शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

प्रदेश चर्चा
म.प्र. : बढ़ती बिजली, बढ़ता घाटा
राजकुमार सिन्हा
    मध्यप्रदेश सरकार अपने विद्युत संयंत्रों से बिजली न खरीद कर निजी उत्पादनकर्त्ताओं से खरीद रही हैं । यह समझ के परे है कि सरकार अपने निवेश को बट्टेखाते में क्यों डालना चाहती है ।
    केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में पहली बार चालू वित्तीय वर्ष में बिजली का उत्पादन मांग से ज्यादा होने का अनुमान है । म.प्र. में मांग से १२ प्रतिशत अधिक बिजली उपलब्ध है । दूसरी ओर म.प्र. सरकार द्वारा निजी क्षेत्र की बिजली उत्पादन कम्पनियों से हुए अनुबंध एवं उसमें समाहित शर्तों के चलते मांग के बावजूद सरकारी ताप विद्युत गृहों की ११ इकाइयों को रिजर्व शटडाउन में रखना मजबूरी बना हुआ है । 
     अगर इन ११ इकाईयों को पूर्ण कार्यक्षमता पर चलाया जाता तो अतिरिक्त बिजली का प्रतिशत और बढ़ जाता । सरकार द्वारा निजी कम्पनियों से  किए गए अनुबंध दीर्घकालिक हैं। अत: सरकारी ताप विद्युत गृहों को रिजर्व शटडाउन से निजात मिल पाना मुश्किल है । दूसरी ओर इन निजी कम्पनियों को सरकार द्वारा करोड़ों की राशि फिक्स चार्ज (स्थायी शुल्क) के रूप में दी जाती है । फिर सरकार चाहे बिजली खरीदे अथवा न खरीदे ।
    म.प्र. पावर जनरेटिंग कम्पनी में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण अमरकंटक, संजय गांधी, सतपुड़ा एवं सिंगाजी ताप विद्युतगृहों की कार्यक्षमता पचास प्रतिशत से भी कम हो गई है । कोयले की कीमत से ज्यादा कोयला परिवहन खर्च, काम की मूल लागत से कई गुना अधिक दर पर दिए गए ठेकों, लाईजनिंग व कमीशन एजेन्ट के चलते कोयले के साथ आई करोड़ों रुपयों की मिट्टी व पत्थर तथा अतिव्यय ने इनकी बिजली उत्पादन की प्रति यूनिट लागत इतनी उंचाई पर पहुंचा दी है कि वह मेरिट आर्डर डिमान्ड (सबसे कम बोली लगाने वाले) से बाहर हो गई है ।    
    गिरते उत्पादन अनुपात और सरकारी ताप विद्युतगृहों की महंगी बिजली बिकने की प्रतिदिन क्षीण होती जा रही संभावनाओं के बीच म.प्र. पॉवर जनरेशन कम्पनी ने ६५०० करोड़ का भारी-भरकम खतरा मोल लिया है । यह राशि सिंगाजी ताप विद्युत संयंत्र खण्डवा में ६६०-६६० मेगावाट की दो क्र्रिटिकल यूनिटों पर खर्च होना है । इसके लिए १३ प्रतिशत की ब्याज दर से ५२०० करोड़ का ऋण पॉवर फायनेन्स कारपोरेशन से लिया गया है । विचित्र स्थिति है कि मांग और उपलब्धता में भारी अंतर है और उसमें भी सरकारी विद्युतगृह अपनी भागीदारी नहीं कर पा रहे हैं । अर्थात् जनरेशन कम्पनी अपना मूल काम पॉवर जनरेशन ही ठ ीक से नहीं कर पा रही है तो नए ताप विद्युत संयंत्र लगाना समझदारी भरा कदम कैसे हो सकता है । अगर सरकार ने यह ठान ही लिया है तो उसे दो बातें सुनिश्चित करना चाहिए, पहली यह कि संयंत्र कभी बंद नहीं किया जाएगा एवं दूसरी यह कि पेंच की तरह निजी क्षेत्र की किसी कम्पनी को सिंगाजी संयंत्र नहीं दिया जाएगा ।
    म.प्र. सरकार द्वारा निवेश पाने के लालच में ७० से अधिक कम्पनियों से ८५ हजार मेगावाट के बिजली उत्पादन संयंत्र लगाने हेतु एमओयू किया गया है । म.प्र. विद्युत अभियंता संघ के संयोजक व्ही.के.एस. परिहार कहते हैं कि यह सरकार के सामने है कि किसतरह से योजनाकारों ने उनके सामने बिजली की मांग में अभूतपूर्व वृद्धि के आंकड़े पेश कर उसे गुमराह किया है । इसके अलावा इतने अधिक करार करने की वजह से सरकारी बिजली संयंत्रों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। मांग के फर्जी आंकड़ों की वजह से ही सरकार ने आंख बंद कर बिजली की दरें व समझौते की ऐसी शर्तेें भी मान्य की, जिनमें निजी कम्पनियों का हित अधिक था । इसके बावजूद करीब ८५ हजार मेगावाट वाले चार लाख करोड़ रुपये लागत के ऊर्जा संयंत्र न आ पाना चिंता का विषय  है ।
    म.प्र. के ऊर्जा मंत्री पारस चंद जैन का कहना है कि १५००० मेगावाट उपलब्धता के विरुद्ध अधिकतम मांग (पीक डिमांड) मात्र ९००० मेगावाट थी । अत: अधिक से अधिक उद्योग लगाने की जरूरत है जिससे कि बिजली की खपत हो  सके ।    
    यक्ष प्रश्न यह है कि जब उपलब्धता एवं मांग में इतना अंतर है तो नये बिजली संयंत्रों को लगाकर कृषि भूमि को खत्म करना तथा प्रदेश की ग्रामीण जनता को विस्थापित होने पर मजबूर करना कहां की समझदारी है ? क्या पुराने सरकारी संयंत्रों की कार्यक्षमता बढ़ाकर बिजली प्राप्त नहीं की जा सकती है ? क्या ट्रांसमिशन की हानि को नियंत्रित कर स्थापित क्षमता में वृद्धि नहीं की जा सकती है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या मध्यप्रदेश सरकार वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोतों की ओर जाने की तैयारी कर भी रही है ?

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