शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

सामयिक
टिहरी बांध के दावो और वादों का हिसाब 
विमल भाई

टिहरी बांध से जो लाभ मिलने की बात थी वे अब त भी नहीं मिल पाए । पर्यावरण की शर्ते भी पूरी नहीं हो पायी । ऐसे में प्रश्न उठता है कि सरकारें पुराने बने हुए बांधों का हिसाब-किताब दें और ये बताये कि जो दावे और वादे किये गये थे उससे लोगोंे का जीवन स्तर कितना ऊँचा उठ  पाया ? क्या पहाड़ के लोग अपनी संस्कृति को पुनर्वास स्थल पर बसा पाए हैं ?
उत्तराखंड के टिहरी बांध से विस्थापितों के पुनर्वास की कहानी बहुत लंबी है । टिहरी बांध प्रभावित क्षेत्र में बहुत लोगों की आजीविका नदी व जंगल पर आधारित थी, उनका नदी व जंगल से एक रिश्ता था । एक समाज और संस्कृति का बिखराव विकास की इस परियोजना से देखने को मिला है । टिहरी बांध के  निर्माण के वक्त जो दावे किये गए थे उतनी बिजली आज तक पैदा नहीं हो पाई है । टिहरी बांध से जो लाभ मिलने की बात थी वे भी नहीं मिल पाए । टिहरी बांध में दस पुल डूबे थे, १२ साल बांध को चालू हुए हो गए । 
अभी तक  जो बदले में पुल बनने थे वे सभी नहीं बन पाए । लोगों को आर-पार आने जाने में बहुत परेशानी होती है। कुछ किलोमीटर का रास्ता अब दिन भर का हो गया । फिर बांध बनने के  बाद सरकारी आँकड़ों के अनुसार झील के आस-पास के लगभग ४० आंशिक प्रभावित गांव नीचे धसक रहे हैं । अब धीरे-धीरे नुकसान झेल रहे हैं। उनकी अब कोई सुनवाई   नहीं । बांध के सामने ही मदन नेगी गांव में मकान लगभग ७ साल पहले घसक गए थे किन्तु आज तक उनका मुआवजा नहीं मिल पाया है । 
पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने भूकंप की संभावना को देखते हुए अप्रैल १९९६ के उपवास में टिहरी बांध की पुन: समीक्षा की पुरजोर मांग की थी । बांध के भूकंपीय खतरे के संदर्भ में पुनर्विचार के लिए जो समिति गठित की गई थी, केन्द्र की देवेगौड़ा सरकार ने पुनर्वास के लिए भी डॉ. हनुमंता राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया । डॉ. हनुमंता राव समिति ने जो सुझाव दिए सरकार ने उसके १० प्रतिशत सुझावों को ही माना, जिसमें से अब तक १० प्रतिशत भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाये। १९९८ में इन सुझावों को पुनर्वास नीति में जोड़ा गया, किन्तु इसके बाद भी पुनर्वास का काम बहुत धीमी गति से ही चला । वास्तविकता तो यह थी कि टिहरी बांध के वक्त कोई पुनर्वास नीति बनी ही नहीं थी । सन् १९७८ से ही लोगों का विस्थापन शुरू हो गया था। बहुगुणाजी के धरना, प्रदर्शनों व लंबे उपवास के बाद पुनर्वास नीति बननी शुरू  हुई । और अंतत: १९९५ में पहली पुनर्वास नीति बन पाई । 
वहीं आज उत्तराखंड के  कुमाऊं  क्षेत्र में प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के  मामले में देखें तो आज पंचेश्वर बांध व रुपालीगाड बांध परियोजनाओं में कानूनों का पालन नहीं हो रहा है । सन् २०१४ से पहले कई कानून बने हैंं, उनमें पर्यावरण जनसुनवाई कानून, सामाजिक आकलन जन सुनवाइयों कानून, वन अधिकार २००६ कानून । पंचेश्वर के बांधों की पुनर्वास नीति भी गलत आंकडों के आधार पर बनाई गई । 
टिहरी में भी डूब क्षेत्र के  काफी गलत सर्वे किए गए थे । टिहरी बांध चालू होने के बाद सर्वोच्च् न्यायालय के आदेश पर हुए सर्वे में १००० नये विस्थापित सामने आये । जिनमें से आधे तो आज भी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हंै। याद रहे कि टिहरी बांध की गौरव गाथा गाकर बांध कंपनी टिहरी जलविद्युत निगम, (टीएचडीसी) उसे और भी कई नये बांधों के  ठेके मिल गये । किन्तु पथरी भाग १, २, ३ व ४ हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले टिहरी बांध विस्थापितों के मामले ३५ वर्षों से लंबित है । यहां लगभग ४० गांवांे के  लोगांे को पुनर्वासित किया गया है। यहां ७० प्रतिशत विस्थापितों को भूमिधर अधिकार भी नहीं मिल पाया है । मुफ्त बिजली, पीने और सिंचाई का पानी, यातायात, स्वास्थ्य, बैंक, डाकघर, राशन की दुकान, पंचायत घर, मंदिर, पित कुटटी, सड़क, गुल, नालियां आदि भी व्यवस्थित नहीं बन सकी है। 
