गुरुवार, 15 मार्च 2018


प्रसंगवश
भारत में २०२० तक सबसे ज्यादा होगें दिल के मरीज
देश में २०२० तक दिल की बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा होगी । यह दावा पिछले दिनों कार्डियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया की ओर से कराए गए सर्वेक्षण में किया गया है । सर्वेक्षण के अनुसार देश में दिल के मरीजों में इस समय ५४ लाख लोग हार्ट फेल्यर से पीड़ित है ।
कार्डियोलाजिकल सोसाइटी के अध्यक्ष डाक्टर शिरिष हिरेमथ के अनुसार भारत मेंजितनी तेजी से हृदयघात और उससे होने वाली मृत्युदर मेंबढ़ोतरी हो रही है उसे देखते हुए इसे प्राथमिकता देने की जरुरत है । बीमारी के बढ़ते मामलों को देखते हुए सभी हितधारकों को सामुदायिक स्तर पर बीमारी के प्रति जागरुकता बढ़ाने की जरुरत है । उन्होनें कहा कि हार्ट फेल्योर और हार्ट अटैक एक अवस्था नहीं है दोनों में काफी अंतर होता है । हॉर्ट फेल्योर की स्थिति मेंदिल की मांसपेशियां कमजोर हो जाती है जिससे वह रक्त को प्रभावी तरीके से पंप नही कर पाती । इससे दिल तक ऑक्सीजन व जरुरी पोषक तत्वों के पहुचनें की गति सीमित हो जाती है जबकि हार्ट अटैक दिल के काम बंद कर देने की अवस्था होती है जिससे इंसान की मौत हो जाती है ।
विशेषज्ञोंके अनुसार दिल की बीमारी मेंउच्च रक्त चाप, खराब जीवन शैली, मधुमेह, शराब का सेवन, दवाईयों का अत्यधिक इस्तेमाल तथा फैमिली हिस्ट्री की बड़ी भूमिका होती है । इसके लक्षणोंमें सांस लेने में तकलीफ, थकान, टखनों, पेर और पैरों में सूजन, भूख न लगना, अचानक वजन बढ़ना, धड़कन तेज होना और चक्कर आने जैसी परेशानियां शामिल है ।
एम्से के कार्डियोलाजी विभाग के प्रोफेसर डाक्टर संदीप मिश्रा के अनुसार खराब जीवन शैली के कारण दिल की बीमारी पश्चिमी देशोंकी बजाए भारत में लोगों को एक दशक पहले ही बीमार बना रही है । देश में इस बीमारी के होने की औसत उम्र ५९ वर्ष है । जागरुकता की कमी, महंगे इलाज तथा ढांचागत सुविधाआें की कमी से इसके मामले लगातार बढ़ते जा रहे है ।
खासतौर युवाआें में पिछले दो दशक से यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है । साल १९९० से लेकर २०१३ तक ऐसे मामलों में १४० फीसदी का इजाफा हो चुका है । जीवन शैली में तेज़ी से हो रहा बदलाव और तनाव युवाआें को इसका शिकार बना रहा है । अमेरिका और यूरोप में दिल की बीमारी से पीड़ित रोगियों की तुलना में भारत में इससे पीड़ित लोगों की आयु १० साल कम है यानि कि वे ज्यादा युवावस्था में ही इसकी चपेट में आ रहे है । सर्वेक्षण के आंकड़ो के अनुसार कम और औसत आय वाले भारत जैसे देश मेंदिल की बीमारी से हाने वाली मृत्युदर उच्च् आय वाले देशों से बहुत ज्यादा है ।
सम्पादकीय
चांद की बड़ी तोंद और समंदर का अतीत
हमारे सौर मंडल के कई पिंडों की यह खासियत है कि ध्रुव से ध्रुव तक उनके व्यास की अपेक्षा विषुवत रेखा पर उनका व्यास ज़्यादा होता है । यानी वे विषुवत रेख पर थोड़े ज्यादा फूले हुए होते है । इसका कारण यह है कि पिंड के घूर्णन की वजह से बीच वाले भाग के पदार्थ पर बाहर की ओर थोड़ा ज्यादा बल लगता है ।
यदि पृथ्वी को देखें तो उसका धु्रवीय व्यास ७८९८ किलामीटर है जबकि विषुवत व्यास ७९२६ किलोमीटर है । चंद्रमा के मामले मेंध्रुवीय व्यास विषुवत व्यास से करीब ४.३४ कि.मी. ज्यादा है जो अपेक्षा से २०० मीटर ज्यादा है । वर्तमान में चांद प्रतिदिन एक बार अपनी अक्ष पर घूमता है । कोलेरैडो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर अनुकृति बनाकर इसकी एक व्याख्या प्रस्तुत की है । कंप्यूटर अनुकृति का मतलब है कि आप सारे उपलब्ध आंकड़े कंप्यूटर मेंडाल देते है । और साथ में कुछ नियम डाले जाते है । कंप्यूटर इन नियमोंके  अनुसार उपलब्ध आंकड़ो का विश्लेषण करके निष्कर्ष प्रस्तुत कर देता है ।
शोधकर्ता ने बताया है कि अनुकृति से पता चलता है कि चंद्रमा की बाहरी परत और उसकी आकृति लगभग ४ अरब वर्ष पहले अपने वर्तमान स्वरुप मेंआ चुकी थी । यानी जो विषुवत तोंद नजर आती है वह ४ अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई थी । इसका मतलब है कि चांद की घूर्णन गति उससे पहले कहीं ज्यादा थी ।
शोधकर्ता दल का मत है कि उनके मॉडल के अनुसार इसका कारण यह है कि उस समय पृथ्वी की घूर्णन गति उतनी रफ्तार से मंद नहींपड़ रही थी । पृथ्वी की घूर्णन गति में धीमी रफ्तार से मंदन का असर यह था कि चांद और पृथ्वी के मिले-जुले तंत्र के घूर्णन संवेग को संतुलित करने के लिए चांद की घूर्णन गति ज्यादा तेज़ी से मंद पड़ी ।
सवाल यह है कि उस समय पृथ्वी की घूर्णन गति में तेज़ी से मंदन क्यों नहीं हुआ ? टीम को लगता है कि इसका कारण शायद यह था कि उस समय पृथ्वी के घूमने की गति को धीमा करने वाले समंदर या तो थे नहीं अथवा वे बर्फ के रुप में जमें हुए थे । इसका कारण यह भी हो सकता है कि उस समय (४ अरब वर्ष पूर्व) सूरज की रोशनी इतनी तीव्र नहीं थी ।
सामयिक
पर्यावरण सम्मत होली और प्रकृति संरक्षण
कुमार सिद्धार्थ
विविधता मेंएकता भारतीय संस्कृति की विशेषता ाहै । होली के दिन हर गली और हर घर रंगोंमें सराबोर नजर आता है । हर रंग का महत्व होता है । भारत में हर अवसर लिए एक रंग है । हर रंग जीवन को शक्ति देता है और जीवन को एक अलग महत्व देता है । लेकिन बदरंग होती होली की परम्परा से प्रकृति और पर्यावरण पर सीधा असर पड़ने लगा है ।
भारत देश के परंपरा, संस्कृति और त्योहार लोगो को एक दूसरे के नजदीक लाते है और उन्ही त्योहारोंमें से एक है रंगो का महोत्सव होली । हमारे देश में रंगों के त्योहारों होली का अपना अनोखा महत्व है । होली का अथ है सूख, शांति, अच्छे धन-धान्य तथा समृद्ध जीवन की कामना । प्रेम, सद्भावना और मेलजोल के लिए हम आपस में अबीर-गुलाल और रंग बिरंगे रंगों का प्रयोग करते है तब मानो ऐसा प्रतीत होता है कि सारे भाषा, धर्म और संस्कृतिके भेद और उंच-नीच की दीवारें टूट गई है ।
लेकिन बदलते हालातों में होली की परंपरा अब उतनी खूबसूरत नहीं रह गई, जितनी पहले हुआ करती थी । आधुनिक होली हमारे प्रकृतिऔर पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रही है । पानी, लकड़ी और रसायनों का बढ़ता प्रयोग इसके स्वरुप को दूषित कर रहा है । पर्यावरण के प्रति सजग लोग और समाज इसके लिए जरुर प्रयासरत है, लेकिन इसके बावजूद हजारोंक्विंटल लकड़ियां, लाखों लीटर पानी की बर्बादी और रासायनिक रंगों का प्रभाव मनुष्य की सेहत और पर्यावरण पर हो रहा है ।
हर गली-मोहल्ले में होली जलाई जाती है और सैंकड़ों टन लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है । एक होली में औसतन ढाई क्विंटल लकड़ी जलती है । यदि हम एक शहर में जलने वाली होलिका दहन स्थलों की संख्या से हिसाब लगाएं तो लगभग १२ लाख किलो लकड़ी हर साल होली पर जला दी जाती है । होली पर इस तरह हर साल लाखों क्विंटल लकड़ी जलना चिंताजनक है । जबकि पुराने जमाने में घर-घर से लकड़ी लेकर होलिका जलाने की प्रथा थी । अब समय आ गया है कि हर चौराहे पर सामूहिक होलिक का दहन किया जाना चाहिए । दूसरा विकल्प यह भी है कि अपना देश कृषि और पशुधन की अपार संपदा से भरापूरा है । यहां पशुआें के बहुतायत में होने से गोबर होता है । मध्यप्रदेश गोपालन और संवर्धन बोर्ड के अनुसार मध्यप्रदेश में उपलब्ध पशुधन से रोजाना १५ लाख किलो गोबर निकलता है । १० किलो गोबर से पांच कंडे बनाए जा सकते है । यानी प्रदेश मेंरोज साढ़े सात लाख कंडे बन सकते है । इसलिए लकड़ी की जगह कंडो की होली जलाकर एक सामाजिक सरोकार को नुकसान होने से बचाया जा सकता है ।
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्री डॉ. मानसकांत देब कहते है कि लकड़ी के बजाए कंडे की होली के कई फायदे है । लकड़ी के बराबर कंडे की होली का वजन बीस गुना से कम होता है । इसलिए धुआं भी कम होता है । तेज आंच मेंकंडे तुरंत जलकर खत्म हो जाते है । जबकि जली लकड़ी की बची हुई राख हवा में मिलकर और धातक हो जाती है साथ ही हजारों किलो कार्बन हवा में घुलता है ।
कोई त्यौहार बाजार के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकते है इस वजह से होली के त्यौहार की प्रकृति ही बदल गई है । अब प्राकृतिक रंगोंके जगह रासायनिक रंग, ठंडाई की जगह नशा और लोक संगीत की जगह फिल्मी गीतोंने ले लिया है । रंगों में रसायनों की मिलावट होली के रंग मेंभंग डालने का काम करता है ।
प्रकृति मेंअनेक रंग बिखरे पड़े है । पहले समय में रग बनाने के लिए रंग-बिरंगे फूलोंका प्रयोग किया जाता था, जो अपने प्राकृतिक गुणोंके कारण त्वचा को नुकसान नहीं होता था । लेकिन बदलते समय के साथ शहरों और आबादी का विस्तार होने से पेड़-पौधो की संख्या में भी कमी होने लगी । सीमेंट के जंगलो का विस्तार होनेे से खेती कृषि प्रभावित हुई है । जिससे फूलोंसे रंग बनाने का सौदा महंगा पड़ने लगा ।
होली पर हम जिसे काले रंग का उपयोग करते है, वह लेड ऑक्साइड से तैयार किया जाता है । इससे किडनी पर खतरा होता है । हरा रंग कॉपर सल्फेट से बनता है, जिसका असर आंखो पर पड़ता है । लाल रंग मरक्यूरी सल्फाइट के प्रयोग से बनता है । इससे त्वचा का कैंसर हो सकता है । ऐसे ही कई रासायनिक रंग है, जो स्वास्थ्य को हानि पहुंचाते है । इसलिए हमें सोचना होगा कि होली के त्यौहार पर अपनों को रंगनेके लिए प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाए, जो न तो हानिकारक होते है और न ही पर्यावरण को काई नुकसान पहुंचता है ।
क्या आप जानते है कि होली पर हम किस हद तक पानी की बर्बादी करते है? बेशक दुनिया का दो तिहाई हिस्सा पानी से सराबोर है, लेकिन इसके बावजूद भी पीने के पानी की किल्लत हर जगह है । अनुमान है कि होली खेलने वाला प्रत्येक व्यक्ति रोजमर्रा से ५ गुना ज्यादा पानी खर्च करता है । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूरे इलाके मेंहोली खेलने के दौरान कितने गैलन पानी बर्बाद होता है ।
अब वक्त आ गया है कि बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए हमेंअपने त्यौहारों के स्वरुप को भी बदलना होगा । ऐसे में होली के त्यौहार को भी पर्यावरण सम्मत रुप से मनाये जाने पर गंभीरता से सोचा जाना चहिए । अब जैविक खेती से लेकर जैविक खाद का प्रयोग प्रचलन में है । जैविक होली के प्रयोग के लिए देश  के कुछ शहरों में सक्रिय संगठन लोगों को जागरुक करनेके लिए आगे आए है । ये संगठन जैविक होली को अपनाना होगा । इसी तरह के विकल्पोंऔर प्रयोगों से होली के स्वरुप और परंपरा को बरकरार रखा जा सकेगा और प्रकृति के संरक्षण के दिशा में एक कदम बेहतरी की ओर बढ़ा सकेंगे ।                                       ***

हमारा भूमण्डल
प्रदूषण के खिलाफ चीन की जंग
डॉ. ओ. पी जोशी
चीन द्वारा प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए साल दर साल अपनाए गए उपायोंकी वजह से वहां की आबोहवा में सुधार हुआ जबकि भारत का प्रदूषण स्तर पिछले दशक में धीरे-धीरे बढ़कर अधिकतम स्तर पर पहुंच गया है । चीन ने प्रदूषण से लड़ाई को सबसे जरुरी माना है और अपने यहां सभी विकास योजनाआें में पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता दी है । यहां प्रदूषण के खिलाफ जंग काफी संवेदनशील मुद्दा बन चुका है ।
पांच छ: वर्ष पूर्व तक चीन में प्रदूषण की समस्या काफी गम्भीर थी, विशेषकर वायु प्रदूषण की । घनी धुंध के कारण सर्दियों में पूर्वी चीन के स्कूल कई दिनोंतब बंद किये जाते थे । कई शहरों में धुंध की अधिकता से सूर्य के दर्शन नहीं हो पाते थे जिस स्क्रीन पर लोगों को बताया जाता था । देश के ९० प्रतिशत शहरों की अबोहवा निर्धारित मानकों से ज्यादा थी एवं ७४ बड़े शहरों में से केवल०८ में वायु प्रदूषण निर्धारित स्तर से कम था ।
पूर्व स्वाथ्य मंत्री चेन झू ने २०१५ में कहा था कि यहां वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष लगभग ०५ लाख लोगों की मौत समय पूर्व हो जाती है । प्रदूषण रोकथाम की असफलता पर न्यायालय ने भी एक नागरिक लीगुई झीन की याचिका पर सरकार की काफी आलोचना की थी । अंतत: प्रदूषण की इस विकराल समस्या के समाधान हेतु सरकार ने लगभग १९ हजार करोड़ रुपये की योजनाएँ बनायी एवं उन पर अमल प्रारंभ किया ।
इन योजनाआें के तहत जो कार्य किये गये उनमें कारखानों का स्थानांतरण, बंद करना, उत्पादन कम करना, कोयले का कम उपयोग, बेकार वाहनों को सड़कों से हटाना एवं नये बिक्री पर रोक, एअर प्यूरीफायर तथा ताजी हवा के गलियारे की स्थापना आदि प्रमुख थे । चीन में औद्योगिक प्रदूषण सर्वाधिक होने से उसे नियंत्रण के ज्यादा प्रयास किये गये । सरकार ने दावा किया कि देश के प्रमुख शहरों में वर्ष २०२० तक प्रदूषण ६० प्रतिशत तक कम किया जावेगा एवं अन्य शहरों में भी स्थापित मानकों अनुसार रखनेके प्रयास किय जाएगें।
देश की राजधानी बीजिंग शहर सर्वाधिक प्रदूषित था । अत: वहाँ सबसे ज्यादा ध्यान दिया गया । वर्ष २०१४ में शहर के आसपास के ३९२ कारखाने बंद किये गये जिनमें सीमेंट, कागज, कपड़ा व रसायनों के प्रमुख थे । स्टील तथा एल्युमिनियम के कारखानोंमें एक तिहाई उत्पादन कम करने के आदेश दिये गये । कारों के पार्ट्स बनाने वाली जर्मन की शेफलर कम्पनी भी सरकार की सख्ती से परेशान हो गयी । सिमप्लांट फूड प्रोसेसिंग कारखानोंपर उचित ढंग से प्रदूषण नियंत्रण नहीं करने पर लगभग चार करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया ।
बीजिंग में ही वर्ष २०१४ में बेकार पाँच लाख वाहनों को सड़क से हटाया गया एवं जनवरी २०१८ से ५५३ वाहनों के मार्ड्ल्स की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया गया । यहां प्रमुख बाजारोंमें छ: साल हवा के गलियारें (विंड-कोरिडोर) भी बनाये गये जहां आसपास से साफ हवा खिंचकर प्रवाहित की जावेगी । यहां के जोझियांग प्रांत मेंएक रसायन का कारखाना ज्यादा प्रदूषण फैलाने के कारण २००९ में ही बंद कर दिया गया था परंतु फिर भी इसके आसपास दुर्गंध फैल रही थी । फैल रही इस दुर्गंध को रोकने हेतु सारी इमारत को पोलिएस्टर फाइबर के कपड़े से ढंका गया जिस पर करोड़ों रुपया व्यय हुआ । शांक्शी प्रांत के झियान शहर में३३० फीट उंचा एअर-प्यूरीफायर लगाया गया । अर्थ साइंस संस्थान के वैज्ञनिक इसका पूरा कार्य देखकर निरीक्षण कर रहे है । टावर की क्षमता एक करोड़ घन मीटर हवा प्रतिदिन शुद्ध करने की है एवं आसपास के १० कि.मी. की हवा यह साफ कर सकता है । प्रारम्भिक परीक्षणोंमें पाया गया है कि टॉवर हवा की गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ स्माग को भी १५ से २० प्रतिशत तक कम करता है । टॉवर की सारी कार्य प्रणाली सौर उर्जा से नियंत्रित है । वर्ष २०१७ में चीन ने ५५ गीगावाट की सौर क्षमता विकसित की है ।
जुलाई २०१७ में २४ प्रकार के अवशिष्ट पदार्थो (वेस्ट प्रोडक्ट्स) के आयात पर प्रतिबंध लगाया गया । इसका कारण यह था कि इन पदार्थोंा की रिसायकिल से जब कई वस्तुएँ बनायी जाती था तो प्रदूषण के साथ-साथ वहां के मजदूरोंके स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव होता था ।
औद्योगिक प्रदूषण की रोकथाम के साथ-साथ वन सम्पदा बढ़ाने के भी प्रयास किये गये । देश की शांत सीमाआें (जहां युद्ध की गतिविधियाँ नहीं होती है) पर कार्यरत ६० हजार सैनिक को वर्ष २०१८ में ८४ हजार वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में पौधे लगाकर उनकी देखभाल की जिम्मेदारी प्रदान की गयी है । सैनिक भी इससे प्रसन्न है कि उन्हें बर्फीले क्षेत्रों से दूर जाकर एक नया कार्य करने का अवसर मिल रहा है । वर्तमान में चीन में २१ प्रतिशत वन क्षेत्र है जिसे २३ प्रतिशत तक बढ़ाने का प्रयास है । गुआंगशी प्रांत के लुइझ शहर के पास वन नगर (फॉरेस्ट सिटी) बनाया जा रहा है । लगभग १७५ हेक्टर मेंबनाये जाने वाले इस नगर में ३०-३५ हजार लोग रह सकेगे । इस वन नगर में १०० प्रजाति के १० लाख पेड़ - पौधे लगाये जायेंगे जो लगभग १० हजार टन कार्बन डाय ऑक्साइड तथा ५० टन से ज्यादा धूल के कणों को कम करेंगे ।
पिछले वर्षोंा में चीन द्वारा किये गये प्रयासों के परिणाम भी अब सामने आने लगे है । वहां की सरकार ने बताया कि पिछले शीतकाल में बीजिंग में ५३ प्रतिशत वायु प्रदूषण में कमी का आकलन किया गया जिससे आसपास नीला आकाश दिखायी देने लगा । आसपास के २७ शहरों में भी वायु प्रदूषण ३५ प्रतिशत कम हुआ । चीन सरकार की इस रिपोर्ट को पर्यावरण की अंतर्राष्ट्रीय संस्था ग्रीन-पीस ने भी अपना आकलन कर इसे सही बताया है । चीन द्वारा प्रदूषण नियंत्रण के सारे प्रयासोंकी विशेषता यह रही कि उसने बेरोजगारी बढ़ने तथा जी.डी.पी. कम होने की चिंता छोड़कर केवल पर्यावरण सुधार पर ध्यान दिया ।
हमारे देश के भी ज्यादातर शहरों में वायु प्रदूषण की समस्या गंभीर स्वरुप ले चुकी है अत: यहां भी चीन के समान प्रयास जरुरी है । शायद चीन से ही प्रेरणा लेकर हमारे देश में भी अभी-अभी १००० सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में प्रदूषण के विरुद्ध महा अभियान प्रारंभ करने की घोषणा की गयी है । इसके तहत आगामी ०३ एवं ०५ वर्षोंा में क्रमश: प्रदूषण ३५ एवं ५० प्रतिशत कम करने के प्रयास किये जायेंगे । 
ये प्रयास तीन स्तरों पर होगें । प्रथम प्रदूषण के खिलाफ कार्य रहे संगठनों में समन्वय बनाना । द्वितीय बच्चें एवं युवाआें में जागरुकता लाना एवं तृतीय-केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा बनाये दलों द्वारा प्रदूषण पर कानूनी निगरानी रखना । वैसे अभी १६ फरवरी को दिल्ली के विज्ञान-भवन में एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि देश पर्यावरण बचाने हेतु प्रतिबद्ध है एवं इसके लिए सरकार सारे जरुरी कदम उठायेगी ।             ***
विशेष लेख
शहरी परिवहन और बदलता समाज
राजेंद्र रवि
शहरीकरण के आधुनिक दौर में शहरी परिवहन मुनाफा कमाने और मुनाफाखोरी  बढ़ाने का प्रमुख क्षेत्र है । कारों और मेट्रो के लिए बहुत महंगा भूतलीय, भूमिगत और उपरगामी परिवहन ढांचे का विस्तार किया जा रहा है ।
यह सब नगरों महानगरों को उच्च् तकनीक आधारित शहर निर्माण की कवायद के तहत हो रहा है और स्मार्ट सिटी उसी श्रंखला को गति देने का प्रयास । उन्नत तकनीक के नाम पर पर्यावरण-मित्र बहु विविधताआेंवाले परिवहन के साधनों को हाशिए पर दर-किनार करते जाना लोकतंत्र के खिलाफ है ।
भारतीय समाज का शहरीकरण किया जा रहा है और सभी सरकारें एक नये किस्म के शहरवाद के पीछे दौड़ी चली जा रही है जिसमें भारतीय समाज की बहुआयामी एवं बहुस्तरीय अवधारणा के समावेश का सर्वथा अभाव साफ-साफ दिखता है । हमारे शहरोंके अन्दर मेंकई शहर समाएं हुए है जिसकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान एक-दूसरे से अलग और भिन्न है । हम सब एक लोकतंात्रिक समाज मेंरह रहें है और इस युग को लोकतांत्रिक युग के तौर पर जाना जाता है । 
इस काल खण्ड की शख्सियत यह है कि अब हर मर्ज की दवा वैश्विक कंपनियों में पैदा हो रही तकनीक से जाती है । इसके लिए देश का प्रभुत्व वर्ग भी उन्हीं शब्दावलियों का सहारा लेते है जिसका इस्तेमाल परिवर्तनकारी समूहों के द्वारा किया जाता रहा है । इस नीति को विस्तार देने में देश का शासक वर्ग इनकी भरपूर मदद कर रहा है । शहरीकरण के आधुनिक दौर में शहरी परिवहन इनके लिए मुनाफा कमाने और मुनाफाखोरी बढ़ाने का प्रमुख क्षेत्र है । यही वजह है कि कारों और मेट्रो के लिए बहुत महंगा भूतलीय, भूमिगत और उपरगामी परिवहन के ढांचे का विस्तार किया जा रहा है । यह सब नगरों-महानगरों का उच्च तकनीक आधारित शहर निर्माण की कवायद के तहत हो रहा है और स्मार्ट सिटी उसी श्रंखला को गति देने का प्रयास ।
दूसरी और सार्वजनिक परिहवन में विशेष तौर पर मददगार बसों को गतिशील बनाने वाली बीआरटी जैसे ढांचा तोड़ा जा रहा है या हतोत्साहित किया जा रहा है । पद-पाथिकों, साइकिल चालको और साइकिल रिक्शा को पिछड़ेपन के प्रतीक के रुप मेंप्रचारित करके प्रतिबंधित किया जा रहा है । यदा-कदा इनके सुविधा के नाम पर बनाये जा रहे ` फु ट ओवर ब्रिज ' सुरंग पथ जैसे ढांचा भी मोटर वाहनोंकी गति बनाये रखने की चाल और कंपनियोंका दीर्घकालिन मुनाफा ही है । यहां यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या इस हाई-टेक परिवहन व्यवस्था का लाभ उठाने की कुव्वत शहर मेंरह रहे समस्त नागरिकों की है ?
स्पष्टत: नहीं । इस तरह हाई-टेक शहर गरीब, किंतु आत्मनिर्भर समाज पैरोंमें जंजीरे डाल देता है । गतिशिलता की स्वतंत्रता में बाधा से लोगों के जीविकोपार्जन, शिक्षा, मूलभूल सुविधाआें के साथ-साथ सामाजिक सरोकार तक `उनकी पहंुच ' बुरी तरह प्रभावित होने लगता है । इस तरक तकनीक को अति-महत्व देने वाला समाज लोकतंत्र की बजाय अभिजात तंत्र में बदल जाता है ।
तब अभिजातों के वर्चस्व वाला यह समाज कानून के शासन की आड़ लेकर बहुजन की इच्छाआें का दमन करने लगता है । लेकिन प्रजातंत्र में इसके विपरीत होता है । संविधान निर्माता बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर ने लिखा है कि `प्रजातंत्र में नियमबद्धता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक उत्तरदायित्व होता है ।' गांधी ने भी कहा था कि `मानवता के बिना विज्ञान अधूरा है ।' चूंकि हमारा शहरी समाज भी बहुस्तरीय है और बहुआयामी गतिशीलता के साधन भी । इसलिए सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह विविधता को सम्मान दिए बिना संभव ही नहींहै । परन्तु उन्नत तकनीक के नाम पर कारोंऔर मेट्रो रेल को बढ़ावा और विस्तार देना तथा पर्यावरण-मित्र बहुविविधताआें वाले परिवहन के साधनों को हाशिए पर दर-किनार करते जाना लोकतंत्र के खिलाफ है । 
अंध तकनीक-वाद का यशोगान समाज को दूसरे तरीके से भी हानि पहुंचाता है । यह शारीरिक श्रम को मानसिक श्रम से हीनतर बताता है इससे मेहनतकश का सम्मान घटते जाता है । यही वजह है कि वे धीरे-धीरे `शारीरिक उर्जा ' से संचालित पद-पथिका, साइकिल चालकों, साइकिल रिक्शों और लोक-परिवहन के साधनों जैसे बसों, ऑटो-रिक्शा और टैक्सी के खिलाफ माहौल तैयार करते है ताकि लोग इसे त्याग कर मोटर वाहनोंकी ओर आकर्षित हो । उन्नत तकनीक वाली परिवहन के साधन उर्जा की भारी खपत करती है जिससे प्राकृतिक संसाधनोंका भारी दोहन होता है और जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता है ।
हमारी सड़के, हमारे समाज का प्रतिबिम्ब भी है । इसे गौर से देखने की जरुरत है । समाज का पूरा ताना-बाना दिख जाता है । सड़क पर पैदल जा रहा इंसान समाज का `गरीब और पिछड़ा' हुआ व्यक्ति और सड़क पर साइकिल चलता हुआ व्यक्ति सड़क का अनाधिकृत यात्री । यही वजह है कि सामाजिक सरोकार रहित तकनीक इसे मदद के बजाए और किनारे सरका देता है । इसलिए यह तकनीकी सवाल नहींहै, किसी भी लोकतांत्रिक समाज में यह एक राजनैतिक मुद्दा है और इसका समाधान राजनैतिक निर्णय के माध्यम से ही हो सकता है । जिन मुल्कों ने इससे निजात पाया है उन्होंने इसके पक्ष में खड़े होकर कड़े फैसले लिए है । 
इसके लिए उदाहरणों की कमीं नही है । कोलंबिया की राजधानी इसका अनुपम उदाहरण है जिन्होनें मेट्रो रेल आधारित परियोजना को दर किनार कर बस आधारित बीआरटी परियोजना को लागू किया, जो मेट्रो से कई गुना सस्ता और लोगों कें पहुंच के अन्दर था । शहर की सड़कों को लोकोन्मुख डिजायन के माध्यम से पदयात्रियोंके लिए सुगम और निरापद पद-पथ और साइकिल चालकोंके लिए साइकिल लेन । इसके पीछे यहां के मेयर एनरिक पेनॉलोसा का दृढ़ निश्चय था । इस निर्णय ने शहर को एक नया जीवन दिया और सड़कों पर जीवन्तता दिखने लगी ।
दूसरी नजीर सियोल शहर में देखा जा सकता है । सियोल शहर में बीसवीं शाताब्दी के उतरार्ध में शहर नियोजकों ने आधुनिकरण के नाम पर छान्गेचन और उसकी सहायक नदियों को ढककर चार लेन फ्लाईओवर और सड़के बना दी थी और आसपास की गरीब आबादी को जबरन हटा दिया था और उनके स्थान पर शॉपिंग सेन्टर और मॉल बना दिए गए । जिसे आधुनिकरण और औद्योगिकरण का प्रतीक के रुप में कहा गया । लेकिन चार दशक बाद वर्ष २००० आते आते पूरा इलाका वायु प्रदूषण, शोर, सड़क जाम का प्रतीक बन गया । इलाके मेंलोग जाने से कतराने लगे और वहां की रौनक गायब हो गयी ।
वर्ष २००१ में सियोल में मेयर का चुनाव था । ली म्युंग बाक मेयर के उम्मीदवार थे । जिन्होनें यह वादा किया कि यदि वे चुनाव में जीतते है तब वे फ्लाईओवर तोड़ देगें और नदी की धारा को पुर्नाजित कर देगा । ली मेयर का चुनाव भारी बहुमत से जीत गया । अब समय आया चुनाव में किये गए वादे को पूरा करने का । औद्योगिक घराना और समाज के संपन्न तबकों ने इसका विरोध शुरु किया । इस मुहीम को लेकर ली पूरे सियोल में अभियान चलाया । फिर नगर की सरकार ने इस पर जनमत करवाया । ७९.१ प्रतिशत नागरिकों ने इसके पक्ष में मतदान किया ।
इस काम को पूरा करने में ली कुछ भी समय बर्बाद नहीं करना चाहते थें । वे जून २००१ में मेयर बने, फरवरी २००३ में छान्गेचन नदी के पूनर्जीवन का मास्टर प्लान बनकर तैयार हो गया, जून २००३ में फ्लाईओवर गिराने का काम आरम्भ हुआ और सितम्बर २००३ में पूरा हो गया । नदी पुनर्जीवित करने का काम जुलाई २००३ में चालू हुआ और सितम्बर २००५ में नदीं में धारा आ गया ।
दूसरी ओर २००३ में ही इसके समानांतर बस रैपिड ट्रांजिट लाइन का काम भी चल रहा था और यह उसी फ्लाईओवर के विकल्प के रुप मेंबन रहा था जिस पर हर दिन सवा लाख से ज्यादा कारें जाती थी । यह कॉरिडोर भी जून २००३ बन कर तैयार हो गया जो १४.५ किलोमीटर लम्बा था । नगर निकाय से सियोल शहर में अठारह बस लेन बनाने की घोषणा कि जिसमें नौ में डेडीकेटेड बस लेन होगी । जिससे शहर में मोटर वाहनों पर निर्भरता कम हो गई और लोगों का सफर आसान हो गया । इन सब के बन जाने से शहर का गौरव लौट गया ।
आज विकसित देश के लोेग `कार फ्री शहर' के लिए सड़को पर आ रहे है ताकि वे सुकून भरी जिन्दगी वापस पा सके । वहां के लोग पैदल और साइकिल की ओर अग्रसर होते जा रहे है । हमारे पास आज भी भरपूर साइकिलें है और लोग पैदल चलना भूले नही है । क्या सामाजिक सरोकार में सक्रिय समूह इसके लिए आवाज उठायेगेंऔर सरकार को तकनीक उन्नोमुख धारा से हटने के लिए बाध्य कर जन्नोमुख प्रगति की तरफ चलने के लिए मजबूर करेगें । ताकि जलवायु, जीवन और जीविकापार्जन का क्षरण बंद हो सके । ***
कृषि जगत
कृषि संकट का मूल कारण क्या है ?
