मंगलवार, 16 मई 2017

पत्रिका - १
जन-जागरण के निकष पर पर्यावरण डाइजेस्ट
डॉ. मेहता नगेन्द्र सिंह

    मेरे लिए एक सुखद संयोग रहा कि जिस वर्ष यानी १९८७ से डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के कुशल सम्पादन में पर्यावरण डाइजेस्ट का प्रकाशन शुरू हुआ, उसी वर्ष (१४ सितम्बर १९८७) मैंने भी शेष उम्र हिन्दी की सेवा करने का व्रत बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन पटना के मंच से लिया था ।
    बाद में वर्ष १९९२ से मेरे द्वारा दलित-साहित्य और स्त्री-विमर्श आन्दोलन के सदृश्य पर्यावरण-साहित्य सृजन का संकल्प लिया गया । इसलिए कि पर्यावरण ही एकमात्र ऐसा विषय है, जिसका सीधा संबंध हमारे जीवन-अस्तित्व से है । इस संकल्प में स्वनिर्मित दो मंत्र यथा-हरा वृक्ष काटना प्रज्ञा-अपराध है और वृक्ष शरणं गच्छामि को शामिल किया, जो आगे चलकर पर्यावरण-साहित्य सृजन और आन्दोलन का मूलाधार बना ।
    इस बीच आचार्य शिवपूजन सहाय के भाषा अग्रदूत साहित्यवाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेवजी का सानिध्य और सम्पादकीय मार्गदर्शन प्राप्त् हुआ । ये बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से प्रकाशित परिषद पत्रिका जो आचार्य शिवपूजन सहाय द्वारा प्रारंभ हुई थी, का बहुत दिनोंतक सम्पादन करते  रहे ।
    इन्हीं से अनुप्रेरित होकर वर्ष १९९५ में मेरे द्वारा पर्यावरण शिक्षा और जनचेतना की साहित्यकी त्रैमासिकी हरितवसुन्धरा का प्रकाशन शुरू किया गया । इस क्रम में हरित वसुन्धरा के सम्पादन-परामर्शी डॉ. श्रीरंजन सूरिदेवजी से समय-समय पर सम्पादन कला की बारीकी को आत्मसात करने का अवसर मिला । इनके निम्न कथन -
    (१) हिन्दी की साहित्यकी पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्पादन कला की विशिष्ट परम्परा रही है । सम्पादक लेखक के अनगढ़ निर्माण को फिर से गढ़ता है । उसकी अव्यवस्थित सृष्टि को फिर से व्यवस्थित करता   है । इस गढ़ने और व्यवस्थित करने के कार्यमें सम्पादक अपनी कारयित्री और भावियित्री, दोनों प्रकार की प्रतिभाआें का विनियोग करता है । कुल मिलाकर, रचनाआें में निखार लाना ही सम्पादक का मुख्य लक्ष्य  है ।
    इसीलिए, सम्पादक कुशल कलाकार माली के समान होता है, जो लेखक द्वारा लगाई गई रचना पौध के बेतरबीब और अनावश्यक फैलाव को काट-छाँट कर न केवल सजाता-सँवरता है, अपितु उसमें कई नये वृत्तों का पुनर्विन्यास करके उसे और अधिक निखार देता है ।
    (२) सम्पादन वस्तुत: साधना का पर्याय है । सम्पादन - कार्य के लिए मनोवाक्याय का पूर्ण योग या बहिरन्त: ऐन्द्रिय चेतना की पूर्ण समानता अपेक्षित होती है, क्योंकि सम्पादक के समक्ष विभिन्न लेखकों की विभिन्न रचनाएँ अपनी विभिन्न भाषा भंगिमाआें के साथ उपस्थित होती है और सम्पादक जिस पत्र-पत्रिका का प्रभारी होता है उसकी अपनी स्वीकृत भाषा नीति होती है । विशेषकर वैज्ञानिक शोध-पत्रिका के सम्पादन को तो भाषा और वर्त्तनी की शोध मूल्यात्मक एकरूपता पर अधिक ध्यान देना पड़ता है ।
