मंगलवार, 15 अगस्त 2017

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
आत्मघाती विकास और पर्यावरण
जयन्त वर्मा
विकास की बाजार केन्द्रित सोच ने प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन को बढ़ावा दिया    है । आज भले ही देशवासियों की आमदनी बढ़ती दिख रही हो, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट चिंता बढ़ाने वाला है। वैसे विकास की संविधान में कोई परिभाषा नहीं है। `विकास` में पर्यावरण और प्रकृति को अड़ंगा माना जाता है । हमारी वर्तमान समस्याएँ हमारे अतीत के कर्मोंासे निर्मित हुई है और हमारा वर्तमान भविष्य की समस्याओं को जन्म  देगा ।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को उन्नति और विकास का पैमाना मानने वाली सरकारें भावी पीढ़ियों के लिए खतरनाक विरासत तैयार कर मानव मात्र के अस्तित्व को विनाश की ओर ढकेलने का काम कर रही हैं । 
विकास की बाजार केन्द्रित सोच ने प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन को बढ़ावा दिया है। संसार के प्राय: सभी देशों में कमोबेश यही हालात हैं । पेरिस के जलवायु समझौते में धरती का तापमान दो डिग्री से अधिक नहीं बढ़ने देने पर सहमति बनी थी । अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पेरिस समझौते से हटने की घोषणा करके जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के संसार के अधिकांश देशों के साझा प्रयासों को कमजोर करने का काम किया है ।
वायुमण्डल में घुली कार्बन डाय-आक्साइड पराबैंगनी विकिरण के सोखने और छोड़ने से हवा, धरती और पानी गरम होते हैं। औद्योगिक क्रांति के दौर में कोयला, पेट्रोलियम अन्य जलाऊ  इंर्धन के धुँए ने वातावरण में कार्बन डाय-आक्साईड और दूसरी ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा बढ़ाने का काम किया है। सामान्यतया सौर किरणों के साथ आने वाली गर्मी का एक हिस्सा वायुमण्डल को आवश्यक ऊर्जा देकर अतिरिक्त विकिरण धरती की सतह से टकरा कर वापस अंतरिक्ष में लौटता है । 
वातावरण में मौजूद ग्रीन हाऊस गैसें लौटने वाली अतिरिक्त उष्मा को सोख लेती है, जिससे धरती की सतह का तापमान बढ़ जाता है । इससे वातावरण प्रभावित होता है और धरती तपती है, जो जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारण है। वैज्ञानिकोंका मानना है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन ही इसका मूल कारण है ।
वर्षा जल वाले जंगलों की अत्यधिक कटाई से पराबैंगनी विकिरण को सोखने और छोड़ने का संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा    है । अनुमानत: प्रतिवर्ष लगभग तिहत्तर लाख हेक्टेयर जंगल उजड़ रहे हैं । खेती में रासायनिक खादों के बढ़ते उपयोग, अत्यधिक चारा कटाई से मिट्टी की सेहत बिगड़ रही है। जंगली और समुद्री जीवों का अनियंत्रित शिकार भी प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ता है । जनसंख्या विस्फोट इस आग में घी डालने का काम कर रहा है । आबादी बढ़ने की यही रफ्तार रही तो २०५० तक धरती की आबादी १० अरब हो जायेगी । विकासशील देशों की अधिकांश आबादी प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित है, संसाधन खत्म हो रहे    हैं । 
भारत में वन की परिभाषा तय नहीं है । भारतीय वन अधिनियम १९२७ में वन को परिभाषित नहीं किया गया है । सरकार इमारती लकड़ी के खेतों को वन कहती है । पर्यावरण का अंग होने के बावजूद वन में सागौन आदि के वृक्ष लगाए जाते हैं । पर्यावरण संतुलन बनाने में सहायक बरगद, पीपल, नीम, आम, जामुन आदि गर्मी में हरे-भरे रहने वाले फलदार वृक्ष लगाने का वन विभाग की कार्य योजना में कोई स्थान नहीं होता । उच्च्तम न्यायालय केन्द्र सरकार से वन की परिभाषा तय करने हेतु बार-बार आग्रह कर रहा है, किन्तु सरकार की इस दिशा में कोई रूचि नहीं है। पर्यावरण संतुलन बनाए रखना है तो देश की वन भूमि को उद्यान, आयुष, जनजाति कल्याण जैसे विभागों को सौंप दी जाना चाहिए ताकि समाज के  लिए उपयोगी वनोपज से नागरिकों को औषधि, पोषाहार तथा अन्य जरूरी चीजें मिले साथ ही पर्यावरण समृद्ध हो ।
विकास की संविधान में कोई परिभाषा नहीं है । सरकार ने निर्माण कार्योको विकास मान लिया है। निर्माण कार्योंा में पर्यावरण और प्रकृतिको अड़ंगा माना जाता है। औद्योगिक और कार्पोरेट घरानों को उदारता के साथ वन भूमि आबंटित की जा रही है । वन विभाग का अमला वन भूमि से खनिज संसाधनों के अवैध दोहन को बढ़ा कर अपनी जेबें भरने में संलग्न है । नेतागण भी इस गैरकानूनी उत्खनन में लगे हैं । प्राकृतिक संतुलन का तेजी से ह्रास हो रहा है । तात्कालिक लाभ के लिए भावी पीढ़ियों का अस्तित्व खत्म करने में लगा वर्ग सभी जगह सत्ता पर काबिज है । 
हम यह भूल जाते हैं कि हमारी वर्तमान समस्याएँ हमारे अतीत के कर्मों से निर्मित हुई है और हमारा वर्तमान भविष्य की समस्याओं को जन्म देगा । हम ऐसे त्रासदपूर्ण युग में जी रहे हैं, जिसमें उस डाल को ही काटने का काम हो रहा है, जिस पर समाज सवार है। यही वर्तमान की सबसे त्रासदपूर्ण परिघटना है ।

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