देवेन्दर शर्मा
अब समय आ गया है कि अर्थशास्त्रियों को दिखाया जाए कि वास्तविकता क्या है और किसान क्यों मर रहें हैं ? अन्यथा ऐसे बेकार नीति दस्तावेज परोसे जाते रहेगें । 
हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है । इसका उद्भव आर्थिक सर्वेक्षण है ।बड़ी त्रासदी है कि जो लोग आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करते है वह ये भी मानने का तैयार नहीं कि जो आर्थिक उपचार वो सुझाते आए है वही कृषि संकट की जड़ है ।
पिछले १०-११ वर्षोंा से में वार्षिक आर्थिक रिपोट को बहुत ध्यान से पढ़ता आया हूं । ये भारी भरकम रिपोर्ट आम तौर पर सामान्य बजट के दो दिन पहले पेश की जाती है और वर्ष भर के आर्थिक रुझानों का काफी सही आकलन पेश करती है । साथ ही हमें यह भी बताती है कि देश में हर सरकार की आर्थिक सोच कितनी अदूरदर्शी रही है । यदि इस रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि इसको लिखने वाले अर्थशासत्री विश्व बैंक/आईएमएफ व क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा पढाए जा रहे आर्थिक पाठ का आंख बंद करके अनुसरण कर रहे है । अगर आपने आर्थिक सर्वेक्षण के कुछ दस्तावेजों को भी पढ़ा हो तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि अर्थशास्त्री रुढ़ दायरों से बाहर निकलने की कल्पना भी नहीं कर पाते है । पिछले कई वर्षो से असफल सिद्ध हुए सुझावों और सिफारिशों को ही बार-बार परोसा जाता है ।
कम से कम पिछले दस वर्षोंा में, जब से मैं आर्थिक सर्वेक्षण का अध्ययन कर रहा हूं, मेरा दृढ़ मत है कि हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है ।
सीधो रास्ते पर रखने के लिए जैसे घोड़ों की आंखों के आगे ब्लिंकर लगा दिए जाते है मेरे विचार से मुख्यधारा के अर्थशास्त्री भी जाने अनजाने अपने दिमाग पर मनोवैज्ञानिक ब्लिंकर बांधे रहते है । शायद उनसे लीक से बाहर सोचने की अपेक्षा की भी नहींजाता है । हमें नही भूलना चाहिए कि ब्लिंकर घोड़े को जो प्रकृति उन्हें दिखाना चाहती है वो देखने से बाधित करते है । हमारे अर्थशास्त्रियों का वही हाल है ।
जब आप लकीर के फकीर बन जाते है जो उसका परिणाम गलतियों बल्कि भारी गलतियों के रुप में भुगतना पड़ता है । उदाहरण के लिए कृषि क्षेत्र को देखिए जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से ५२ प्रतिशत आबादी को आजीविका प्रदान करता है । कम से कम पिछले दस वर्षोंा में, जब से मैं आर्थिक सर्वेक्षण का अध्ययन कर रहा हूं, मेरा ये दृढ़ मत है कि हमारे देश में कृषि संकट का मूल कारण गलत आर्थिक विचारधारा है । इसका उद्भव आर्थिक सर्वेक्षण है । इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि जो लोग आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करते है वह भी मानने को तैयार नहीं कि जो आर्थिक उपचार वो सुझाते आए है वही कृषि संकट की जड़ है ।
साल दर साल कृषि की स्थिति सुधारने के लिए सर्वेक्षण के द्वारा वही पुराने असफल फॉमूले सुझाये जाते है । फसल की उत्पादकता बढ़ाआें, सिंचाई व्यवस्था का विस्तार करो, जोखिम कम करो, लाभकारी मूल्य उपलब्ध करो और बाजार का निजीकरण करो । कम से कम पिछले दस वर्षोंा से मैने आर्थिक सर्वेक्षण को कृषि में सुधार करने के लिए यही सुझाव देते देखा है । कोई आश्चर्य नहीं कि हर साल कृषि संकट कम नही हुआ बल्कि गहराया ही है । 
किसानों द्वारा आत्महत्याआें के नथमने वाले सिलसिले के बावजूद वो लोग अपनी घिसी-पिटी विचारधारा से उपजे उपचार सुझाने से बाज नहींआ रहे । पिछले २२ वर्षो में अनुमानत: ३.३० लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है और फिर भी अर्थशास्त्री एक भी समझदारी वाला सुझाव देने में नाकाबिल रहे । यह हमारे नीतिगत ढांचे पर एक दुखद टिप्पणी है ।
अपनी और इससे पहले किए हुए सभी उपचारों की विफलता की बारे में जानते हुए भी आर्थिक सर्वेक्षण २०१७ ने अब अपना ध्यान विवादास्पद जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों पर केंद्रित कर लिया है । उसी दोषपूर्ण तर्क का इस्तेमाल करते हुए कि कृषि संकट से उबरने का एकमात्र रास्ता फसल की उत्पादकता बढ़ाना है, आर्थिक सर्वेक्षण अब जीएम फसलों को ही संकटमोचक बता रहे है । इसमें  ये भी सुझाव दिया गया है कि वाणिज्यीकरण का रास्ता खुलने के इंतजार मेंजीएम सरसों की बेकार किस्म ही नहीं भारत को सभी प्रकार की जीएम फसलों के लिए बाजार खोल देना चाहिए ।
जी एम उद्योग की कही बातों की तंर्ज पर इन्होनें जी एम फसलों को बाजार में उपलब्ध करवाने को उचित बताने के लिए प्रारुप भी तैयार कर लिया है । दलहन का उत्पादन बढ़ाने पर प्रस्तुत रिपोर्ट में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम अध्यक्षता वाली एक समिति ने उत्पादकता बढ़ाने के लिए दलहन के क्षेत्र मेंजीएम प्रौद्योगिकी लाने का खुला समर्थन किया । सामाजिक स्तर पर इस सिफारिश की कड़ी निंदा होने पर मुख्य आर्थिक सलाहकार ने एक कदम और आगे बढ़कर इस नीति दस्तावेज का प्रयोग निजी बीज कंपनियोंके वाणिज्यिक हितों को बढ़ावा देने के लिए किया ।
वैज्ञानिक तथ्य यह है कि विश्व मेंकोई जीएम फसल नहीं है जिससे फसल की उत्पादकता बढ़ती हो और इस तथ्य को सीधे तौर पर नजरअंदाज कर दिया गया है । एकमात्र जीएम फसल जो भारत में उगाई गई है वो है बीटी कॉटन । यदि जीएम कॉटन से कपास की खेती करने वाले किसानों की आमदानी में इजाफा हुआ होता तो बीटी कॉटन उगाने वाले किसाना आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? अनुमान है कि भारत में खेती से जुड़ी आत्महत्याआें में से ७० प्रतिशत मौते केवलकपास के क्षैत्र से सम्बंधित है ।
इसके अलावा यदि फसल उत्पादकता बढ़ाना ही आगे बढ़ने का रास्ता है तो देश का फूड बाउल कहलाने वाले पंजाब मेंकिसान इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या पर क्यों आमादा है । पंजाब विश्वभर में अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक है और ९८ प्रतिशत सुनिश्चित सिंचाई सुविधा युक्त होने के कारण इसके पास विश्व मेंसबसे बड़ा सिंचाई क्षेत्र है । फिर भी कोई दिन नहीं जाता जब यहां तीन से चार किसान आत्महत्या न कर लें ।
जीएम फसल का इस्तेमाल किए बिना भी इस वर्ष दलहन के उत्पादन में कई गुना बढ़त भी लेकिन उत्पादन में एकाएक वृद्धि को सम्हालने की समझ सरकार के पास न होने के कारण कीमतेंगिरी और किसानों ने नुकसान झेला । ५०५० रुपए प्रति क्ंविटल के खरीद मूल्य के स्थान पर किसान ३५०० से ४२०० प्रति क्ंविटल से अधिक की कीमत नहींप्राप्त् कर पाया । उत्पादकता में कमी कहां थी? कब तक अर्थशास्त्री खेती में लगने वाले कच्चे माल के आपूर्तिकर्ताआें के हितों को बढ़ावा देने के लिए गलत दृष्टिकोण परोसते रहेंगें?
मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि २०१७ का आर्थिक सर्वेक्षण पढ़कर मुझे बहुत हताशा हुई । चूंकि अर्थशास्त्रियों ने अपने आंख पर पर्दा डाल रखा है तो समय आ गया है कि उन्हे दिखाया जाए कि वास्तविकता क्या है और किसान क्यों मर रहे है । अन्यथा हमें इसी प्रकार की बेकार नीति इस्तावेज परोसे जाते रहेगें इसलिए मेरा सुझाव है कि आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करने वाले अर्थशास्त्रियों के दल के लिए कम से कम तीन महीने ग्रामीण इलाकोंमें बिताना अनिवार्य कर देना चाहिए ।
इस दल की अगुवाई मुख्य आर्थिक सलाहकार करें और इसमें नीति आयोग के सदस्य भी शामिल हों । मुझे विश्वास है कि आप मानेंगे कि अर्थशास्त्रियों/नौकरशाहों को ग्रामीण स्थिति से रुबरु करवाना अति आवश्यक है । अन्यथा जिस भयंकर संकट से देश पिछले दस वर्षो से गुजर रहा है वह संकट कम होने की जगह और गहरा जाएगा ।         ***
स्वास्थ्य
नशे के विरुद्ध सजगता जरुरी
भारत डोगरा
शराब से होने वाली स्वास्थ्य व समाज की क्षति के बारे मेंनए अनुसंधान से ऐसी जानकारियों मिली हैं जिनसे शराब के नशे को न्यूनतम करने की मांग विश्व स्तर पर अधिक मजबूत हो रही है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की शराब व स्वास्थ्य स्टेट्स रिपोर्ट २०१४ के अनुसार वर्ष २०१२ मेंशराब से ३३ लाख मौतें हुई । विश्व में होने वाली सभी मौतों में से ५.९० प्रतिशत मौतें शराब के कारण हुई - पुरुषों के संदर्भ में७.६ प्रतिशत तथा महिलाआें के संदर्भ में४ प्रतिशत । वर्ष २०१२ में बीमारियों व चोटों का जितना बोझ था, उसमें से ५.१ प्रतिशत शराब के उपयोग के कारण था ।
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि २०० तरह की बीमारियोंव चोटों में शराब का हानिकारक उपयोग एक कारण है । लिवर सिरोसिस व कैंसर में शराब एक महत्वपूर्ण कारण है ।
नशीली दवाआें, एल्कोहोल व एडिक्टिव बिहेवियर के विश्वकोश के अनुसार जानलेवा सड़क दुर्घटनाआें में से ४४ प्रतिशत में एल्कोहल की भूमिका पाई गई है । ड्राइवर ने शराब पी हुई हो तो दुर्घटना की संभावना ३ से १५ गुना बढ़ जाता है । दुर्घटना में मरने वाले ५० प्रतिशत तक मोटर साइकिल चालक शराब के नशे में पाए गए है ।
इसी विश्वकोश के अनुसार घरो में होने वाली दुर्घटनाआें में से २३-३० प्रतिशत तक में एल्कोहल की भूमिका होती है । आग लगने व जलने की ४६ प्रतिशत दुर्घटनाआें में एल्कोहल की भूमिका देखी गई है ।
कुछ वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक अन्य रिपोर्ट तैयार करवाई थी जिसे हिंसा व स्वास्थ्य पर विश्व रिपोर्ट (हिंस्व रिपोर्ट)का शीर्षक दिया गया था । इस रिपोर्ट में बताया गया है कि डिप्रेशन या अवसाद के लिए भी एल्कोहल एक महत्वपूर्ण कारक है । हिंस्व रिपोर्ट के अनुसार एल्कोहल व नशीली दवाआेंके दुरुपयोग की आत्महत्या मेंभी एक महत्पपूर्ण भमिका है । संयुक्त राज्य अमेरिका में चार में से कम से कम एक आत्महत्या में एल्कोहल की भूमिका रिपोर्ट की गई है ।
हिंसा, अपराध व नज़दीकी रिश्ते या सम्बंध टूटने के रुप मेंभी शराब के बहुत गंभीर सामाजिक दुष्परिणाम होते है । कुछ अध्ययनोंने शराब के इन सामाजिक दुष्परिणामों की आर्थिक कीमत लगाने का प्रयास किया है जिससे पता चलता है कि शराब के सामाजिक दुष्परिणाम कितने महंगे पड़ते है ।
हिंस्वरिपोर्ट ने घरेलू हिंसा पर अनेक अध्ययनों के आधार पर बताया है  जो महिलाएं अधिक शराब पीने वालोंके साथ रहती है उनके खिलाफ पति या पार्टनर की हिंसा की संभावना कही अधिक होती है । इसी रिपोर्ट के अनुसार इन अध्ययनोंमें यह भी बताया गया है कि जब शराब पीने वाले या पी रहे व्यक्ति हिंसा करते है तो उनके द्वारा की गई हिंसा अधिक भीषण होती है ।
वर्ष २००६ में संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए शराब के सामाजिक दुष्परिणामोंकी कीमत २३३ अरब डालर और दक्षिण अफ्रीका के लिए वर्ष २००९ मेंशराब के सामाजिक दुष्परिणामोंकी कीमत ३०० अरब रैंड लगाई गई जो कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद के १० से १२ प्रतिशत के बराबर थी ।
शराब उद्योग से बहुत बड़े पैमाने पर पर्यावरण की तबाही व ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है । अनेक जल-स्त्रोत व छोटी नदियां बुरी तरह प्रदूषित होते है । प्रदूषण व दुर्गंध की वजह से आसपास रहने वाले लोगों का जीना कठिन हो जाता है । पानी का अपव्यय होता है वह अलग । इकॉनॉमिस्ट पत्रिका ने लिखा है कि एक लीटर वाइन बनाने में ९६० लीटर पानी खर्च होता है ।
शराब के उद्योग का कच्चा माल प्राप्त् करने के लिए काफी सारी उपजाऊ भूमि को जरुरी खाद्य फसलोंके उदाहरण से हटाया जाता है व बहुत सारा सिंचाई का पानी भी इसी तरह खाद्य फसलोंसे हटाया जाता है इसके अलावा, कुछ खाद्योंका उपयोग पोषण की जगह नशे के लिए किया जाता है क्योंकि उससे ज्यादा मुनाफा मिलता है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्टेटस रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व में प्रति व्यक्ति एल्कोहल उपयोग बढ़ रहा है तथा यह वृद्धि मुख्य रुप से चीन व भारत में शराब के उपयोग में वृद्धि के कारण हो रही है । इसके लिए एक कारण यह है कि शराब उद्योग द्वारा शराब की बिक्री बढ़ाने के लिए अधिक ज़ोर लगाया जा रहा है । हालांकि इस समय प्रति व्यक्ति शराब की खपत संयुक्त राज्य अमेरिका व यूरोप के धनी देशो मेंसबसे अधिक है, पर वृद्धि की दर चीन व भारत में अधिक है ।
उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर, यह बहुत ज़रुरी है कि शराब के उपयोग को न्यूनतम करने के लिये अधिकतम प्रयास किए जाएं । ***
पर्यावरण परिक्रमा
संकट मेंहै हिमालय से निकलने वाली जलधाराएं
हिमालय से निकलने वाली ६०% जलधाराएं सूखने की कगार पर है । इनमें से गंगा, ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी और अहम नदियों की जलधाराएं भी शामिल है । इन जलधाराआें की हालत ऐसी हो चुकी है कि इनमे पानी आता भी है तो सिर्फ बारिश के मौसम में। ये बात नीति आयोग की एक रिपोर्ट से सामने आई है । आयोग के साइंस एंड टेक्नोलॉजी विभाग ने जल सरंक्षण पर रिपोर्ट तैयार की है । 
इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के अलग अलग क्षेत्रों से करीब ५० लाख जलधाराएं निकलती है । इनमें से करीब ३० लाख तो भारतीय हिमालय क्षेत्र से ही निकलती है । भारतीय हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली जलधाराआें की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगा सकते है कि उत्तराखंड में जलधाराआें की संख्या में १५० साल में ६ गुना गिरावट आ गई है । इसकी संख्या ३६० से घटकर ६० तक आ पहुंची है । नीति आयोग का सुझाव है कि इस स्थिति से निपटने के लिए तीन चरण में प्लान तैयार किया जाए ।
पहला - ४ साल का शॉर्ट टर्म प्लान । दूसरा - ५ से ८ साल का मिड टर्म प्लान और तीसरा - ८ साल से ज्यादा का लॉन्ग टर्म प्लान । शॉर्ट टर्म प्लान में जलधाराआें की मॉनिटरिंग की जाए ।
मिड टर्म प्लान में इसके मैनेजमेंट का प्लान तैयार हो और लॉन्ग टर्म प्लान में इस पर अमल हो । हिमालय की इन जलधाराआें में ग्लेशियरों के पिघलने से और मौसम में होने वाले बदलावों से पानी बना रहता है । यहीं से गंगा, ब्रह्मपुत्र जैसी तमाम नदियों की जलधारा भी निकलती है । लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से घटते ग्लेशियर, पानी की बढ़ती मांग, पेड़ कटने की वजह से जमीन में होने वाले बदलाव की वजह से ये जलधाराएं सिकुड़ रही है और सूख रही है । १२ राज्य के ५ करोड़ लोग हिमालय क्षेत्र की इन जलधाराआें के प्रभाव क्षेत्र मेंआते है । 
ये १२ राज्य है - जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा । यहां के लोगों के पीने के पानी से लेकर रोजमर्रा की जरुरतोंका पानी इन्हीं जलधाराआें से मिलता है । अगर फौरन कदम नहीं उठाए गए तो १० साल में ही इन क्षेत्रो को जलसंकट झेलना पड़ेगा । आयोग का सुझाव है कि भारतीय हिमालय क्षेत्र से निकलने वाली सभी जलधाराआें की गणना की जाए और फिर इसकी मैपिंग हो ।आयोग ने जलधाराआें के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रोग्राम लॉन्च करने का भी सुझाव दिया है ।

जर्मनी ५ शहरो में पब्लिक ट्रांसपोर्ट फ्री करेगा
पहली बार दुनिया का कोई देश अपने शहरोंमें वायु प्रदूषण कम करने के लिए लोगों को फ्री पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुहैया कराने जा रहा है । ये पहल जर्मनी में हो रही है । जर्मनी देश के पांच शहर चुने है - बॉन, एसेन, हैरेनबर्ग, रुटलिंगेन और मेहेम । इन शहरोंमें लोगों को लोकल बस और ट्रेन का सफर फ्री में कराया जाएगा, ताकि वो अपनी गाड़ियों का कम से कम इस्तेमाल करें और इससे होने वाले प्रदूषण को रोका जा सके ।लोकल प्रशासन की मदद से जुलाई के बाद इस सुविधा का ट्रायल शुरु होगा । ट्रायल सफल रहा तो इसे जारी रखा जाएगा । जर्मन सरकार ने प्रस्ताव अभी यूरोपियन यूनियन को भेजा है । यूरोपियन पर्यावरण मानकों का एयर, क्वालिटी इंडेक्स अभी भी लंदन, पेरिस और दिल्ली जैसे शहरों से कहीं बेहतर है । फिर भी शहर की सेहत को बरकरार रखने के लिए सरकार कोशिश जारी रख रही है । इन ५ शहरों के पब्लिक ट्रांसपोर्ट में टिकट बिक्री से सरकार को ९६ हजार करोड़ रु. मिलते है ।
इस फैसले से जुड़ी दूसरी खास बात ये है कि दुनिया का चौथा सबसे बड़ा वाहन उत्पादक देश होने के बाद भी जर्मनी इस तरह का फैसला ले रहा है । बीएमडब्ल्यू और मर्सिडीज जैसी बड़ी वाहन कंंपनियां सरकार की मुहिम में उसका साथ दे रही है । लोकल ट्रांसपोर्ट को अपडेट करने के लिए ये दोनों, कंपनियां सरकार को १.६ हजार करोड़ रुपए देगी ।
दरअसल यूरोप लगातार प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है । यहां के १३० शहर इस कदर प्रदूषित है कि इसकी वजह से हर साल ४ लाख मौत हो रही है । प्रदूषण की वजह से होने वाली बीमारियों पर यूरोपीय लोग हर साल करीब  २ लाख करोड़ रुपए खर्च कर रहें है । हालांकि इन सबके बीच जर्मनी ने ही पर्यावरण को लेकर सबसे अच्छा काम किया है । प्रदूषण कम करने के लिए जर्मनी ने १५ साल में नवीनीकृत उर्जा पर निर्भरता ६.३% से बढ़ाकर ३४% तक कर दी है ।

कम्प्यूटर व मोबाईल की फाइल पढ़ सकेंगे दृष्टिबाधित
अभी तक दृष्टिबाधित कम्प्यूटर व मोबाइल में दर्ज जानकारी को सुनकर ही समझ पाते थे, लेकिन अब इनमें दर्ज पीडीएफ, वर्ड फाइल और टेक्सट मैसेज को अंगुलियों से छूकर ब्रेल में पढ़ सकेंगे ।
इंदौर शहर के इंजीनियरिंग कॉलेज एसजीएसआईटीएस के इलेक्ट्रिकल विभाग में सेकेंड ईयर के छात्र अधीश मीना ने यह डिवाइस तैयार की है । फिलहाल यह अंग्रेजी के अल्फाबेट व शब्द को ब्रेल मेंबता रही है । जल्द ही इस डिवाइस के माध्यम से दृष्टिबाधित वाक्य भी पढ़ सकेंगे । 
इस डिवाइस का पिछले दिनों म.प्र. दृष्टिहीन कल्याण संघ के सचिव डॉ. जीडी सिंघल  व हेलन केलर हाई स्कूल फॉर ब्लाइंड के कम्प्यूटर शिक्षक दशरथ पटेल ने परीक्षण किया ।
श्री मीना ने ऑडियो सॉफ्टवेयर व माइक्रो कंट्रोल डिवाइस के माध्यम से प्रोग्राम तैयार किया है इसे सर्वोमोटर डिस्क से जोड़ा गया है । मोटर पर ब्रेल लिपी की एक की-बोर्ड प्लेट लगाकर उसे कम्प्यूटर से जोड़ा गया है । स्क्रीन पर आने वाले शब्दो को सॉफ्टवेयर पढ़कर ब्रेल लिपि प्लेट तक मैसेज भेजेगा । इसके बाद प्लेट के शब्द छूकर दृष्टिबाधित पहचान सकेगा कि स्क्रीन पर क्या लिखा हुआ है ।
मालवा मिल के शिवाजी नगर मेंरहने वाले अधीश के पिताजी जगदीश मीना की किराना दुकान है । अधीश एक एनजीआें के माध्यम से एक ब्लाइंड स्कूल मेेंबच्चें को भोजन देने जाते थे । वहीं से उन्हे यह आइडिया आया ।
अभी दृष्टिबाधितों के लिए ई-बुक्स व ऑडियो बुक्स उपलब्ध है । इसके अलावा ब्रेल बुक्स भी है, लेकिन कीमत ही २०० से ३०० रुपए होती है । अधीश कहते है कि इसी तरह की एक एप भी कॉलेज मेंतैयार की जा रही है ।

गैर संक्रामक रोगोंसे डेढ़ करोड़ लोगो की मौत