    (३) सम्पादक, प्रछन्न लेखक होता है, क्योंकि उसकी लेखकीय प्रतिभा व्यक्त न होकर सम्पाद्य रचनाआें की प्रसाधन-क्रियामें अन्तर्निहित रहती है । इसलिए सम्पादन-कार्य सहज ही श्रमसाध्य होता है और यही श्रमसाध्यता सम्पादन कला के नाम से अभिधेय होती है । जो सम्पादक जितना अधिक कलामिनिवेशी या तत्वामिनिवेशी होगा, उनकी सम्पादन शैली उतनी ही अधिक कलारूचिर एवं मनोज्ञ    होगी । को मैंने अपना सम्पादकीय-निकष बनाया और यह भी जाना कि एक श्रेष्ठ सम्पादन के लिए सुतीक्ष्ण प्रतिभा और शास्त्रज्ञता के साथ-साथ रचना के विवेचन और चुनाव की भी दक्षता होनी चाहिए । इसके लिए विषयक-ज्ञान भी जरूरी है ।
    प्रस्तुत आलेख तैयार करने तक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुआ, लेकिन समय-समय पर दूरभाष पर बातें होती रही है । उनके श्रमसाध्य सम्पादकीय सूझ-बूझ को नमन करना मेरा सहकार्मिक दायित्व है । डॉ. खुशालसिंह पुरोहित से मेरा शाब्दिक-सम्बन्ध वर्ष १९९६ से ही स्थापित हो चुका था, तब से लगातार पर्यावरण डाइजेस्ट का नियमित पाठक हॅू ।
    विषय-बोध के साथ-साथ सम्पादकीय कला के विभिन्न पहलुआें को एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाता रहा, इसलिए कि डॉ. पुरोहित पूर्व कथित निष्कर्ष पर खड़े उतरे । इनका सम्पादन कार्य एक मिशन के तहत प्रतीत होता है । पत्रिका-प्रकाशन की निरन्तरता सम्पादक के श्रम और कुशल-प्रबंधन पर निर्भर करती है ।
    पर्यावरण विषय-बोधक जनजागरण के निष्कर्ष पर पर्यावरण डाइजेस्ट की अहम् भूमिका रही है । माना कि पत्रिका के प्रकाशन में कतिपय सरकारी सहयोग मिलता रहा, लेकिन उससे ज्यादा पाठकों का प्यार और सहकर्मियों का सहयोग भी रहा । डॉ. पुरोहित यह भी भलीभांति जानते है कि सम्पादक, लेखक की प्रतिभा का हनन नहीं करता है उसकी रचना को विकृत नहीं करता बल्कि उसकी रचना में चार चाँद ला देता  है ।
    इनका भी मानना है कि जहाँ पर्यावरण के प्रति आस्था हो और समर्पित भाव से रचनात्मक प्रयास किये जाएँ तो साधन-सुविधा के अभाव में भी जीवटता के साथ कार्य सम्पादित हो सकते है । जैसा कि मैंने भी हरित वसुन्धरा के माध्यम से इसे स्वीकारा है ।
    कहने के बहुत कुछ है, लेकिन फिलहाल पर्यावरण डाइजेस्ट के विषयक पहलुआें पर केन्द्रित होना चाहॅूंगा । क्योंकि पहली बार डॉ. पुरोहित ने मुझसे समीक्षार्थ अनुरोध किया है । अनुरोध का अनुपालन करना मेरी विवशता नहीं बल्कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति मेरी प्रतिबद्धता है ।
    हरित वसुन्धरा कार्यालय में पर्यावरण डाइजेस्ट का ५२ चयनित अंक उपलब्ध हैं जिनमें पर्यावरण से संबंधित कई महत्वपूर्ण आलेखों का प्रकाशन किया गया है । जिनका फिर से अवलोकन निम्न सूची के अनुसार किया जा सकता है, जो पुनर्पठनीय  हैं -
१.  वर्ष १० अंक ९ (१९९६)
(i) अमृता और पर्यावरण रक्षक विश्नोई समाज
(ii) दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष
(ii) छीजती ओजोन छतरी
२.  वर्ष ११ अंक १२ (१९९७)
(i) विकास बनाम जिंदा रहने का  सवाल
(ii) सेबी ने प्लान्टेशन योजनाआें पर प्रतिबंध लगाया
३.  वर्ष १२ अंक १ (१९९८)
(i) प्लास्टिक का बढ़ता उपयोग
(ii) पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ाता दौर
(iii) गाँवों के शहरीकरण की सनक
४.  वर्ष १२ अंक ४ (१९९८)
(i) प्राकृतिक विपदाएँऔर विकास  की गतिविधियाँ
(ii) अन्नपूर्णा मिट्टी को बचाइये
(iii) पर्यावरण शिक्षा की उपायदेयता
५.  वर्ष १२ अंक १२ (१९९८)
(i) ऊर्जा-संकट और हमारी प्राथमिकताएँ
(ii) एकल वृक्षारोपण से बिगड़ता पर्यावरण
(iii) ओजोन परत का टूटता कवच
६.  वर्ष १६ अंक २ (२००२)
(i) नदियों को जोड़ने की योजना
(ii) इको-फ्रेन्डलीप्लास्टिक
७.  वर्ष १६ अंक ९ (२००२)
(i) पानी का निजीकरण
८.  वर्ष १७ अंक २ (२००३)
(i) जैविक विविधता का आंकलन
(ii) पर्यावरण में प्लास्टिक का खतरा
(iii) सूखा और मरूस्थलीकरण
९.  वर्ष १८ अंक १० (२००४)
(i) चुनिन्दा पौधे लगाइये और किस्मत चमकाइये
१०.  वर्ष १९ अंक ५-६ (२००५)
(i) पर्यावरण चेतना का आधार
(ii) वेदों में पर्यावरण चेतना
(iii) बोतल में बंद पानी का कमाल
११.  वर्ष १९ अंक ८ (२००५)
(i) पर्यावरण सरंक्षक और सम्पोषक सूर्य
(ii) जानवर भी व्यक्तित्व के धनी है
(iii) क्योटो संधि ठेगे पर
१२.  वर्ष १९ अंक ९ (२००५)
(i) जैव संरक्षण क्यों जरूरी है
(ii) रसोई घर में धुएँ का प्रदूषण
(iii) वन हमारे जीवन प्राण
१३.  वर्ष २० अंक २ (२००६)
(i) आपदाआें से बचाते है मैन्ग्रोव
(ii) घातक अपशिष्ट का आयात
(iii) पैसों से तुलेंगे पेड़
१४.  वर्ष २० अंक ३ (२००६)
(i) प्रकृति में होली का रंग
(ii) पर्यावरणीय मुल्यांकन
(iii) भारतीय पानी पर विश्व बैंक की रिपोर्ट
१५.  वर्ष २० अंक ६ (१९९६)
(i) बोतल बंद पानी से बढ़ता प्लास्टिक कूड़ा
(ii) पर्यावरण शिक्षा कैसी हो
(iii) अनुमानों से ज्यादा गर्म होगी धरती
१६.  वर्ष २० अंक ७ (२००६)
(i) कहर ढा रहा ई-कचरा
(ii) गाँव में प्रदूषण और नियंत्रण
(iii) पौधारोपण का पौराणिक महत्व
१७.  वर्ष २० अंक ८ (२००६)
(i) भारत में जल के निजीकरण के खतरे
(ii) शीतल पेय में कीट नाशक
१८.  वर्ष २० अंक १० (२००७)
(i) जल का निजीकरण : यक्ष प्रश्न
(ii) अलनीनों के कारण धरती को खतरा
१९.  वर्ष २१ अंक २ (२००७)
(i) संजीवन बूटी
(ii) विकास या विकास का आंतक
(iii) अलनीनों के कारण गर्म वर्ष २००७
(iv) ओजोन परत में क्षरण
२०.  वर्ष २१ अंक ४ (२००७)
(i) जलवायु-परितर्वन पर कई लेख
(ii) ग्लोबल वार्मिग पर विशेष
२१.  वर्ष २१ अंक ६ (२००७)
(i) पानी पर सरकार की नीतियाँ
(ii) भारत और ग्लोबल वार्मिग का  सामना
(iii) विलुप्त् होते जीव-जन्तु और पर्यावरण
(iv) प्रार्थना के स्वर (कविता)
२२.  वर्ष २१ अंक ७ (२००७)
(i) दिल्ली के पेड़ों की व्यथा कथा
(ii) ग्लोबल वार्मिग : दूसरे का अपराध
(iii) पेड़-पौधों में भी प्राण
२३.  वर्ष २१ अंक ९ (२००७)
(i) जीवाश्म: हमारे काल-प्रहरी
(ii) जलवायु - परिवर्तन के खतरे
