शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

स्वास्थ्य
आयुर्वेद में आस्था संकट का हल क्या है ?
डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

आयुर्वेद चिकित्सा प्रणालियां आज की दुनिया में वैकल्पिक उपचार मानी जाती हैं । आयुर्वेद में विज्ञान, कला और दर्शन का त्रिवेणी संगम है जो व्यक्ति  को स्वस्थ जीवन जीने की जीवनशैली से परिचित कराती है। आधुनिक चिकित्सा शैली के सहारे किसी भी बीमारी से तुरंत राहत पा लेते है, लेकिन इसके पार्श्व प्रभावों को देखते हुए दुनिया भर में लोग वैकल्पिक चिकित्सा को अपना रहे  हंै । 
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने नईदिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्वेदिक संस्थान के शुभारंभ के अवसर पर आयुर्वेद शिक्षा, चिकित्सा और सामाजिक स्वास्थ्य पर बोलते हुए कहा कि आयुर्वेद के नेतृत्व में स्वास्थ्य क्रांति का वक्त आ गया    है ।
प्रधानमंत्री ने समाज की नब्ज पकड़ने वालांे की नब्ज पर हाथ रखते हुए इस महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर ध्यान दिलाया कि जो लोग आज आयुर्वेद पढ़कर निकलते है क्या सच में १०० प्रतिशत लोग इसमें आस्था रखते हैं। कई बार ऐसा होता है कि मरीज जब जल्द स्वस्थ होने पर जोर देता है, तब आयुर्वेद के कुछ चिकित्सक उन्हें एलोपैथी की दवा देने में संकोच नहीं करते हैं । आयुर्वेद की स्वीकार्यता की पहली शर्त यह है कि आयुर्वेद पढ़ने वालांे की इसमें शत-प्रतिशत आस्था हो । हमें उन क्षेत्रांे के बारे में भी सोचना होगा, जहां आयुर्वेद अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकता है ।
मनुष्य को छोड़कर सृष्टि के सभी जीव अपना रोगोपचार बिना चिकित्सक की मदद से स्वयं ही प्राकृतिक जीवनशैली और प्रकृति प्रदत संसाधनों से कर लेते है । सभ्यता के विकास के साथ ही नए-नए रोग प्रकाश में आते गये और उनके उपचार में नए-नए तरीके भी खोजे जाते रहे । चिकित्सा शास्त्र उतना ही पुराना है जितना मानव जाति का इतिहास । जबसे मनुष्य शरीर की उत्पत्ति हुई तब से ही रोगों का जन्म हुआ और तभी से चिकित्सा के प्रयास प्रारंभ हुए। धीरे-धीरे चिकित्सा विज्ञान के  ज्ञान का विस्तार होता गया, जो विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के रूप में हमारे सामने है । कहा जाता है कि आजकल विश्व में लगभग १५० से अधिक चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलन में है ।
आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। आयुर्वेद में विज्ञान, कला और दर्शन का त्रिवेणी संगम है जो व्यक्ति को स्वस्थ जीवन जीने की जीवनशैली से परिचित कराती है। आयुर्वेद के अनुसार मानव जिस जलवायु एवं प्रकृति में पैदा होता है, उसके लिए उसी जलवायु के अनुकूल औषधि एवं आहार-विहार स्वास्थ्यप्रद रहते हैं । देश में आयुर्वेद ज्ञान का एक बड़ा भंडार प्राचीन ग्रंथांे, हस्तलिखित पांडुलिपियांे, लोककथाआंे, वनोषधियांे, जनजातीय लोकगीतों और व्यक्तिगत अनुभवों के रूप में उपलब्ध है जिसे सही तरीके से सूचीबद्ध एवं मानकीकरण करने की आवश्यकता है ।
भारत में १५ कृषि जलवायु के साथ ही विश्व की ७ प्रतिशत जैवविविधता मौजूद है। इस कारण हमारे देश की गिनती १७ बड़े जैवविविधता सम्पन्न देशांे में होती    है । देश में उपलब्ध ४७,००० पादप प्रजातियों में से ६०००-७००० औषधीय प्रजातियों का उपयोग चिकित्सा में हो रहा है । चिकित्सा क्षेत्रांे में अधिकतम वनोषधियांे का लाभ मिले ये आज के समय की आवश्यकता है ।