विश्व में प्रति वर्ष ३० से ७० वर्ष की आयु के डेढ करोड़ लोगों की मौत गैर संक्रामक रोगोंके कारण हो रही है और इनके पीछे तंबाकू सेवन, शराब पीना, अनियंत्रित और निष्क्रिय जीवन शैली जैसे कारक जिम्मेदार है । इस दिशा मेंगंभीरता से विचार करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पिछले दिनों एक उच्च् स्तरीय आयोग के गठन की घोषणा की है जिसमें कई देशों के नेता, स्वास्थ्य विकास और उद्यमिता क्षेत्र के पेशेवर है जो लोगोंको ऐसी बीमारियों से बचने के लिए जागरुक बनाएंगें ।
इस आयोग की सह अध्यक्षता उरुगवे के राष्ट्रपति तबारे वाजकुएज, श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेना, फिनलैंड के राष्ट्रपति साउली निनिस्तो, रुसी स्वास्थ्य मंत्री वेरिनिका स्कवोर्तसोवा और पाकिस्तान की पूर्व केन्द्रींय मंत्री सानिया निस्तार करेंगी ।
यह आयोग गैर संक्रामक रोगों जैसे दिल की बीमारियों, कैंसर, फैफड़ो के रोगों,मधुमेह और शराब से होने वाले रोगों के प्रति लोगों को जागरुक   करेगा । एक अनुमान के अनुसार विश्व मेंप्रतिवर्ष दस में से सात मौतें इन्हीं रोगों के कारण हो रही है  और इनके मुख्य कारक तंबाकू, शराब का सेवन, निष्क्रिय जीवन शैली और शारिरिक श्रम की कमी है । 
इनकी चपेट में अधिकतर निम्न आय वाले देशों के लोग आ रहे है और इनके कारण परिवारोंपर अधिक भार पड़ने से समाज और अंतत: देश की आर्थिक प्रगति प्रभावित हो रही है । समय रहते इन रोगों की पहचान कर उनका इलाज संभव है लेकिन इस दिशा में लोगों को इनके कारकों के प्रति जागरुक किया जाना सबसे बड़ी प्राथमिकता है ।
डॉ. वाजकुएज ने कहा कि गैर सक्रांमक रोग विश्व मेंलोगों के सबसे बड़े हत्यारे है और थोड़ी सावधानी बरत कर इनसे बचा जा सकता है लेकिन लोगों को इनसे बचने के लिए वैश्विक स्तर पर कुछ नही किया जा रहा है । उन्होने कहा कि अगली पीढ़ियों का समय से पूर्व काल के गाल मेंसमाने से रोकने और उन्हें बेहतरीन जीवनशैली के लिए हमें ही प्रयास करने होंगे और लोगों को तंबाकू, शराब, जंक फूड और अधिक चीनी युक्त खाद्य पदार्थोके सेवन से बचने के लिए जागरुक बनाना होगा ।
गैर संक्रामक रोगों के वैश्विक दूत और आयोग के सदस्य माइकल आर ब्लूमबर्ग के मुताबिक विश्व इतिहास में पहली बार संक्रामक रोगों की तुलना में अधिक लोग गैर संक्रामक रोगों जैसे दिल की बीमारियों, मधुमेह और निष्क्रिय जीवन शैली की वजह से मारे जा रहे है । ये रोग अमीर और गरीब, युवा और बूढों में कोई फर्क नहीं कर रहे है और देशों को इनके चलते आथिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है । 
इस आयोग के माध्यम से अधिक से अधिक लोगोंको जागरुक बनाया जाएगा और विश्व स्तर पर इस संदश को ले जाया जाएगा । डब्ल्यू एचओ के महानिदेशक डा टेड्रोस अधानोम गेब्ररेसस की ओर से गठित यह आयोग इस वर्ष अक्टूबर २०१९ तक काम करेगा और अपनी पहली रिपोर्ट इस वर्ष जून में महानिदेशक कार्यालय को सौंपेगा ।

डार्विन के बाद अब न्यूटन पर उठे सवाल
पिछले दिनों केंद्रीय राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने एक और वैज्ञानिक पर सवाल उठाए है । डार्विन के बाद अब सत्यपाल के निशाने पर महान वैज्ञानिक आइलक न्यूटन है । सत्यपाल का कहना है कि - न्यूटन का मशहूर गति का नियम उनके बताने से पहले ही भारत के प्राचीन मंत्रोंमें बताया जा चुका था । इससे पहले सत्यपाल ने डार्विन के विकासवाद के उस सिद्धांत पर सवाल उठाएं थे, जिसमें बताया गया था कि बंदर असल में मनुष्यों के पूर्वज थे । सत्यपाल ने इस सिद्धांत को गलत बताया था, जिस पर काफी विवाद भी हुआ था । चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रुप से गलत है । इस नियम को पाठ्यक्रम मेंबदलने की जरुरत है । इंसान जब से पृथ्वी पर देखा गया है, हमेशा इंसान ही रहा है । अब सत्यपाल सिंह ने शिक्षा पर सलाह देने वाले सरकार के उच्चतम केंद्रीय सलाहकार निकाय की एक बैठक में कहा कि - हमारे यहां ऐसे कई मंत्र है, जिनमें न्यूटन द्वारा खोजे जाने से काफी पहले गति के नियमों को संहिताबद्ध किया गया था । इसलिए यह आवश्यक है कि परंपरागत ज्ञान हमारे पाठ्यक्रम में शामिल किए जाएं । सत्यपाल ने स्कूलों में प्राचीन विज्ञान की शिक्षा देने पर जोर देते हुए कहा कि - दिल्ली और मुंबई जैसे बड़ शहरों में हत्या से ज्यादा खुदकुशी के मामले सामने आते है । इसकी वजह है लोगो का पुरातन, धार्मिक विज्ञान से दूर होना । ***
प्रदेश चर्चा
हिमाचल : चंबा में कृषि संभावनायें
कुलभूषण उपमन्यु 
हिमाचल प्रदेश के अन्य जनजातीय क्षेत्रों की अपेक्षा चम्बा में सबसे ज्यादा जनजातीय आबादी है, यह चम्बा जिला की आबादी की २५ प्रतिशत से भी ज्यादा है । चम्बा क्षेत्र में बहु सांस्कृतिक और भौगालिक-मौसमीय विविधताएं है । अकेले चम्बा क्षेत्र मेंही चार कृषि मौसमीय कटिबंध है । लेकिन यह विकास की प्रक्रिया मेंपिछड़ गया है और आज के इस दौर मेंइसके सशक्त करने की आवश्यकता है ।
चम्बा को देश के पिछड़े ११५ जिलो में शामिल करने के बाद से पिछड़ेपन को दूर करने के लिए चर्चाएं शुरु हो रही है । केंद्र सरकार द्वारा विशेष योजनाआें पर भी कार्य आरंभ होगा । जिला चम्बा का पिछड़े जिलो में चयन न तो कोई उपब्धि है और न ही शर्म की बात । अब अगला कदम यह होना चाहिए कि सभी संबंधित पक्ष समन्वित प्रयास करें और जिले को इस स्थिति से बाहर निकालने का प्रयास करें । चम्बा में बी. आर.जी.एफ. और वनबंधु-योजना के अंतर्गत कुछ प्रयास हुए भी है, किंतु जल्दबाजी, गंभीरता के अभाव और अधूरी समझ से बनाए बए कार्यक्रमों के चलते अपेक्षित फल प्राप्त् नहीं हो सके ।
फिर भी जो कुछ हुआ उसका सही आकलन करना और उसके आधार पर अगली दिशाआेंकी समझ बनाने की जरुरत है । पुराने कार्यक्रमोंमें हुई उपलब्धियों और गलतियों का विशेषज्ञों द्वारा आकलन किया जाना चाहिए, ताकि पुरानी गलतियों से बचते हुए नई सकारात्मक दिशाआें की पहचान की जा सके ।इसी आधार पर भविष्य के लिए व्यवहारिक कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं और स्थाई परिणाम प्राप्त् किए जा सकते है ।
हमें ढांचागत सुविधाआें और लक्षित समूहों की आय संवर्धन गतिविधियों में संबंधों को समझ कर ही आय-सृजन उत्पादक अवसर पैदा करने होंगे ताकि जरुरत मंद लोग अपने पैरों पर खड़े हो सकें । चम्बा में ५४ प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा से नीचे है, उनके अलावा भी काफी बड़ा वर्ग सीमान्त पर खड़ा है । ९० प्रतिशत आबादी गावों में बसती है और कृषि पर निर्भर है । इसलिए कृषि की ओर ध्यान देना पहली प्राथमिकता होना स्वाभाविक ही है । औसत जोत ८-९ बीघा के आस पास है, ५० प्रतिशत जोतेंतो २-३ बीघा ही है । ऐसे में कृषि पूर्णकालिक व्यवसाय नहीं मानी जा सकती है । कृषि के सहयोगी व्यवसाय पशु पालन, भेड़-बकरी पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन, मधुमक्खी पालन की अपार संभावनाए है ।
कृषि और इन सहयोगी व्यवसायों के समन्वय के गंभीर प्रयासोंसे प्रभावी बदलाव की दिशा में ऐसा पहला कदम निश्चित रुप से उठाया जा सकता है । जिले में ५४ प्रतिशत के लगभग चरागाह भूमि है । यह पशुपालन और भेड़ बकरी पालन के लिए बड़ा संसाधन है । यह संसाधन खरपतवारों के आक्रमण और चीड़ के अत्यधिक रोपण से नष्ट प्राय: हो चुका है । इसे विकसित करने के लिए लंबे समय चक्र की भी जरुरत नहींहै । खरपतवार नष्ट करके उन्नत घास रोपण से दो वर्ष मेंपरिणाम प्राप्त् हो सकते है । खेती के तरीकों जैविक कृषि और जीरो-बजट खेती की दिशा मेंबढ़ कर खेती को लाभ दायक बनाया जा सकता है । इसके लिए उन्नत किस्म के देशी पशुआेंपर ध्यान देना पड़ेगा साहिवाल, सिन्धी, थारपारकर, गीर, जैसी नस्लें आसानी से ५ से १० किलो दूध दे सकती है ।
जबकि इनकी क्षमता २० से ४० किलो प्रतिदिन पाई गई है । जैविक खेती के लिए देशी नस्लोंका गोबर और गोमूत्र ही उपयोगी है । इनके गोबर मेंसूक्ष्त जीवाणुआें की संख्या यूरोपीय नस्लों के मुकाबले ५० गुना ज्यादा पाई गई है । इसी से यह गोबर जल्दी सड़ता है और अच्छा खाद द ेसकता है । गोमूत्र से भी उत्कृष्ट जीवामश्त खाद बनाई जा सकती है । इनका दूध भी ए-२ किस्म का होता है जो अधिक गुणवत्ता वाला होता है आस्ट्रेलिया मेंयह दूध, दूसरे के मुकाबले दुगनी कीमत पर बिकता है । जिला मेंदूध की खपत काफी है । ट्रकों के हिसाब से दूध और दुग्ध पदार्थ रोज बहार से आ रहे है । इतनी चरागाह भूमि होने के कारण हमें तो दूध निर्यातक क्षेत्र होना चाहिए ।
भेड़ बकरियों के लिए उनके उपयुक्त झाड़ियों वाले वन पनपाने चाहिए । वन-बंधु-योजना में यह काम किया जा सकता था । बकरियों की मांग मांस के लिए लगातार बढ़ रही है । राजस्थान से भी बकरियां लाई जा रही है । यहां बकरी पालन को बढ़ावा देकर सबसे सीमान्त भूमियों पर भी लोगों को लाभकारी व्यवसाय दिया जा सकता है । जिला में ग्रामीण भूमिहीनों की संख्या १४,४५० परिवार है । संभवत: ये सबसे गरीब लोग है इनमें से जो कृषि कार्य में रुचि और योग्यता रखते हों उन्हे गुजारे योग्य भूमि दी जानी चाहिए । शेष भूमिहीनों को कौशल विकास का विशेष लक्षित समूह मानकर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए । इसमें कुछ स्वरोजगार से जुड़े कौशल हो सकते है और कुछ व्यवसायिक मांग के अध्ययन के आधार पर चिन्हित किए जा सकते है ।
कृषि क्षेत्र मेंकेवल धान, मक्का, गेहूं तक सीमित नहींरहा जा सकता । छोटी जोतों के चलते यह फसल चक्र गुजारे योग्य आय जुटाने में सक्षम नहीं बचा है । इसीलिए खेत खाली पड़ते जा रहे है । बन्दर और सुअर भी खेती को घाटे की ओर धकेलते जा रहे है । इनका नियन्त्रण करके , कुछ वैकल्पिक नकदी फसलों को फसल चक्र मेंशामिल करना होगा । इस कार्य के लिए उद्यान विभाग, आयुर्वेद विभाग और हिमालयन जैव प्रौद्योगिक संस्थान पालमपुर का संयुक्त कार्यसमूह बनाया जाना चाहिए । इस समूह के हवाले बेमौसमी सब्जी, सुगन्धित एसेंशियल तेल, औषाधीय जड़ी बूटियों के तेल, जड़ी-बूटी खेती, और बागवानी का कार्य सौंपा जा सकता है, जैव प्रौद्योगिकी संस्थान पालमपुर के पास कुछ अच्छी तकनीकें है और कृषि उत्पादोंके प्रसंस्करण द्वारा मूल्य संवर्धन के गुर भी है ।
इनके लिए अलग विशेष परियोजना बनाकर काम हो और इन उत्पादोंकी बिक्री व्यवस्था खड़ी करने का कार्य भी साथ जोड़ा जाए तो वैकल्पिक आय के स्त्रोत पैदा हो सकते है । इस क्षेत्र में ध्यान देने योग्य बात यह है कि कृषि का वैकल्पिक मॉडल मुख्यधारा कृषि पद्धति मेंलागू करने योग्य हो, जिससे कोई बड़ा बदलाव लाया जा सके, ऐसे मॉडल न खड़े किए जाएं जो सीमान्त किसानों की पहुंच से बाहर हो और टिकाउ भी न हों । ऐसा अनुभव हम पौली हाउस खेती में कर चुके है । उपलब्ध तकनीकों के क्षेत्रीय ट्रायल लगाने और नए शोध के  लिए बजट उपलब्ध करवाया जाए जिसके अनुभवों के आधार पर आगे बड़े पैमाने पर प्रसार कार्य किया जा सके ।
कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण के लिए जगह जगह छोटे-छोटे उद्योग लगाए जाएं । जिसके लिए कुशल कार्यकर्ता स्थानीय स्तर पर तैयार किए जाएं । चम्बा मेंउपलब्ध निश, उत्पादों (जो केवल यहीं हो सकते है) जैसे पांगी की ठांगी (हैजल नट), चिलगोजा, भारमौर के राज माह, और चिलगोजा, मिलेट्स, भटियात की बासमती, के लिए उपयुक्त प्रोत्साहन और बिक्री व्यवस्था की जाए चुराह तहसील और चम्बा के साहो-जडेरा क्षेत्रो के बराबर स्वादिष्ट मक्की मिलना दुर्लभ है । इससे कुछ उत्पाद बनाने के लिए उद्योग तक पंहुचेगा । सीमेंट जैस उद्योगों का तो हल्ला ज्यादा होगा, लाभ तो कुछ समृद्ध लोगों तक ही पंहुच पाएगा । बी.पी.एल श्रेणी के परिवार ट्रक डाल कर कहां कमा पाएंगे उल्टा उनकी कृषि भूमियां और चरागाह संसाधन उनके हाथ से निकल जाएंगे । ***
खास खबर
शहद के नाम पर मीठा ज़हर
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
पिछले दिनों पतंजलि शहद के नाम पर मीठा ज़हर बेचने वाली कंपनी पर रायपुर मे तो कार्यवाई हुई, लेकिन यह ऐसी अकेली कंपनी नहीं है, बल्कि पतंजलि के साथ साथ डाबर, वैद्यनाथ, आयुर्वेद, खादी, हिमालया सहित ऐसे विदेशी ब्रांड भी शहद के नाम पर एक ऐसा ज़हर बेच रहे हैं, जो स्वास्थ्य के लिए घातक है । 
