शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

कविता
धरती प्यार लुटाती अपनी
वृन्दावन त्रिपाठी रत्नेश

धरती प्यार लुटाती अपनी, खुशी लुटाता अम्बर है,
मानुष बना अमानुष क्यों तू, लिए हाथ में खंजर है ।

तेरी प्यास बुझाती नदियाँ, देती तुझको जीवन हैं ।
तरूआें में तेरी साँसे हैं, हर बूटी उगी संजीवन है ।।
धरती की गोदी हरियाली पर, तेरा डर क्यों बंजर है ।
मानुष बना अमानुष क्यों तू, लिए हाथ में खन्जर है ।।

पर्वत की छाती से जल ही पार निकलती है ।
पर तेरे हाथ की बन्दूकें अपनों पर आग उगलती है ।।
सत्कर्म बिना ऐ तू मानव, बिना पूंछ एक बन्दर है ।
मानुष बना अमानुष क्यों तू लिए हाथ में खंजर है ।।

पत्थर या डण्डे से मारो, वृक्ष सदा फल देते हैं ।
प्राण वायु अर्पित करके, खुद गरल वायु पी लेते हैं ।
मानवता की सेवा में क्यों नहीं डालता लंगर हैं ।
मानुष बना अमानुष क्यों तू, लिए हाथ में खंजर हैं ।।

घास-फूस खाकर भी गाये, अमृत-सा दुध पिलाती हैं ।
अपने सुन्दर बछड़ों से, धरती का रूप सजाती हैं ।।
कृपामयी है प्रकृति समूची सबको बनना सुन्दर है ।
मानुष बना अमानुष क्योंतू लिए हाथ में खंजर है ।।

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