(iii) जीवाश्म - ईधन का संरक्षण और विकास
२४.  वर्ष २१ अंक १० (२००७)
(i) जल का निजीकरण या जल-डकैती 
(ii) जल है एक उपहार
२५.  वर्ष २२ अंक १ (२००८)
(i) जलाशयों की जीवन्त विरासत
(ii) वन रहवास और वनवासी
(iii) जलवायु-परिवर्तन पर भविष्य की चिन्ता
२६.  वर्ष २२ अंक ३ (२००८)
(i) संश्लेषित रंग करते जीवन बदरंग
(ii) वन और जलवायु परिवर्तन
(iii) पर्यावरण-संरक्षण और महिलाएँ
२७.  वर्ष २२ अंक ४ (२००८)
(i) विकल्पहीन नहीं है खेती
(ii) सुन्दरवन : ग्लोबल वार्मिग का पहला शिकार
(iii) नर्मदा घाटी : विस्थापन और पुनर्वास
२८.  वर्ष २२ अंक ५ (२००८)
(i) अब क्यों नहीं बौराता वसंत
(ii) कहानी कहते पत्थर
(iii) खतरे में कोरल भित्ति
२९.  वर्ष २३ अंक २ (२००९)
(i) गंदा पानी का गणित
(ii) पेड़ भी करते हैं तर्पण
(iii) पर्यावरण सही रहे
३०.  वर्ष २३ अंक २ (२००९)
(i) प्लास्टिक और पर्यावरण
(ii) जलवायु परिवर्तन एक नई चुनौती
(iii) पॉलीथीन-अपशिष्ट (दोहे)
(iv) पशु-पक्षियों की स्मरण शक्ति
३१.  वर्ष २३ अंक ३ (२००९)
(i) दुनिया का प्रथम हरित संविधान
(ii) कल्पतरू की कल्पना
(iii) कार्बन ट्रेडिंग एवं वैश्विक तापन
(iv) वन है मानव जीवन का आधार
३२.  वर्ष २३ अंक ४ (२००९)
(i) भारतीय दर्शन में जल की महत्ता
(ii) पर्यावरण और व्यक्तिगत चेतना
(iii) तेजाबी बारिश के आसार
३३.  वर्ष २३ अंक ११ (२००९)
(i) हिंग-सर्वाधिक गंध वाला मसाला
(ii) निर्जला होती नदियाँ
(iii) हिमालय का पर्यावरण और जन भागीदारी
३४.  वर्ष २३ अंक १२ (२००९)
(i) भूमि प्रदूषण : संरक्षण और नियंत्रण
(ii) पेड़ हमारे प्राणदाता
(iii) प्रकृति के प्रांगण में
(iv) संजीवनी-कितना सच कितना मिथक
३५.  वर्ष २४ अंक २ (२०१०)
(i) जलवायु परिवर्तन के शिकार होते बच्च्े
(ii) भू-आकृति नियोजन और पर्यावरण
(iii) गुलमोहर
३६. वर्ष २४ अंक ३ (२०१०)
(i) प्रकृति और अर्थव्यवस्था
(ii) जैव विविधता का संरक्षण
(iii) पर्यावरण-प्रदूषण
३७.  वर्ष २४ अंक ४ (२०१०)
(i) पृथ्वी और ग्रीन पॉलीटिक्स
(ii) प्रदूषण मापने का नया पैमाना
(iii) पशु-पक्षियों के प्रेम-प्रसंग
३८.  वर्ष २४ अंक ५-६ (२०१०)
(i) धर्म और पर्यावरण
(ii) ग्लोबल वार्मिग के न्युनीकरण
(iii) पानी साफ करने वाली जादुई फली
३९.  वर्ष २४ अंक ७ (२०१०)
(i) धरती का अमृत पानी
(ii) आपदाआें को निमंत्रित करता समाज
(iii) देश की जल-संग्रह क्षमता में कमी
(iv) परम्परागत जलाशयों का संरक्षण
४०.  वर्ष २४ अंक ८ (२०१०)
(i) जलवायु को प्रभावित करते जीव
(ii) धरती क्यों सूखी : बारिश क्यों रूठी
४१.  वर्ष २४ अंक ९ (२०१०)
(i) कैसे हुई पृथ्वी की उत्पत्ति
(ii) जैविक नकल और वास्तविक जीवन
(iii) प्रकृति से विज्ञान पोषित
४२.  वर्ष २५ अंक २ (२०११)
(i) जैव-विविधता : हानि की गणना
(ii) जलवायु-परितर्वन और भारतीय कृषि
(iii) सहजन : चमत्कारी पेड़
४३.  वर्ष २५ अंक ४ (२०११)
(i) प्लास्टिक पर अधूरा प्रतिबंध
(ii) जीवन मूल्यों की अहमियत
४४.  वर्ष २५ अंक ५-६ (२०११)
(i) जैव-विविधता और पर्यावरण-संरक्षण