भारत के कई सुदूर गाँवों में आज भी स्वास्थ्य सेवा और सुविधाएं प्रदान करने की व्यवस्थाओं का अभाव है । स्वास्थ्य सेवाआंे के निजीकरण के इस दौर में सामान्य चिकित्सा सुविधाआंे के स्थान पर उच्च् तकनीक वाली पूंजी प्रधान चिकित्सा को प्राथमिकता दी जा रही है । इस कारण गाँव के गरीब लोग इस व्यवस्था से लगातार बाहर होते जा रहे हंै ।
भारत में लगभग ७० प्रतिशत दवाईयां औषधीय पौधांे से बनाई जाती है । वैश्विक बाजार की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए औषधीय पौधांे में मौजूद क्षमता का इस्तेमाल करना होगा और इसकी वैज्ञानिक पद्धति को वैधता प्रदान करने के लिए समुचित पहल करनी होगी। आज भले ही हम आधुनिक चिकित्सा शैली के सहारे किसी भी बीमारी से तुरंत राहत पा लेते है, लेकिन इसके पार्श्व प्रभावों को देखते हुए दुनिया भर में लोग वैकल्पिक चिकित्सा को अपना रहे हंै । भारत में वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में आयुर्वेद सबसे प्रभावी पद्धति मानी जाती है । २१ वीं सदी में भी पारंपरिक इलाज के तौर पर पहचान बनाने में सफल रहे आयुर्वेद ने समाज में काफी विश्वसनीयता हासिल की है ।
देश में स्वास्थ्य पर हो रहे कुल व्यय का ८० प्रतिशत निजी क्षेत्र में जा रहा है, इसलिए हमारी स्वास्थ्य प्रणाली पर निजी क्षेत्र का भी प्रभाव रहता है । निजी क्षेत्र में अधिक मुनाफे की चाह ने ऐसी व्यवस्था के विकास पर जोर दिया है जिसमें इलाज के लिए अधिक लागत वाले उपकरण एवं तकनीकों की आवश्यकता होती है । ऐसे समय में विकल्प के रूप में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का नाम सामने आता है ।
देश में आयुर्वेद के विकास और भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए कुछ बिन्दुओं की चर्चा जरूरी     है -
  भारतीय औषधि प्रणाली के तहत सभी औषधीय पौधों के वानस्पतिक वर्गीकरण में वैज्ञानिक विवरण के साथ ही सामान्य नाम को भी शामिल करना होगा, जिससे पौधों की पहचान करने में ज्यादा आसानी होगी ।
  इलाज और दवाईयों में पूरे देश में समानता रखने के लिए मानकीकरण होना चाहिए । आयुर्वेद के क्षेत्र में दवाओं के निर्माण में गुणवत्ता नियंत्रण को लागू किया जाना चाहिए । इस सम्बन्ध में देश में हो रहे शोध कार्यों का दस्तावेजीकरण जरुरी है। आयुर्वेद विशेषज्ञों को ऐसी दवाआंे की खोज करनी होगी, जो रोगी को आपात स्थिति में तत्काल राहत प्रदान कर सके । 
  आयुर्वेद शिक्षा में सुधारों की आवश्यकता है। खासकर शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा । आयुर्वेद शिक्षा की स्तरीय पुस्तकें  हिंदी भाषा में कम उपलब्ध है यह भी एक समस्या है इसका हल निकालना होगा । 
  एक पैथी के चिकित्सक द्वारा दूसरी पैथी में इलाज करने पर रोक लगनी चाहिए जिससे आयुर्वेद क्षेत्र के चिकित्सक एलोपैथी में और एलोपैथी क्षेत्र के चिकित्सक आयुर्वेद पैथी से इलाज नहीं कर सके, इससे आयुर्वेद और एलोपैथी दोनों का सम्मान बढेग़ा ।   
आयुर्वेद को देश में ही नहीं अपितु विश्व में सम्मान मिल रहा    है । लेकिन आयुर्वेद क्षेत्र में कार्यरत चिकित्सक अपने आप को वैद्य कहलाने में हीनता महसूस करते हंै और स्वयं को डाक्टर लिखते हंै, जबकि आयुर्वेद में पुराने समय से वैद्य, वैद्यराज और राज वैद्य जैसे गरिमामय संबोधन प्रचलन में रहे   हैं । 
आज आयुर्वेद के गौरवशाली अतीत को वर्तमान में लाना है तो समाज में ऐसा वातावरण बनाना होगा जिसमें आयुर्वेद के जानकार अपने आप को वैद्य कहलाने में गौरव का अनुभव कर सके । ऐसे अनेक स्तरों पर होने वाले प्रयासों द्वारा समाज और शासन की संयुक्त शक्ति से आयुर्वेद का लाभ जन सामान्य तक पहुंचा कर देश में स्वास्थ्य क्रांति लाई जा सकती है ।

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