शुद्ध और प्राकृतिक शहद के भ्रम को सीएसई पॉल्यूशन मॉनिटरिंग लैब ने तोड़ दिया है..इस लेब ने चौंकाने वाली रिपोर्ट देते हुए शहद को एंटीबायटिक से प्रदूषित पाया.. भारत में बिकने वाले शहद के विदेशी ब्रांड भी इस प्रदूषण से मुक्त नही हैं । सीएसई लैब की इस जांच ने दिल्ली में बिकने वाले शहद के नामचीन ब्रांड में भी इसी प्रकार का प्रदूषण पाया है, यह वह जहर है, जिसके कारण शहद का लगातार सेवन स्वास्थ्य पर गंभीर विपरीत प्रभाव डालता है । सीएसई ने प्रयोगशाला में जांच के दौरान पाया कि एंटीबायोटिक्स वाले इन शहद से शरीर के संचार मेंबाधा पहंुचती है ।
लीवर क्षतिग्रस्त होता है शरीर का सुरक्षा तंत्र नाकारा हो जाता है यानी जिस शहद को हम अमृत तुल्य मानते हुए उसका सेवन कर रहें होते है, वही हमारे लिए एक स्लो पाइजन की तरह शरीर में प्रभाव छोड़ता रहता है । यही वजह है कि अधिकांश देशों ने खाद्य उत्पादों में एंटीबायटिक का प्रयोग प्रतिबंधित कर दिया है और एंटीबायटिक प्रदूषित शहद का आयात भी नहीं कर रहे है । 
यह दुर्भाग्यजनक है कि भारत एंटीबायटिक शहद का आयात करता है, जो शहद हमारे देश में आ रहा है, उस जहरीले शहद को वहीं कंपनियां खुद अपने ही देश में नही बेच सकतीं । ठीक इसी एंटीबायटिक का उपयोग हमारे देश की नामी कंपनियां कर रही है । इन कंपनियों का यह शहद शरीर में आकर ज़हर बन जाता है । अकेलेडाबर हनी की ही बात करें तो सीएसई रिपोर्ट के  अनुसार उसमें मानक स्तर से ९ गुना ज्यादा एंटीबायटिक पाया गया । वजह साफ है बाजारवाद हावी है और इसी चक्कर में उपभोक्ताआें के साथ लगातार धोखा हो रहा है ।
मुनाफे के बाजार ने लोगोंकी जिंदगी से खिलवाड़ करना शुरु कर दिया है । शहद के नाम पर मीठा ज़हर बेचने वाली इन कंपनियोंको सिर्फ पैसे कमाने से मतलब है । लापरवाही कोई भी करेंपरंतु अंतत: इस मीठे ज़हर से पिसना तो आम जनता को ही है । पूरे देश मेंयह ज़हरीला शहद खुले आम बिक रहा है । लोग भी इन कंपनियोंके शहद को प्योर मानकर सेवन कर नए नए रोग गले लगाते जा रहे है ।
सीएसई पाल्यूशन मॉनीटरिंग लैब ने ६ एंटीबायटिक्स के लिए १२ ब्रांड्स का परीक्षण किया और इनमें से ११ ब्रांड्स में एंटीबायटिक्स को पाया । ये सेंपल सामान्य रुप से दिल्ली की दुकानों से २००९ में खरीदे गए । इन १२ में से १० भारतीय और २ आयातित ब्रांड्स थे । जो ६ एंटीबायटिक्स इनमें पाए गए वे ऑक्सीटेट्रासाइक्लीन, क्लोरमफेनीकॉल, एम्पीस्लीन, इरीथ्रोमाइसिन, यूरोफ्लोक्सासिन और सिप्रोफ्लोक्सासिन थे । जो घरेलू ब्रांड टेस्ट किए गए इनमें डाबर इंडिया कंपनी की डाबर शहद भी थी, जिसका बाजार में७५ प्रतिशत कब्जा है । हिमालया ड्रग कंपनी की हिमालया फारेस्ट शहद (भारत की पुरानी आयुर्वेदिक ड्रगकंपनी में से एक), हरिद्वार स्थित पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड की पतंजलि शुद्ध शहद और वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन (कोलकाता) की वैद्यनाथ जंगली फूलों की शहद जिसका बाजार में १० प्रतिशत कब्जा है, शामिल है । 
दो विदेशी ब्रांड्स में कैपिलानो हॅनी लिमिटेड (ऑस्ट्रेलिया की प्रमुख कंपनी) की कैपिलानो प्योर एंड नेचुरल हॅनी, जिसका निर्यात विश्व के ४० देशोंमे होता है, स्विट्जरलैंड की नेक्टाफ्लोर नेचुरल ब्लाज्म हॅनी सेंपल में ५० प्रतिशत सेंपल ऑक्सीटेट्रासाइक्लीन था, ओटीसी की मात्रा प्रति किलो २७ से २५० माइक्रोग्राम पाई गई । यह भारत द्वारा निर्यात की जाने वाली शहद के लिए निर्धारित स्तर से ३ से ५ गुना ज्यादा है ।
इसका सर्वाधिक उच्च स्तर मधेपुरा (बिहार) के खादी ग्राम उद्योग सेवा समिति द्वारा उत्पादित खादी हॅनी मेंपाया गया । ईयू में प्रतिबंधित क्लोरफेनिकाल २५ प्रतिशत सेंपल में पाया गया । एम्पीस्लन ६७ प्रतिशत सेंपल में पाया गया । इसका सर्वाधिक स्तर स्वीट्जरलैंड की शहद नेक्टाफ्लोर नेचुरल ब्लाजम शहद में मिला । किसी भी देश में शहद के अंदर एम्पीस्लीन का स्तर निर्धारित नहीं है । इसका कारण यह मान्यता है कि मधुमक्खी पालने में इसका प्रयोग नहीं किया जाता । इस कारण यह शहद के लिए अवांछनीय घटक है । 
इसी प्रकार इंफ्रोफ्लाक्सासिन, सिप्रोफ्लाक्सासिन और एरीथ्रोमाइसीन का भी कोई स्तर नहीं है । इनका इस्तेमाल गैरकानूनी ढंग से होता है ।
मधुमक्खी पालन उद्योग में मधुमक्खियों को बीमारी से बचाने के लिए एंटीबायटिक्स दिए जाते है । इससे शहद उत्पादन में भी वृद्धि होती है और यह एंटीबायटिक्स व्यक्ति द्वारा एक चम्मच शहद के जरिए शरीर में प्रवेश कर जाते हैं । ऐसा मधुमक्खियों की नस्ल परिवर्तन के कारण भी हो रहा है । 
भारतीय मधुमक्खियां प्राकृतिक वातावरण के अधिक समीप होती है, परंतु अब इनका स्थान यूरोपियन मधुमक्खियोंने ले लिया है । इसी प्रकार शहद एकत्र करने का ढंग भी बदल गया है । यह छोटे उत्पादकों के हाथ से निकलकर उच्च स्तर की उत्पादकता वालों के हाथ जा चुका है, जिसका स्वास्थ्य से कोई लेना-देना नहींहै ।                       ***
विश्व वानिकी दिवस पर विशेष
विषय - आधारित पौधारोपण
प्रशांत/सुमीत कुमार
सन् १९७१ में२१ मार्च को पहली बार विश्व वानिकी दिवस इस उद्देश्य से मनाया गया कि विश्व के विविध राष्ट्र अपनी-अपनी वनसम्पदा के महत्व को समझें व भूमि पर नैसर्गिक पौधारोपण करते हुए वन सरंक्षण एवं वन-संवर्द्धन करें ।
विषय आधारित अथवा विशेषीकृत पौधारोपण के माध्यम से हर व्यक्ति व समूह से लगाव वाले पौधारोपण की अलख सब और जगायी जा सकती है ।
विषय आधारित पौधारोपण विभिन्न विषयोंसे जोड़कर किया जाये तो उस स्थान को अभूतपूर्व प्रेरणास्त्रोत व दर्शनीय स्थल सहित जीवन्त संग्रहालय अथवा सजीव कक्षा के भी रुप मेंसुस्थापित किया जा सकता है, जैसे - वर्णमाला वन `अ' से अमरुद, `आ' से आम, `क' से कदम्ब, `ख' से खमेर । इसी प्रकार वनस्पति वैज्ञानिक नामों की वर्णमाला वन भी स्थापित की जा सकती है, जैसे कि `ऐ' से अजाडिरेक्टा इंडिका नीम, `बी' से ब्यूटिया मोनोस्पर्मा: पलाश । जेड से जिजिफस ज्रुज्रुबा बेर । वर्णमाला वन किसी भी भाषा से सम्भव है जिससे बच्चे तो बच्चे बल्कि बड़े भी प्रकृति से जीवन के अक्षरोंके जुड़ाव को गहराई से अनुभव कर सकेंगे ।
भारत का मानचित्र धरती पर उकेरकर प्रत्येक राज्य के क्षेत्र मेंउसका राज्य वृक्ष व राज्य-पुष्प रोपित करना । इससे राज्यो सहित राष्ट्र का प्रकृति आधारित जीवंत मानचित्र से वानिकी का संदेश दिया जा सकेगा । इसमेंऐसी प्रजातियों का रोपण कर उनके महत्तव का विवरण लिखा जा सकता है जो एक से अधिक सम्प्रदायों से जुड़ी हो, जैसे कि चौबीसवें नक्षत्र शतभिषक का आराध्य-वृक्ष कदम्ब है एवं बारहवें जैन-तीर्थकर वसुपूज्य का केवली-वृक्ष भी कदम्ब है ।
अपने इष्टदेव/अपनी इष्टदेवी से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ी प्रजातियों का रोपण करते हुए उनकी महिमा का बखान लीला-चित्रण के रुप में किया जा सकता है, जैसे कि हनुमानजी के आसपास का स्थान कैसा होता होगा ? सिन्दूर की झाड़ी (असली सिन्दूर इसीके फूल मेंबनता है जबकि हम आप को जो सिंदूर दिखता है तो भारी धातु सीसा इत्यादि की विषाक्त क्रियाआेंकी चमकमात्र है), रामफल, सीताफल, इसी प्रकार असली अशोक (जिसमें सुगंधमय पुष्प खिलते है एवं फलियां बनती है जबकि आजकल अशोक जैसे दिखने वाला पेड़ लगाया जा रहा है जिसमें सुगंधहीन पुष्प व जामुन जैसे दिखने वाले फल होते है) 
एक बार सीतामाता को मांग में सिन्दूर लगाते देख हनुमान ने कारण पूछा तो माता बोली कि इससे राम की आयु बढ़ेगी तबसे हनुमान इतने लालायित हो गये कि अपने पूरे शरीर पर सिन्दूर लगाने लगे ताकि राम अमर हो जायें, ठीक इसी प्रकार लंका में स्थान-स्थान पर सीता को खोजने के प्रयासोंके बाद अन्तत: सफलता एक वाटिका में अशोक के वृक्ष के नीचे मिली जहां राम के वियोग से कुल्हलायी सीता राम की बाट जोह रही थी ।
इसमें ऐसे वृक्ष लगाये जा सकते है जो भारतीय पंचांग अनुरुप विभिन्न पर्वो एवं धार्मिक अवसरों से जुड़े हों व प्रत्येक के पास उसका विवरण लिखा हो, जैसे कि गणेश चतुर्थी में दूर्वा एवं जम्बू (जामुन) लगायें क्योंकि दूर्वादल श्रीगणपति को प्रिय है एवं जामुन व कपित्थ (कबीट) उनके पसन्दीदा फल है । बरगद का पेड़ भी अलग से भी लगा लें तो ज्येष्ठ की वट अमावस्या को सुहागिनों का जमघट रहेगा क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन बरगद की परिक्रमाकरने वालियों को बरगद में विराजमान ब्रह्मा, विष्णु व महेश सदा-सुहागिन होने का आशीष देते है । 
शनिवार, शनिजंयती को अथवा शनि की साढ़ेसाती व अढ़ैय्या लगी हो तो काले कँबल,काले तिल, काले कपड़े के दान से अधिक फलदायी होगा यदि काले रंग से जुड़े पेड़-पौधों प्रतिनिधि वृक्ष शमी तथा कौए व काली चींटियों को काले तिलमिश्रित गुड़, काले चने, गली मसूर इत्यादि का सेवन कराया जा सकता है तथा पुराने कपड़ो व सुई धागो की सहायता से कृत्रिम घौंसले बनाकर पेड़ो पर लटकाये जा सकते है क्योंकि वर्तमान में पेड़ पौधे इतने कम बचे है कि पक्षियों को पर्याप्त् स्थान, तिनके वसुरक्षा की सुलभता नहीं हो पाती, हमारे द्वारा लगाये एक घौंसले में तो हमने गिलरियों की पीढ़ियाँ तक देखी है । मौसम कोई भी हो, हर घर कार्यालय इत्यादि में पक्षियों गिलहरियों के लिये सकोरे/मिट्टी के कम से कम दो कटोरे होने ही चाहिए प्रतिदिन एक मेंपानी बदलते रहें एवं दूजे में विभिन्न अनाजों का मिश्रण, सूखी रोटी, बचे चावल इत्यादि डालते रहें ।
विशेषीकृत पौधारोपण (कस्ट- माइज्ड ट्री प्लाण्टेशन) इसमें व्यक्ति व समूह की रुचियों, ज्योतिषीय स्थितियों व अन्य मान्यताआें के आधार पर प्रजातियाँ लगायी जा सकती है, जैसे कि चित्रा नक्षत्र में जन्में जातक के इष्टदेव यदि शिवजी है एवं एक ही पेड़ लगाने का स्थान है तो वह बिल्व (बेल) का पेड़ लगा सकता है क्योंकि यह चित्रा नक्षत्र का आराध्य-वृक्ष है एवं शिव को बेलपत्र चढ़ाये जाने की परम्परा सर्वविदित है ही । जन्म-नक्षत्र के आराध्य-वृक्ष का रोपण व देखभाल करने को जातक के जीवन मेंअत्यन्त कल्याणकारी माना गया है ।
जैन सम्प्रदाय में चौबीस तीर्थकारों में प्रत्येक का एक-एक केवली वृक्ष है जिस तीर्थकर को जिस वृक्ष के नीचे कैवल्यज्ञान प्राप्त् हुआ वह उसका केवली वृक्ष बौद्ध सम्प्रदाय मेंअट्ठाईस बुद्धों में से प्रत्येक का एक-एक महापरिनिर्वाण वृक्ष है जिस वृक्ष के सान्निध्य में जिस बुद्ध को महापरिनिर्वाण की प्राप्ती हुई वह उसका महापरिनिर्वाण वृक्ष ; सत्ताईस नक्षत्रों में से प्रत्येक का एक-एक अराध्य-वृक्ष एवं नवग्रह में से प्रत्येक का एक-एक प्रतिनिधि वृक्ष होता है ; सप्तिर्ष, दस सिक्ख गुरुआें, बारह राशियों में से भी प्रत्येक का एक-एक प्रतीक वृक्ष है, आयें इन प्रतीको को पुनर्जीवन्त कर दें ।
कभी भी, जब जागो तभी सवेरा, बनाओ अपने अंचल को हरा घनेरा । भारतीय शास्त्रों में तो बैसाख व आषाढ़ में पौधारोपण को और भी अधिक फलप्रद कहा गया है कि इन मासों में वृक्षारोपण करने से समस्त कामनाएँ पूर्ण होती है । बारिश या किसी कालविशेष की प्रतिक्षा न करें, यदि पानी की कमी हो तो पानी की पुरानी बोतल अथवा करवाचौथ के करवा अथवा अन्य मटके आदि में अतिसुक्ष्म छिद्र सुई इत्यादि द्वारा बनाते हुए उसे पौधे के थोड़ा पास जमीन में गड़ा दें व उसमें आवश्यकतानुसार तीन-चार तीन में पानी भरते रहें जिससे शिवलिंग पूजन जैसे पौधे को लगातार पानी मिलता रहेगा । वैसे ड्रिप इरिगेशन के पाइप भी डालवाये जा सकते है अथवा आसपास के लोग अपने चौपहिया वाहन से भी कुछ बाल्टियाँ/कुप्पियाँभरकर एकान्तरित क्रम से सींच सकते है, जैसे कल रामलाल की बारी, परसों श्यामलाल की एव ंनरसों मेघालाल की बारी ।
(शेष पृष्ठ ४२ पर ) हर गली मोहल्ले/पाठशाला एवं वार्ड में यदि कुछ व्यक्ति जागृत हो जायेंतो बड़ा बदलाव लाया जा सकता है जैसे कि एक कागज़पर ये लिखकर सप्तहिक रुप से घर-घर जाकर पूछे कि उनके पास पौधारोपण हेतु कितनी भूमि है, पौधोंकी क्या स्थिति है, गमले कम पड़े तो ५ से १५ लीटर्स के कुप्पे/पीपे एक तरफ से काटकर उनमेंपौधारोपण करके पौधा बड़ा होने पर मंदिरादि में लगाया जा सकता है, वे किस प्रकार के पेड़ लगाना चाहेंगे/लगा सकते है । इस विचार से जन सामान्य प्रेरित हो एवं उनके पास जो-जो वस्तुएँअनावश्यक रुप से उपलब्ध हों उन्हे पौधारोपण के लिये उपलब्ध करा दिया जाये जिससे यह पहल छोटे-बड़े हर स्तर पर आगे बढ़ सके ।