(ii) सुनामी के पर्यावरणीय दुष्परिणाम
४५.  वर्ष २५ अंक ९ (२०११)
(i) वन हमारी धरोहर
(ii) बिहार: विकास में पिसता गरीब
(iii) सूरज और ग्रहों के निर्माण की कहानी
४६.  वर्ष २६ अंक ४-५ (२०१२)
(i) क्या है जंगल की परिभाषा
(ii) कितनी ऊर्जा उत्पन्न करता है सूर्य
(iii) हल, बैल, छोड़ मुसीबत में किसान
४७.  वर्ष २६ अंक ७ (२०१२)
(i) हमारे धर्म ग्रंथों में वृक्ष-महिमा
(ii) कर्क रेखा के सरकने से जलवायु पर प्रभाव
४८.  वर्ष २६ अंक ९ (२०१२)
(i) हम दरख्त वापस नहीं ला सकते
(ii) पहाड़ और पानी
४९.  वर्ष २७ अंक ३ (२०१३)
(i) मूर्तियां बनी प्रदूषण सूचक
(ii) जैव-विविधता: संकट में जीवन की विरासत
५०.  वर्ष २७ अंक ६ (२०१३)
(i) तत्वों की उत्पत्ति की कहानी
(ii) पर्यावरण लेखन: दशा और दृष्टि
(iii) खतरे में है चंबल नदी की डाल्फिन
(iv) मानव निर्मित है बाढ़
५१.  वर्ष २९ अंक १ (२०१५)
(i) पर्यावरण का मुख्य धारा मीडिया
(ii) पर्यावरण का प्रदूषण कैसेदूर हो
(iii) भूगोल का आध्यात्म
५२.  वर्ष ३० अंक १ (२०१६)
(i) भारत की प्राकृतिक सम्पदा की लूट
(ii) भूकम्प क्षेत्रों का पुननिर्धारण
(iii) बदलते पर्यावरण का बढ़ता प्रकोप
    उपर्युक्त सूची की संक्षिप्त् विवरणी से यह ज्ञात होता है कि पर्यावरण डाइजेस्ट में पर्यावरण से संबंधित विविध पक्षों को उजागर करते हुए आलेख प्रकाशित होते रहे हैं । उम्मीद हीं नहीं, बल्कि विश्वास है कि आगे भी इसी तरह पर्यावरणीय जन-जागरण के क्षेत्र में यह पत्रिका अग्रणी बनी रहेगी ।
    एक बात और जो विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है कि सम्पादन की श्रमसाध्यता के लिए डॉ. खुशालसिंह पुरोहित को सरकारी और गैर सरकारी संस्थाआें के द्वारा समय-समय पर सम्मानित और पुरस्कृत भी किया गया, जिनमें राष्ट्रीय पर्यावरण सेवा सम्मान, पर्यावरण रत्न सम्मान, राष्ट्र गौरव सम्मान, रामेश्वरगुरू पुरस्कार और सम्पादक शिरोमणि उपाधि आदि प्रमुख हैं ।
    युग मनीषी साहित्यकार डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि पर्यावरण डाइजेस्ट के सुयोग्य सम्पादक डॉ. खुशालसिंह पुरोहित के सम्पादन में पत्रिका नैरन्तर्य के साथ ही स्तरीयता के मानक को बनाए रख सकी है, जो आज के समय को देखते हुए मूल्य आधारित पत्रकारिता और जीवन शैली का द्योतक है ।
    आज सारा विश्व पर्यावरण के निम्नीकरण को लेकर चिंतित है । यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ प्रकृति और पर्यावरण के प्रति आस्था हो और उसके संरक्षण हेतु समर्पित भाव से रचनात्मक प्रयास किये जाये तो साधन और सुविधा की कमी के बावजूद भी कार्य सम्पादित किये जा सकते है ।
    ऐसे अभावों के बीच डॉ. खुशालसिंह पुरोहित पर्यावरणीय संकटों के समय भी स्वयं और जनमानस को स्वच्छ, स्वस्थ और खुशाल बनाये रखने मेंपीछे नहीं    है । जन जागरण के निकष पर्यावरण डाइजेस्ट के साथ सम्पादक शिरोमणि डॉ. खुशालसिंह खरे उतरे हैं । कोटिश: साधुवाद ।

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