शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

जन जीवन
अनियोजित शहरीकरण और बड़े शहर
पंकज चतुर्वेदी
भारत की कुल आबादी का ८.५० प्रतिशत हिस्सा देश के २६ महानगरोंमें रह रहा है । अनुमान है कि आने वाले २०-२५ सालों में १० लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या ६० से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान ७० प्रतिशत होगा । 
संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि वर्ष २०५० तक भारत की ६० फीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी । वैसे भी २०११ की जनगणना के मुताबिक कुल ३ फीसदी आबादी अभी शहर मेंनिवास कर रही है । साल दर साल बढ़ती गर्मी गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल, ऐसे कई मसले है जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरुक बना रहे हैं । कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बातर कर रहा है तो कही कोई पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प कर रहा है तो वहीं जंगल व वहां के बाशिंदे जानवारोंको बचाने के लिए प्रयास कर रहे है, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट शहरीकरण एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है ।
असल में, संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का । सभी के मूल मेंविकास की वह अवधारणा है जिससे शहर रुपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृतिऔर नैसर्गिकता । अपने देश में संस्कृति, मानवता और बसाहट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है । सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है । बीते कुछ दशकोंमें विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई । 
यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे है और नगर महानगर । बेहतर रोजगार, आधुनिक जन सुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति का नतीजा है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या ३०२ हो गई है, जबकि १९७१ में ऐसे शहर मात्र १५१ थे । यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है । इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर १६ हो गई है । पांच से १० लाख आबादी वाले शहर १९७१ में मात्र ९ थे जो आज बढ़कर आधा सैकड़ा हो गए है ।
विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले २०-२५ सालों में १० लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या ६० से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद मेंयोगदान ७० प्रतिशत होगा । एक बात और बेहद चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रोंमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है । यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है , यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कही भारत आने वाली सदी में `अरबन स्लम' या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील न हो जाए । शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए । इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे है या फिर जंगल । जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्त्रोत, सभी कुछ नष्ट हो रहा है । यह वह नुकसान है, जिसका हर्जाना संभव नहींहै । शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन है कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए इंर्धन को पी रहे है और बदले में दे रहे है दूषित वायु । शहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानि ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु सयंत्र लगेंगे । 
दिल्ली कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है । मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और ५० साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारेंस्वीकार करती रही है । बेंगलुरु में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरुप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है । शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तोंमें बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा । यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बहकर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा । ऐसे जोहड़-तालाब कांक्रीट की नदियों में खो गए है । परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है । महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण है । जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे है तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नही चला पा रहे हैं ?
पोलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण है, जो कि गहरे सीवरों के दुश्मन है । शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानोंकी स्थापना का ही दुखद परिणाम है कि तकरीबन सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी है । नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्योके लिए न कि उसमेंगंदगी बहाने के लिए । गांवो के कस्बे, कस्बोंके शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है । दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख के केंद्र होते है, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है ।
शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का आसान जरिया होते है, यहां दूषित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है । देश के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे है ं । कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है । एक बार फिर शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है ।
असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है । बीत दो दशकोंके दौरान यह परिपाटी पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं । इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कांक्रीट के जंगल मेंबदल दिया गया । देश के अधिकांश शहर अब सड़को के दोनोंओर बेहतरीन बढ़ते जा रहे हैं । न तो वहां सर्वाजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न ही बिजली-पानी की न्यूनतम आपूर्ति ।   ***

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