॉर्क स्थिति बर्फली विश्वविद्यालय के मेडिकल सेंटर व अनुसंधान केन्द्र की स्वतलाना ब्लिटशतेन ने भी देख है कि माइग्रेन पीड़ित लोग ज्यादा नमक खाए तो उनकी तकलीफ कम हो जाती है । 
अलबत्ता, दोनों ही शोधकर्ताआें का मत है कि अभी पर्याप्त् प्रमाण नहीं है कि माइग्रेन के लिए नमक सेवन की सलाह दी जा सके । खास तौर से इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अधिक नमक का सम्बन्ध ह्रदय रोग से प्रमाणित हो चुका है । इसके साथ ही उक्त रक्तचाप वाले रोगियों का भी ध्यान रखना पड़ेगा ।   

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