पीपल, बरगद एवं श्रीवृक्ष (बेल का पेड़) को काटने वाला ब्रह्मघाती कहलाता है । वृक्षच्छेदी (हरे पेड़ को काटने वाला) मूक (गूंगे) रुप से जन्म लेगा ऐसा भी कहा जाता है । स्थानीय स्तर पर उपलब्ध डंडियां, बेंत होली पर व कभी न जलायें, एकत्र कर लें, रद्दी पेपर वाले के सम्पर्क मेंरहें एवं लोहा-लंकड़ व पुरानी जालियां उससे खरीद सकते है तथा स्वयं जोड़कर अथवा आवश्यकतानुसार वेल्डर से जुड़वाकर एवं घरों से पुरानी रस्सियां अथवा तार लाकर स्वयं ही सुरक्षा-कवच बड़ी आसानी से बनाये जा सकते है । वैसे पौधो के लिये सुरक्षा-कवच तैयार करने की और भी कई तरीके हो सकते है जिन्हें व्यक्तिगत रुप से चर्चा कर समझाया जा सकता है ।        ***
ज्ञान विज्ञान
चंद्रयान द्वितीय : एक महत्वाकांक्षी मिशन
निकट भविष्य में भारत अपना दूसरा चंद्रयान छोड़ने वाला है और यह चंद्रयान प्रथम की तुलना में काफी महत्वाकांक्षी अभियान होगा ।
अव्वल तो यह पहली बार होगा कि कोई यान चंद्रमा के उस हिस्से पर उतारा जाएगा जो पृथ्वी से दिखता नहीं है । यानी जब वह यान चांद पर उतरेगा, उस समय पृथ्वी से नियंत्रित नहीं होगा । दूसरी खास बात यह है कि यह यान चांद की विषुवत (भूमध्य) रेखा के आसपास नहीं बल्कि दक्षिणी धु्रव के निकट उतारा जाएगा ।
यदि यह मिशन कामयाब रहता है तो भारत के लिए भविष्य में मंगल पर उतरना और किसी उल्का पिंड पर उतरना संभव हो जाएगा । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अध्यक्ष कैलाशवाडिवू सिवान का कहना है कि चंद्रयान द्वितीय के अवतरण के साथ यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत के पास अन्य आकाशीय पिंडो पर यान भेजने और उतारने की तकनीकी क्षमता है । यह मिशन शुक्र ग्रह की ओर टोही यान भेजने का मार्ग प्रशस्त करेगा । इससे पहले चंद्रयान प्रथम ने चांद पर पानी के अणु की खोज की थी । चंद्रयान द्वितीय पर भी कई सारे वैज्ञानिक अन्वेषणोंकी व्यवस्था की गई है । 
जैसे चंद्रयान द्वितीय का लैंडर चांद की सतह पर प्लाज़्मा का मापन करेगा । प्लाज़्मा आवेशित कणों की एक परत होती है । इसके आधार पर यह समझा जा सकेगा कि चांद की धूल तैरती क्योंरहती है । इसके अलावा लैंडर चांद पर भूकंप (चंद्रकंप) का भी अध्ययन करेगा । 
यदि सब कुछ ठीक रहा तो चंद्रकंपनीयता के अध्ययन के आधार पर यह समझने मेंमदद मिलेगी कि चांद का केंद्रीय भाग किस चीज़ से बना है और क्या वह ठोस है ।
इस २५ किलोग्राम वजनी रोवर उपकरण पर वर्णक्रम मापी लगे है जिनके आंकड़ोंसे चांद की सतह के तात्विक संघटन को समझने मेंमदद मिलेगी । और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि यह एक बार फिर ज्यादा नफासत से पानी का सर्वेक्षण करेगा ।
चीता की रफ्तार में कानों का महत्व
चीता दुनिया में सबसे तेज़ थलचर है । यह किसी भी अन्य थलचर के मुकाबले ज़्यादा रफ्तार से दौड़ सकता है । इसकी लंबी टांगों और ताकतवर मांसपेशियों को ही इसकी रफ्तार का श्रेय दिया जाता रहा है । किंतु अब एक नया अध्ययन बता रहा है कि चीते के आंतरिक कानों में भी कुछ विेशेषता होती है जो उसे तेज़ भागने में मदद करती है ।
कुछ प्राणी वैज्ञानिकों का हमेशा से यह विचार रहा है कि चीते के कानों की रचना में जरुर कुछ खास बात होगी । गौरतलब है कि जंतुआें के आंतरिक कान संतुलन बनाए रखने मेंमददगार होते है और इसी से जंतुआेंको यह अंदाज़ भी लगता है कि वे सीधे खड़े है या नहीं । आतंरिक कान में तीन नलिकाएं होती है जो एक दूसरे के लंबवत होती हैं । इन नलिकाआें में भरे तरल पदार्थ में कुछ क्रिस्टल तैरते रहते है । जब से क्रिस्टल किसी नलिका की दीवार को स्पर्श करते है तो जंतु को अपनी स्थिति का भान होता है । इसे वेस्टिब्यूलर तंत्र कहते है । यह सिर और शरीर की स्थिति के सीधा रखने में, नज़र को सीध में रखने में मददगार होता है । 

शोधकर्ताआें ने साइन्टिफिक रिपोट्र्स में बताया है कि उन्होने बिल्लियों की कई प्रजातियों के आंतरिक कान की त्रि-आयामी छवि निर्मित करके तुलना की । ध्यान देने की बात है कि चीता, बिल्ली समूह का प्राणि है, जैसे तेंदुए, बाघ और घरेलू बिल्ली है । शोधकर्ताआें ने पाया कि चीते का वेस्टिब्यूलर तंत्र आंतरिक कान का एक बड़ा हिस्सा होता है बनिस्बत अन्य बिल्लियों के ।
इसके अलावा उनकी उपरोक्त तीन नलिकाएँ भी थोड़ी लंबी होती है । जैसा कि उपर कहा गया, कान का यही हिस्सा तो सिर की गति व आंख की दिशा को नियंत्रित करता है ।
शोधकर्ता का ख्याल है कि आंतरिक कान की इन्ही विशेषताआें के चलते भागते समय चीता अपना सिर एकदम सीधा रख पाता है जबकि उसका शरीर कुलांचे भर रहा होता है । और तो और, इसी वजह से तेज़दौड़ते हुए भी अपने शिकार पर नज़रे जमाए रखता है ।
शोधकर्ताआें ने यह भी पता किया कि विशाल चीता, जो अब विलुप्त् हो चुका है, में वेस्टिब्यूलर तंत्र इतना विकसित नहीं था । अर्थात यह विशेषता चीतों में हाल ही में विकसित हुई है ।
नई सुरक्षा स्याही विकसित की गई
आए दिन नकली नोट या फर्जी दस्तावेज़ों की खबरें सुनने को मिलती रहती है । शोधकर्ताआें ने एक ऐसी स्याही तैयार कर ली है जिससे नकली नोट, फर्जी दस्तावेज़ों और नकली दवाआें के उत्पादन को रोका जा सकता है ।
जालसाज़ी के कारण दवा कंपनियों और वित्तीय क्षेत्र को काफी नुकसान होता है । इन नुकसान से बचने के लिए फिलहाल कार्बनिक रंजक और अर्धचालक क्वांटम बिंदुआेंका उपयोग करके सुरक्षा कोड विकसित किए जाते है जिन्हें तोड़ पाना मुमकिन नहीं है किंतु कार्बनिक रंजको के साथ दिक्कत यह है कि ये समय के साथ विघटित होते है और क्वाटंम बिंदु विषैले होते है ।

वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सी.एस.आई.आर) की दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला के वैज्ञानिक बिपिन कुमार गुप्त और उनके साथियोंने बेहतर सुरक्षा स्याही विकसित की है । इस स्याही का इस्तेमाल सुरक्षा कोड विकसित करने के लिए किया जाएगा । दुर्लभ मृदा तत्वोंकी नैनो छड़ों और जिंक और मैग्नीज़ से बने प्रकाश उत्सर्जित करने वाले ठोस पदार्थो के मिश्रण को पोलीमार-आधारित स्याही में मिलाकर इस स्याही को तैयार किया है । यह स्याही कितनी कारगर है इसे जांचने के लिए शोधकर्ताआें ने काले पेपर पर इस स्याही की मदद से खास सुरक्षा कोड प्रिंट करके देखा है । 
इस स्याही से मुद्रित कागज़को जब पेराबैंगनी किरणों और इंफ्रारेड लेसर प्रकाश में रखा जाता है तो यह स्याही लाल और पीला प्रकाश उत्सर्जित करती है । नैनो छड़ें लाल और जिंक और मेग्नीज़ से बने ठोस पीले रंग के प्रकाश का उत्सर्जन करते है ।
इस स्याही का उपयोग करके कुछ चिन्होंके लिए खास काले कागज़ पर सुरक्षा कोड विकसित करने में सफलता मिली है । वैज्ञानिक अब मोबाइल आधारित स्कैनर के लिए सुरक्षा स्याही बनाने की योजना बना रहे है ।
गर्मी बढ़ने के साथ कीड़े सिकुड़ रहे हैं

एक ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि पिछले ४५ वर्षोंा में सबसे बड़ा भृंग (बीटल्स) के आकार में २० प्रतिशत की कमी आई है । अध्ययनकर्ताआें का कहना है कि इन कीटों की साइज़ में यह परिवर्तन पूरे इकोसिस्टम को प्रभावित करने की क्षमता रखता है ।
भृंगों की साइज में हो रहे परिवर्तन का अध्ययन कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय की पारिस्थिकीविद मिशेल त्सेंग और उनके स्नातक छात्रोंने किया है । सबसे पहले उन्होनें शोध साहित्य को खंगालकर यह पता किया कि भंृगों को अलग-अलग तापमान पर पालने का उनकी साइज पर क्या असर होता है । प्रयोगशाला में किए गए ऐसे १९ अध्ययनों में बताया गया था कि कम से कम २२ भृंग प्रजातियों की साइज तापमान बढ़ने पर घटती है । कुल मिलाकर, तापमान प्रति एक डिग्री बढ़ने पर साइज़ १ प्रतिशत कम हो जाती है ।
अब त्सेंग और उनके छात्र देखना चाहते थे कि प्राकृतिक परिवेश में क्या होता है । इसके लिए उन्होनें विश्वविद्यालय में वर्ष १८०० से संरक्षित रखे गए ६ लाख कीट नमूनों का सहारा लिया ।  नमूनों को काई नुकसान न पहुंचे इसलिए उन्होने साढ़े ६ हज़ार से ज्यादा कीटों के फोटो खींचकर उनका अध्ययन किया । ये नमूने ८ प्रजातियों के थे । साइज़का अंदाजा लगाने के लिए उन्होनें कीटों को कठोर पंख आवरण का मापन किया । इस आवरण को एलिट्रा कहते है और यह कीट की साइज़ का ठीक-ठाक अनुमान देता है ।
नाप-तौल करने पर पता चला कि पिछली एक सदी में इन ८ में से ५ प्रजातियों की साइज में कमी आई है । जर्नल ऑफ एनिमल इकॉलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र में त्सेंग और उनके छात्रों ने स्पष्ट किया है कि उन्होनें साइज़ पर असर डालने वाले अन्य कारकों पर भी ध्यान दिया है । जैसे बारिश की मात्रा, भोजन की उपलब्धता में उतार चढ़ाव वगैरह । किंतु टीम का मत है कि सबसे अधिक असर तो बढ़ते तापमान की ही दिखता है ।
त्सेंग और उनके छात्रों का कहना है कि कीटों की साइज़में गिरावट के कईमहत्वपूर्ण असर हो सकत है । जैसे छोटे कीट कम पराग कण एकत्र करते है, वे गोबर को निपटाने का काम भी धीमी गति से करते है । इन बातोंका असर अन्य जंतु प्रजातियों पर पड़े बगैर नहीं रहेगा ।
वैसे अन्य शोधकर्ताआें का मत है कि त्सेंग के अध्ययन के आधार पर पक्का नही कहा जा सकता कि साइज़ में गिरावट तापमान बढ़ने के कारण ही हो रही है । दूसरी ओर, मछलियों पर किए गए अध्ययन भी बता रहे है कि पानी का तापमान बढ़ने पर बड़ी मछलियों की साइज़ घटती है ।
जीव जगत
डॉल्फिन भी सोच-विचार करते हैं
ज़ुबैर सिद्दीकी
इन दिनों इंस्टिट्यूट फॉर मरीन मैमल स्टडीज़ मेंकैली नामक डॉल्फिन काफी प्रतिष्ठित है । इस संस्थान में सभी डॉल्फिन को अपने पूल में सफाई कि लिए प्रशिक्षित किया गया है - जब वे पूल का कचरा लाकर अपने प्रशिक्षक को देती हैं, तो उन्हें एक मछली उपहार स्वरुप मिलती है । इस तरह, डॉल्फिन अपने पूल को साफ रखने में मदद करती है ।
लेकिन कैली एक मछली पाकर संतुष्ट नही थी । जब भी पूल में उसको कागज़मिलता है, वह उसे पूलमें एक पत्थर के नीचे छिपा देती है और प्रशिक्षक को देखते ही उस कागज़ का एक टुकड़ा लाकर उसे दे देती है । उपहार में मछली मिलने के बाद वह दोबारा उसी कागज़ मेंसे एक और टुकड़ा लाती है ताकि उसे फिर से मछली मिले ।
यह रोचक व्यवहार दर्शाता है कि कैली मेंभविष्य की सोच भी है और वह संतुष्टि को टाल सकती है । और तो और, वह यह भी समझ चुकी है कि पूरा कागज़ लाने पर जो इनाम मिलता है वही इनाम कागज़ का एक टुकड़ा लाने पर भी मिल जाता है ।
और चतुराई यही तक सीमित नहीं है । एक दिन कैली ने एक गल पक्षी को पकड़ा । यह पक्षी काफी बड़ा था, इसलिए उस उपहार में बहुत सारी मछलियां मिलीं । इससे कैलीको एक नया ख्याल आया । अगली बार उसने भोजन में मिली मछलियों में से एक मछली को प्रशिक्षिक की नज़र से बचा कर पूल में छिपा दिया और प्रशिक्षक की अनुपस्थिति में पूल की सतह पर लाकर उस मछली का उपयोग गल पक्षी को ललचाने के लिए किया । गल पक्षी को पकड़कर उपहार में और ज्यादा मछलियां मिलीं । यही चालाकी उसने अपने बच्चों को भी सिखाई और देखते ही देखते यह उनके बीच एक मुख्य खेल बन गया ।
रहन-सहन की विविधता के अनुसार डॉल्फिन ने भोजन प्राप्त् करने की कई रणनीतियोंका भी आविष्कार किया है । जैसे ब्राजील के एक समुद्री मुहाने मेंपाई जाने वाली टुकुक्सी डॉल्फिन नियमित रुप से अपनी पूंछ की फटकार का इस्तेमाल मछली पकड़ने में करती हैं । वे अपनी पूंछ की सहायता से मछली को ९ मीटर तक पानी के उपर उछाल देती है और जब वह पानी की सतह पर भौचक्की होकर गिरती है तो टुकुक्सी उसे पकड़ लेती है । मैजीलान जलडमरुमध्य में पाई जाने वाली डॉल्फिन शिकार के दौरान खुद को छिपाने के लिए समुद्री शैवाल का इस्तेमाल करती है और मछलियोंके बचकर भागने के रास्ते बंद कर देती है । 
टेक्सास स्थित गैल्वेस्टोन खाड़ी में कुछ मादा बॉटजनोज़ डॉल्फिन और युवा डॉल्फिन झींगा पकड़ने वाली नौकाआें का पीछा करते है । डॉल्फिन झींगा जाल में घुस जाती है और जिंदा मछली पकड़कर जाल से बाहर निकल जाती है ।