ज्यादातर ग्रामीण पुनर्वास स्थलों पर जैसे सुमननगर और शिवालिक नगर में बहुत कम लोग बचे हैं । सुमननगर में पानी की समस्या है, जबकि टिहरी बांध से दिल्ली की ओर जा रही नहर ५०० मीटर दूर है। शिवालिक नगर के विस्थापितों ने अपनी सारी जमीनें बेच दी है चूँकि मूलभूत सुविधाएं नहीं थी। यहां रहने वाले प्रभावित वापस चले गए । यानि समाज पूरी तरह से बिखर गया । 
पंचेश्वर बांध क्षेत्र में वैसी ही स्थिति जौलजीवी और झूलाघाट बाजारों की है। यहाँ के बाजार स्थानीय गांवों के ग्राहकों से ज्यादा नेपाल से आने-जाने वाले ग्राहकों से ज्यादा चलते हैं। मगर सामाजिक आकलन रिपोर्ट में इनका कोई जिक्र नहीं है। 
शहरी विस्थापन के लिये, जो टिहरी शहर बसाया गया, वहां पर भी ४० प्रतिशत ही पुरानी टिहरी शहर के लोग है। शहरी पुनर्वास की स्थिति देखें तो यहां भी प्रभावितों ने ग्रामीण विस्थापितों की ही तरह किसी तरीके से बसाने की कोशिश की है। दस साल बाद जमीन मिली । अब मुआवजे तो खत्म हो गए थे। टिहरी शहर के मुआवजे की सूची देखें तो ५ रूपये से लेकर ३५ रूपये तक भी मकानों के मुआवजे मिले थे। आज यह कहा जा सकता है कि मुआवजा बहुत अच्छा दे रहे हैं, लाखों रूपये दे रहे हैं । 
मगर देखना तो यह है कि क्या उसमें नई जगह पर मकान बन पायेगा ? फिर सरकार अगर जमीन देने की बात करती है तो क्या सबके लिए उतनी जमीन उपलब्ध है ? परिवार किसको माना ? जिसके  नाम जमीन है । यानि प्राय: वृद्ध लोगों को । जाहिर सी बात है कि आकड़े बहुत कम दिखेंगे । जैसा टिहरी में हुआ, यहाँ पर भी वही बात है । 
पंचेश्वर में तो सर्वे बिलकुल ही गलत है । टिहरी बांध में प्रभावितांे को जमीन देना बहुत ही मुश्किल हो गया था । सरकार ने अपने हिसाब से बार-बार नीतियां बदली । जैसे ऋषिकेश के पशुलोक क्षेत्र में ११०० एकड़ जमीन को शहर के पास माना गया और पुनर्वास नीति में दो एकड़ होने के बावजूद आधा एकड़ जमीन स्वीकार करने के लिये लोगों को मजबूर किया गया । क्योंकि बांध सामने था और लोगों को मजबूरी   थी । इसलिये उन्हें लगा जो मिले वही ले लेना चाहिए । 
सरकारी अधिकारियों व बांध कंपनी की मिली भगत से गांव-गांव के अंदर दलाल खड़े हो गए थे । लोगों ने रिश्वत दे कर, दया आधार पर, किसी तरीके से मुआवजे लिये । मतलब अपनी जो जमीन, सम्पत्ति पीढ़ियों से जो संचित की हुई है, वो डूब रही है और उसके बदले में जो मिल रहा है, वे लेने के लोगों को आपसी लड़ना-झगड़ना, धरना-प्रदर्शन करना पड़ा । भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ा । उसके बाद भी सभी टिहरी बांध प्रभावितों को समुचित मुआवजा मिल पाया हो, ऐसा भी नहीं हो   पाया । हजारों प्रकरण विभिन्न अदालतों में चल रहे है । 
ज्ञातव्य है कि अभी भी राज्य सरकार ने टिहरी बांध कंपनी को टिहरी बांध पूरा भरने की इजाजत नहीं दी है। यह भी तथ्य है कि सुन्दरलाल बहुगुणा के आंदोलन और दवाब से पर्यावरण व पुनर्वास की शर्तें मजबूत हो पायी और लोगों का पुनर्वास संभव हो पाया । पंचेश्वर के बांधों के आंशिक डूब के गांवांे में भी धसकने की स्थिति आएगी । अब पंचेश्वर के बांधों के संदर्भ में सरकार कह सकती है कि पहले ही पुनर्वास की जनसुनवाईयंा हो रही है । 
यदि सरकार सब सुनिश्चित कर भी दें तो जमीन कहाँ है     उतनी ? क्या वो जमीन खेती लायक है ? खेती कैसी हो पायेगी ? क्या वो जमीन बसने लायक है ? भूमिधर अधिकार कब मिलेगा ? मूलभूत सुविधाएं कब तक होंगी ? ऐसे तमाम प्रश्न इसमें उलझे पड़े होते हैं । लेकिन क्या इस विस्थापन के बाद सुकून को वह स्थिति आएगी ? राज्य में अन्य बड़े बांधों को आगे बढ़ाने वाली उत्तराखंड व केन्द्र सरकारों का दायित्व नहीं बनता कि वे पुराने बांधों के विस्थापितों व उनकी समस्याओं का तत्काल निदान करे, बजाय उनको अपने हाल पर छोड़ने पर लाचार होने के लिए ।

कोई टिप्पणी नहीं: