शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

 पर्यावरण परिक्रमा
डॉक्टर मरीजों को देते है पौधे 
वह पेशे से डॉक्टर है, लेकिन उन्हें पर्यावरण की सेहत की भी फिक्र है । वे अस्पताल पहुंचने वाले मरीजों को दवा के साथ-साथ पौधरोपण का भी नुस्खा देते हैं । उनकी मुहिम रंग ला रही है । डॉ. दिनेश बंसल के प्रयास अब उत्तराखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर तक पहुंचने लगे है । 
उ.प्र. में बागपत के बडौत मेंअस्पताल चलाने वाले वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. दिनेश बंसल अस्पताल में आने वाले मरीजों के सामने एक शर्त रखते हैं कि मरीज के तीमारदार अपने आंगन या कहीं ओर एक पौधा अवश्य लगाएं, जिसे वह स्वयं उपलब्ध कराते हैं । फलदार छायादार पौधों को नि:शुल्क उपलब्ध कराते हैं और प्रतिदिन ६० से १०० पौधे मरीजों को देते हैं । अभी तक वह ५६ हजार से अधिक पौधे वितरत कर चुके हैं जिनमें से करीब ९० फीसदी पौधे वर्तमान में हरे-भरे है ।
डॉ. बंसल बताते है उन्होंने करीब दो साल पहले यह अभियान शुरू किया था । कुछ समय बाद उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक ट्रस्ट बनाया, जिसके सदस्य अब दूसरे राज्यों में भी जाकर पौधारोपण करते हैं । अभियान में उन्होंने पश्चिमी उत्तरप्रदेश के कई जाने-माने चिकित्सक भी जोड़े हैं । उनके संगठन की शर्त यही है कि अपनी सेहत के साथ प्रकृति की सेहत भी सुधारनी होगी । 
चांद की सतह पर है, पानी का विशाल भंडार
अमरीका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में शोधार्थियों ने अपोलो १५ और अपोलो १७ मिशन के दौरान चन्द्रमा से जमा किए गए मिनरल्स में से शीशे के टुकड़ों का दोबारा अध्ययन किया । १९७० के दौर में चन्द्रमा पर भेजे गए अपोलो १५ व १७ अभियानों में इस सैपल को धरती पर लाया गया था । इसका दोबारा जांच में वैज्ञानिकों ने इसके अंदर भी उतना ही पानी पाया, जितना कि धरती पर पाई जाने वाली आग्नेय चट्टानों में होता है । शोध के नतीजे नेचर जियो साइंस में प्रकाशित किए गए हैं । वैज्ञानिकों का मानना है कि इस खोज से भविष्य में चांद पर जाने वाले अंतरिक्ष यात्री धरती से पानी ले जाने की जगह वहीं चन्द्रमा पर पानी निकाल सकेगे । 
शोध के प्रमुख वैज्ञानिक डॉक्टर शुहाइ ली ने बताया कि कई अन्य शोध बताते हैं कि चन्द्रमा के धु्रवीय क्षेत्रों में बर्फ के रूप में पानी मौजूद है । लेकिन हमें जिन खनिजों में पानी के अवशेष मिल हैं, उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि वहां पानी निकालने की संभावनाएं पहले से कहीं ज्यादा आसान दिख रही हैं । 
इस शोध के साथ भारत का भी अहम कनेक्शन है । चन्द्रमा पर कौन-कौन से खनिज मौजूद है, इसका पता लगाने के लिए इन वैज्ञानिकों ने भारत की ओर से भेजे गए चन्द्रयान-१ से ली गई तस्वीरों और उसके उपकरणों को भी इस्तेमाल किया । उम्मीद की जा रही है कि इस नई खोज से चांद पर बस्ती बसाने के अभियान में तेजी आएगी । 
दीमक चट कर गई पूरा का पूरा गांव
क्या दीमक पूरा गांव चट कर सकती है । सुनने में अजीब है पर है हकीकत । वाकया उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के लाम्बड़ी गांव का है, जहां ४५ साल में दीमकों ने पूरे गांव को चाट डाला है । यहीं नहीं दीमकों का लोगों में इतना खौफ है कि ज्यादातर लोग गांव छोड़कर दूसरी जगहों पर बसने के लिए चले गए हैं । 
वहीं गांव में जो लोग यहां बचे हैं, वे फर्नीचर की मरम्मत कराने या नए फर्नीचर को खरीदने के लिए पैसे खर्च करने पर मजबूर  है । 
यह समस्या इस गांव में ४५ साल पहले शुरू हुई थी और अब चीजें हाथ से बाहर निकल चुकी है । इस गांव के घरों की छतों पर भी दीमक ने सब बर्बाद कर डाला है । यहां कोई भी नया फर्नीचर नहीं खरीदता, क्योंकि दीमक उसे जल्दी बर्बाद कर डालती है । पूरा गांव दीमक की चपेट में हो, ऐसा यह पहला ही उदाहरण   है ।
जैविक कीटनाशक से फसलों को बचाएंगे 
फल, सब्जी और अनाज में लगने वाले कीटों को मारने के साथ फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रासायनिक कीटनाशक की जगह अब जैविक कीटनाशक लेगे । 
उ.प्र. में कानपुर के दयानंद गर्ल्स डिग्री कालेज की जीव विज्ञान की प्रोफेसर डॉ. सुनीता आर्य ने दूब घास, तंबाकू, कंडे की राख और मैदा की मदद से ऐसे जैविक कीटनाशक  तैयार किए है जो केवल हानिकारक कीटोंको मारेंगे । इस पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक परीक्षण के बाद प्रकृति भारती शिक्षण एवं शोध संस्थान में प्रमाणित किया गया है । 
इस कीटनाशक के प्रयोग से फल व सब्जी की फसलों को सफेद मक्खी, नियली बग, कैटर पिलर, एफिड जैसे कीट चट नहीं कर सकेगे । लेडी ब्रिटिल, ग्राउंट ब्रिटिल, एथेमिन बग, होवर फ्लाई लार्वे, लेस्विंग लार्वे जैसे लाभदायक कीटों को कोई नुकसान नहीं होगा । ये वे कीट होते है जो माहू, स्केल इनसेट व एफिड जैसे फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक कीटों को खाकर फसलों को बचाते है । प्रो. सुनीता ने कानपुर देहात के गांवों में टमाटर, बैंगन व लौकी में प्रयोग करके यह फार्मूला इजाद किया है ।
प्रो. सुनीता आर्य ने बताया कि प्रयोगशाला में शोध कार्य के बाद इन जैविक कीटनाशकों का प्रयोग खेतों में किया गया । लखनऊ के मोहनलालगंज स्थित प्रकृति भारती के फार्म हाउस पर बोई गई टमाटर, बैगन, मटर व गोभी की सब्जियों पर प्रयोग सफल रहा । शोध का पेपर इंटरनेशनल जनरल आफ इनोवेटिव साइंस इजीनियरिंग एड टेक्नोलाजी में प्रकाशित हो चुका है । 
टूब घास व तंबाकू को सुखाकर पहले उसका पाउडर बनाया जाता है । फिर उसे मिट्टी के बर्तन में पानी के साथ दो से तीन दिनोंतक सड़ाया जाता है । सूखे हुए ५०० ग्राम पावडर को २५ लीटर पानी में डालकर सड़ाते है । यह एक ऐसी क्रियाहोती है जो एक निश्चित तापमान व छाव मे की जाती है । इसके बाद मिक्चर को छान लेते   हैं और कीटनाशक तैयार हो जाता   है । इसके अलावा गौमूत्र, कड़े की राख व मैदा को मिलाकर भी कीटनाशक बनाया गया जिसका प्रयोग भी सफल रहा है । 
टाइगर स्टेट बन सकता है मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश के १० टाइगर रिजर्व व नेशनल पार्क और २५ अभयारण्यों में वर्ष २०१४ की तुलना में ४० युवा बाघ बढ़ गए है । दिसम्बर २०१७ तक दो साल की उम्र पूरी कर रहे शावकों को जोड़ें तो बाघों की संख्या ७५ से ऊपर जाती है । इन आंकड़ों से उत्साहित वन अफसर २०१८ में प्रदेश में सवा चार सौ से ज्यादा बाघों की मौजूदगी की उम्मीद लगाए है । ऐसा हुआ तो प्रदेश फिर से टाइगर स्टेट का तमगा पा    लेगा । वर्ष २०१४ की गणना में प्रदेश में बाघों की संख्या ३०८ थी । देश में सबसे ज्यादा ४०६ बाघ कर्नाटक में है । एसएफआरआई जबलपुर ने जनवरी २०१७ में सभी टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क और अभयारण्यों में बाघों की गिनती कराई है । 
मानव अपशिष्ट से तैयार होगी बिजली 
भारतीय प्रौघोगिकी संस्थान (आईआईटी) खड़गपुर में मानव अपशिष्ट से बिजली बनाने को लेकर एक प्रोजेक्ट पर काम किया जा रहा है । इस बायो इलेक्ट्रिक शौचालय की एक नहीं कई खूबिया है । यह मानव अपशिष्ट से बिजली बनाने में तो सक्षम होगा ही, बल्कि अपशिष्ट को जैविक खाद में भी तब्दील कर देगा । इसमें फ्लश के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पानी को रिसाइकल किया जा सकेगा । प्रोजेक्ट को केन्द्र सरकार के डिपार्टमेन्ट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से आर्थिक सहयोग मिल रहा है । 
इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे प्रो. एमएम घांघरेकर ने बताया कि इस टॉयलेट से जो भी अपशिष्ट टैंक में पहुंचेगा, उसमें मौजूद मिथोजेनिक बैक्टीरिया को यह सिस्टम इलेक्ट्रोजेनिक बैक्टीरिया में बदल लेगा । इसका सेप्टिक टैंक एक बड़े सेल की तरह काम करेगा । इसमें विचार यह है कि टॉयलेट बिजली भी बनाता रहे और अपशिष्ट का भी प्रबंधन करता रहे । यह पानी की बचत करने में भी सक्षम हो । पानी को फ्लशिंग के लिए रिसाइकिल   कर सकता है । इसमें फ्लशिंग के लिए सामान्य ८ से १० लीटर की जगह महज एक-दो लीटर पानी ही लगेगा । 
प्रो. घांघरेकर के मुताबिक प्रतिदिन पांच व्यक्तियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने पर यह टॉयलेट करीब ६० वॉट प्रति घंटा की औसत से बिजली तैयार करेगा । 
प्रो. घांघरेकर  कहते है कि बायो टॉयलेट में केवलअपशिष्ट का निस्तारण अथवा अपशिष्ट से विद्युत ऊर्जा तैयार की जाती रही है । उससे एक कदम आगे बढ़ते हुए हमने मानव अपशिष्ट के निस्तारण के साथ ही जल शोधन व विद्युत ऊर्जा तैयार करने की दिशा में काम किया है । 

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