इतना ही नही, डॉल्फिन समस्याएं हल करने के लिए औज़ार भी बनाती है । वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया कि डॉल्फिन एक बिच्छू मछली को मारकर उसके कंटीले शरीर का उपयोग करके किसी दरार मेंछिपी मोरे ईल को टोंच-टोंचकर बाहर निकलने पर मजबूर कर देती है । ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी तट पर, बॉटलनोज़ डॉल्फिन उथले पानी में अपनी नाक पर स्पंज का उपयोग कर स्टोनफिश और स्टिंगरे के नुकिले कांटोंसे खुद का बचाव करती है ।
प्रसिद्ध डॉल्फिन विशेषज्ञ केरन प्रोयर का वह प्रयोग प्रसिद्ध है जिसमें डॉल्फिन की नए व्यवहार गढ़ने की क्षमता का परीक्षण किया गया । जब भी डॉल्फिन कोई नया व्यवहार दर्शाती, उनको पुरस्कृत किया जाता था । कुछ परीक्षणोंके बाद ही डॉल्फिन समझ गई कि उनसे क्या अपेक्षा है । इसी तरह का एक परीक्षण मनुष्योंपर भी किया गया था और उन्हें प्रशिक्षित करने में भी लगभग उतना ही समय लगा था । इस परीक्षण में जब डॉल्फिन को यह बात समझ आ गई तो वे उत्साह से टैंक में उछलकूद करते हुए, अधिक से अधिक नए व्यवहार प्रदर्शित करने लगी ।
डॉल्फिन जल्द सीखती है । डॉल्फिन का बच्चा कई सालों तक अपनी मां के साथ रहता है । अत: उन्हे सीखने का काफी समय मिलता है, खासकर अनुकरण करके । एक डॉल्फिनेरियम में एक व्यक्ति ने देखा की पूल की खिड़की से डॉल्फिन का बच्चा उसे देख रहा था । जब उसने अपनी सिगरेट से धुएं का एक गुबार छोड़ा, तो वह बच्चा तुरंत अपनी मां के पास गया और वापस लौटकर अपने मुंह से दूध की बौछार फेंकी, ठीक सिगरेट के धूएं जैसी ।
डॉल्फिन के सामाजिक रहन-सहन पर भी काफी अध्ययन किया गया है । डॉल्फिन की कई प्रजातियां काफी पेचीदा समाज में रहती है । इस समाज में रहने के लिए युवा डॉल्फिन को समाज के तौर तरीकों और आपसी सहयोग को समझने की भी आवश्यकता होती है । वैज्ञानिक रैन्डाल वेल और उनके सहयोगियोंने निरीक्षण में पाया कि किशोर लड़को की तरह व्यवहार करते है । अपने सिर का उपयोग करके दूसरे डॉल्फिन को पानी के बाहर फेंकना उनकी शरारतों का एक हिस्सा है ।
यह भी देखा गया कि डॉल्फिन धीरे-धीरे रिश्तों के नेटवर्क का निर्माण भी करते है, जिसमें एक मां और उसके बच्चे के बीच मज़बूत बंधन से लेकर अन्य समुदाय के सदस्योंके साथ अच्छी दोस्ती शामिल है । वयस्क नर डॉल्फिन प्राय: जोड़ियों में रहते है और कई बार बड़ा गुट भी बना लेते है । बड़े सामाजिक समूहों में विभिन्न सम्बंधों की पहचान के लिए वे कुशल संचार प्रणाली का उपयोग करते है । डॉल्फिन संपर्क में रहने के लिए विभिन्न क्लिक और सीटी की आवाज़ों के अलावा स्पर्श तथा शारीरिक हाव भाव का उपयोग भी करते है । हमारी परिभाषा के अनुसार अभी तक इस बात का कोई प्रमाण नहींहै कि डॉल्फिन किसी भाषा का उपयोग करते है, लेकिन अभी तक हमने पर्याप्त् परीक्षण भी नहीं किए है । प्रयोगो में पता चला है कि डॉल्फिन न केवल अलग-अलग शब्दों के अर्थ समझती है, अपितु वे वाक्य भी समझ सकती है । अक्कामाई नाम की एक डॉल्फिन ने ६० से ज्यादा शब्द सीखे है और २००० से अधिक वाक्य समझ सकती है ।
डायना रीस और उनके साथियों ने न्यूयॉर्क एक्वैरियम के अंदर कुछ दर्पण लगाए । वे यह देखना चाहते थे कि क्या बॉटलनोज़डॉल्फिन अपने प्रतिबिंब को पहचान पाती है । उन्होने डॉल्फिन के शरीर पर जगह-जगह काली स्याही के निशान लगा दिए । डॉल्फिन तैर कर दर्पण के सामने गई और काले निशान को आईने की ओर करके देखा । देखा गया कि निशान लगने के बाद वे दर्पण के सामने पहले से अधिक समय भी बिताने लगी । खुद को दर्पण मेंपहचानने की क्षमता आत्म-चेतना का संकेत देती है, जो पहले केवल मनुष्यों और बंदरों में देखी गई थी । वास्तव में बुद्धिमता शब्द को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया जाता रहा है । जानवरों में तो दूर, मनुष्यों में भी इसे समझ पाना मुश्किल है । आम तौरप बड़े दिमाग को बेहतर सूझबूझ से जोड़ा जाता है, और बॉटलनोज़ डॉल्फिन का दिमाग मनुष्य दिमाग से औसतन २५ प्रतिशत भारी होता है । किंतु बड़े प्राणियों का दिमाग भी बड़ा होता है इसलिए मस्तिष्क क्षमता का सटीक अनुमान मस्तिष्क और शरीर के आकार के अनुपात से मिलता है । इसे दिमागीकरण अनुपात (ई.क्यू.) कहा जाता है । गोरिल्ला का ईक्यू १.७६, चिंपैंजी का २.४८ और बॉटलनोज़डॉल्फिन का ५.६ है । 
आश्चर्य की बात यह है कि केवल मनुष्य ही ७.६ ईक्यू के साथ डॉल्फिन से आगे है । लेकिन हमें मस्तिष्क के कामकाज़के बारे मेंपर्याप्त् जानकारी नहीं है जिससे हम यह बता सकें कि यह आंकड़ा वास्तव में किस चीज़ का द्योतक है । अलबत्ता, अधिकांश वैज्ञानिक मानते है कि बुद्धिमता का पैमाना व्यवहार होना चाहिए दिमाग की साइज नहीं ।
अभी भी हमारे लिए जानने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन अब तक के प्रमाणोंसे ऐसा लगता है कि डॉल्फिन वास्तव में बुद्धिमता की श्रेणी में काफी उपर है ।                                       ***
अर्थ जगत
विकास के दावे और बढ़ती विषमता
कुमार प्रशांत
हमारे देश की ७३ प्रतिशत सम्पदा देश के केवल १ प्रतिशत लोगों के हाथोंमें सिमट गई है । इन १ प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति पिछले एक साल में २१ लाख करोड़ बढी है । 
हमारे देश का यह आंकड़ा दावोस में ही जारी किया गया  और यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है । पिछले साल जब ऑक्सफेम ने अध्ययन जारी किया था कि भारत के १ फीसदी लोगोंकी सम्पत्ति में ५८ प्रतिशत का इजाफा हुआ है और दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है ।
ऐसा कभी कभार ही होता है कि सच खुद सामने आकर झूठ का पर्दाफाश कर देता है । ऐसा ही हुआ था जब तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबाता अपने पद से विदा हो रहे थे । उन्होने जाते जाते कहा कि हमारी दुनिया का सच यहा है कि संसार की कुल सम्पत्ति का ५० प्रतिशत केवल ६० लोगोंकी मुट्ठी में है । दुनिया की सबसे अधिक सम्पत्ति, सारी दुनिया से समेटकर जिस एक देश ने अपने मुट्ठी में कर रखी है, उसी के राष्ट्रपति ने जाते जाते बता दिया कि संसाधनों और लोगों के बीच का सच्चा समीकरण क्या है । और प्रकारांतर से यह भी कबूल कर लिया कि यह सच इतना टेढ़ा कि इसे सीधा करना दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रपति के भी बस का नही है ।
अब जब धन्नासेठ दुनिया के सारे धन्नासेठ सत्ताधीश दावोस मेंजमा हुए और हमारे प्रधानमंत्री उन्हें भारत के विकास की सच्ची कहानी सुना रहे थे, एक भयानक सच किसी दूसरे रास्ते हमारे और दुनिया के सामने आ गया है । ` सबका साथ, सबका विकास ' यह जो माहौल देश भर मेंबनाया जाता रहा है, और जिसे साकार करने के लिए अनगिनत उपक्रम जोर-जोर से घोषित होते रहे है, हमारे हाथ उनका लब्बोलुआब यह आया है कि हमारे देश की ७३ प्रतिशत सम्पदा देश के केवल १ प्रतिशत लोगों के हाथोंसिमट गई है । 
इन १ प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति पिछले एक साल में २१ लाख करोड़ बढ़ी है । ये आंकड़े और तस्वीर हमने नहीं बनाई है । यह किसी रेटिंग एजेंसी का वह आंकड़ा भी नहीं है जो किसी दबाव-प्रभाव से बढ़ाया या घटाया जा सकता है । वैसे तो सत्ताधीशों के हाथों में आंकड़े हमेशा ही खिलौनों से रहे हैं और हम यह खेल और खिलौना काफी समय देख रहे है । लेकिन हमारे देश का यह आंकड़ा दावोस में ही जारी किया गया और यह अध्ययन एक गैर-सरकारी संस्थान ने किया है ।
पिछले ही साल की बात है जब ऑक्सफेम ने यह अध्ययन जारी किया था कि भारत के १ फीसदी लोगोंकी सम्पत्ति में ५८ प्रतिशत का इजाफा हुआ है । और अगर हम भूलें नहीं तो दावोस में ही पिछली बार कहा गया था कि विश्व शांति को सबसे बढ़ा खतरा अगर किसी से है तो वह बढ़ती हुई विषमता से है । कहने का मतलब यह था कि अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को पाटने की बात तो अब राष्ट्राध्यक्षों के एजेंडे में ही नही है लेकिन यह खाई चौड़ी न हो यह सावधानी रखना धन्नासेठों व सत्ताधीशों के लिए जरुरी है क्योंकि यह आग बहुत कुछ लील जाएगी । विश्व बैंक ने कभी कहा था कि उसका आर्थिक अध्ययन बताता है २०३० तक दुनिया से गरीबी खत्म हो जाएगी । अब विश्व बैंक खुद ही खत्म हो रहा है लेकिन २०३० तक दुनिया से गरीबी दूर हो जाएगी, ऐसा सपना अब मुंगेरीलाल भी नहीं देखते ।
दावोस में पिछली बार चीन के राष्ट्रपति झी जिनपिंग का जलवा था । वे चीन का वह चमकीला चेहरा दुनिया को बेच रहे थ जिसे चीन के ही अधिकांश लोग नहींजानते-पहचानते है । लेकिन वे दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक देश के प्रमुख थे । इस बार यही काम हमारे प्रधानमंत्री करते दिखे । उनके साथ हमारे देश के कारपोरेटोंकी बड़ी मंडली और सरकारी आंकड़ो के विशेषज्ञ भी अपना पहाड़ लेकर वहां थे । हमारे प्रधानमंत्री के साथ ही यह सच्चाई भी वहां गई कि उनके साथ दावोस पहुंचे इन्ही करापोरेटों की आय में २०१७ में २०.९ लाख करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है । इसका दूसरा मानी यह है कि २०१७-१८ का भारत सरकार का कुल बजट जितना था उस बराबर की कमाई इन कारपोरेटों ने २०१७ में की है । आज की तारीख में भारत में १०१ अरबपति है जिनमें से १७ अरबपति २०१७ में ही पैदा हुए है । अर्थशास्त्रियों की जमात में एक सम्मानित नाम है टॉमस पिकेटी का । उनका अध्ययन बताता है कि भारत की सबसे गरीब जमात के सबसे पीछे के ५० प्रतिशत लोगों की आय में पिछले वर्ष में ० प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या १३ प्रतिशत बढ़ी है । 
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरमे की ताजा रिपोर्ट हमारी कुछ दूसरी तस्वीरेंलेकर आया है । हम दुनिया की विकास सूचकांक में ६२ वें स्थान पर है मतलब चीन २६ और पाकिस्तान ४७ से पीछे । वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम दुनिया भर के देशों का ऐसा अध्ययन करते हुए यह देखता है कि वहां कि सामान्य जनता के रहन-सहन का स्तर क्या है, पौष्टिक खाद्य की उपलब्धता कैसी है, पर्यावरण के संरक्षण की स्थिति क्या है और देश पर वह विदेशी कर्ज कितना है जिसका भावी पीढ़ियों पर बोझ पड़ेगा । यह अध्ययन बताता है कि आर्थिक रुप से कौन देश कितना सशक्त है इसका जवाब यह नहीं है कि हमने जनधन योजना में कितने बैंक खाते खोले बल्कि यह है कि उन खातों में आज क्या जमा है और जो जमा है वह कहां से आया है । पैसा कहां ओर कैसेपैदा हो रहा है और वह किन रास्तों से चल कर लोगों की जेबों तक पहुंच रहा है, यह रास्ता जाने बिना न विकास के आंकड़ों का कोई अर्थ होता है न कमाई के आंकड़ो का ।
इसलिए दावोस में हमारा चेहरा चाहे कितना चमकाया जाए, उस चेहरे के पीछे की यह सच्चाई छिपाई नहीं जा सकेगी कि हमारी जेब लगातार खाली होती जा रही है, सरकारी खर्चेपर कोई प्रभावी रोक संभव नहीं हो पा रही है, बैंकिंग व्यव्स्था की अराजकता संभाली नहीं जा पा रही है, रोजगारविहीन विकास की घुटन फैल रही है, खेती-किसानी की कमर टूट चुकी है, औद्योगिक उत्पादन भी गिर रहा है और खपत भी । नोटबंदी ने हमारे अर्थतंत्र के मध्यत घटक का दम तोड़ दिया तो जीएसटी से उसे बेहाल कर दिया है । 
किसी भी अर्थ व्यवस्था की मध्यम कड़ी ही उसे संभालकर रखती है और उपर-नीचे के थपेड़ों से बचाती है । यह मध्यम कड़ी आज जैसी बेहाल कभी नहीं थी । जीएसटी में जितनी बार, जितने बदलाव किए जा रहे है वे दूसरा कुद बताते हों या न बताते हो, यह तो बता ही रहे है कि इसे लागू करने से पहले जितना अध्ययन व जितनी व्यवस्था जरुरी थी, वह नहीं की गई । अधपका फल या अधपकी फसल किसी के काम नहीं आती है । खेत को जरुरत कमजोर कर जाती है ।
यह सब लिखते-जानते किसी तरह खुशी नहीं है मुझे । बहुत तकलीफ है, क्योंकि मामला इस प्रधानमंत्री या उस प्रधानमंत्री का नहीं है । इस या उस सरकार की भी बात नहीं है । बात देश की है जो किसी भी सरकार के बाद भी रहेगा, किसी भी प्रधानमंत्री के बाद भी चलेगा । वह कमजोर हो, घायल हो, खोखला हो तो तकलीफ कितनी दारुण होती है , यह मैंभी जानता हँू और आप भी ।      ***